मायापुरी अंक 52,1975
हिंदी फिल्मों में हिंदी नाम रखने की प्रथा को स्व. बिमल राय ने प्रचलित किया था। दरअसल वे गूढ़ उर्दू से बहुत घबराते थे। लेकिन हिंदी फिल्मों में उर्दू का बड़ा चलन रहा है इसलिये वे भी चाहते थे कि उर्दू में कोई हिट फिल्म बनाऐं। इसके लिए उन्होंने गुजरे वक्त की एक प्रसिद्ध फिल्म ‘भाईजान’ को पुन: बनाने का निश्चय किया और उसके निर्देशन के लिए एस. खलील का चयन किया। और फिल्म का नाम ‘बेनजीर’ रखा. और शीर्षक रोल के लिए मीना कुमारी को अनुबंधित किया था। हीरो थे अशोक कुमार फिल्म की पृष्ठभूमि के अनुसार उसकी भाषा उर्दू थी। इसलिए उन्होंने उसके संवाद कमाल अमरोही से लिखवाने का विचार किया। निर्देशक एस. खलील ने कहा। इसके लिए आपको मेरे साथ कमाल अमरोही के घर चलना पड़ेगा।
मैं कमाल के घर क्यों जाऊं? आप उन्हें यही ले आईये। यही बैठकर बातें कर लेंगे। बिमल राय ने कहा।
यह अच्छा नहीं है वह भी निर्माता हैं आप भी निर्माता हैं। आप उनसे लिखवाना चाहते हैं। आप वहां जाएंगे तो वे ज़रा गर्व अनुभव करेंगे। खलील ने पुन: चलने के लिए आग्रह करते हुए उन्हें समझाया।
ऊंह कमाल बड़ी गाढ़ी उर्दू बोलते हैं। मैं वहां नहीं जा सकता आप ही बात कर लें। बिमलराय ने न जाने का कारण स्पष्ट करते हुए कहा।और इस प्रकार बात बनने से पहले ही खत्म हो गई। और ‘बेनजीर’ के निर्देशन के साथ लेखन का भार भी एस. खलील को ही सौंप दिया गया। वैसे ‘भाईजान’ भी एस. खलील ने ही लिखी थी।
इस बात से आपको इतना अनुमान तो हो ही गया होगा कि बिमल राय को सख्त उर्दू से कैसी घबराहट होती थी? खैर, फिल्म शुरू हुई। लेकिन फिल्म की भाषा उर्दू होने के कारण वे बहुत कम सैट पर जाते थे। फिर भी एक दिन वे सैट पर गए तो वहां मीना कुमारी और अशोक कुमार शूटिंग कर रहे थे। बिमल राय को सैट पर देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उनका एक कारण यह था कि वे सैट पर आते थे तो चुप नहीं रहते थे। कभी कैमरे का ऐंगल चेंज करवाते थे। कभी पात्रों की जानकारी जानने बैठ जाते थे और कभी लाइटिंग की कमजोरी निकालने लगते थे। उनके सैट पर रहने का मतलब ही था कि अब कुछ न कुछ नरम-नरम भूल सुधार जरूर होगी। लेकिन उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे अशोक कुमार और मीना कुमारी की शूटिंग देखते रहे।
मीना कुमारी अशोक से कह रही थी।
तौबा-तौबा आप तो खुदाई का दावा करने लगे।
जवाब में अशोक कुमार ने कहा “नाडाजो बिल्लाह” (अल्लाह की शरण)
यह संवाद सुनते ही स्व. बिमल राय सैट से बाहर चले गए। क्योंकि वे गूढ़ उर्दू से अलंजिक थे। बाहर आकर निकलकर जाते-जाते फिर भी एक सहायक से पूछ ही बैठे कि मीना कुमारी ‘नोजो बिल्ला’ क्या कह रही थी?