वह पर्दे पर आते हैं तो दर्शकों के जेहन पर एक खौफ-सा तारी होने लगता है। लेकिन फिल्मों में अपनी खलनायिकी से नाम कमाने वाले अभिनेता गोविंद नामदेव असल में बेहद विनम्र हैं। दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से प्रशिक्षित हुए और बरसों तक वहां काम करने के बाद गोविंद मुंबई तो चले गए लेकिन आज भी वह हर साल एक हफ्ते के लिए दिल्ली आकर एन.एस.डी. के छात्रों को अभिनय के गुर सिखाते हैं। हाल ही में उनसे दिल्ली में हुई एक मुलाकात में काफी लंबी बातचीत हुई।
एक्टिंग की तरफ आपका रुझान कब और कैसे हुआ?
मैं मध्यप्रदेश के एक छोटे-से शहर सागर का रहने वाला हूं। सातवीं क्लास तक की पढ़ाई मैंने वहां की और उसके बाद हम लोग दिल्ली आ गए थे। यहां स्कूली दिनों से ही नाटकों वगैरह में मेरी रूचि रही और चूंकि मेरा स्कूल मंडी हाउस के करीब ही था तो थिएटर और थिएटर करने वालों को देखते-देखते वह रूचि बढ़ती चली गई और आखिर एक दिन मैंने भी एन.एस.डी. ज्वाइन कर लिया।
ज्यादातर कलाकार एन.एस.डी. के बाद मुंबई का रुख करते हैं जबकि आप उसके बाद बरसों तक एन.एस.डी. रिपर्टरी से जुड़े रहे। ऐसा क्यों?
जब हम लोग थिएटर के तीसरे साल में थे तो हर किसी की अपनी-अपनी योजनाएं थीं। अनुपम खेर ने कहा कि वह तो लखनऊ जाकर पढ़ाएंगे, सतीश कौशिक बोले कि मैं तो मुंबई जाकर काम तलाशूंगा, करण राजदान ने कहा कि मेरी तो बात हो रखी है और मुंबई जाते ही मुझे रोल मिल जाएगा। पर मुझे अपने लगता था कि मेरे अंदर अभी उतनी परिपक्वता नहीं आई है कि मैं मुंबई जाकर वहां वालों को अपना कुछ काम दिखा सकूं। उस समय हमारे कई सीनियर्स थे जो बरसों से यहां रह कर रिपर्टरी में काम कर रहे थे। सुरेखा सीकरी, मनोहर सिंह, उरा बावकर वगैरह को हम परफॉर्म करते हुए देखते तो अवाक रह जाते थे। तब लगता था कि काम करो तो इनकी तरह से करो कि जो देखे, बस देखता रह जाए। ये सब लोग छह-सात साल से यहां पर थे और तब मुझे लगा कि अगर इनका स्तर छूना है तो थिएटर में और वक्त गुजारना होगा। 1978 में मैं एन.एस.डी. गया था और 1989 तक मैंने वहीं रह कर काम किया और जब मुझे लगने लगा कि अब मेरे काम में वह परिपक्वता आ गई है कि मैं मुंबई जाकर किसी के भी सामने खड़ा हो सकूं तब मैंने दिल्ली छोड़ने का इरादा किया।

मुंबई से कोई बुलावा आया था या आपने खुद ही वहां जाने की ठानी?
बुलावा नहीं था लेकिन मुझे लगने लगा था कि अगर मैं खुद आगे बढ़ कर कोई निर्णय नहीं लूंगा तो फिर यहीं का होकर रह जाऊंगा। तब तक मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियां भी बढ़ गई थीं। दो बेटियां हो चुकी थीं और उनकी ख्वाहिशें भी बढ़ रही थीं। थिएटर से जो मिलता था वह टॉफी बराबर था और टॉफी से आखिर कब तक उन्हें बहलाता। थिएटर मुझे सुकून देता था, आज भी देता है लेकिन अपने बच्चों के भविष्य की कीमत पर थिएटर से जुड़े रहना मुझे सही नहीं लगा और मैंने खुद ही मुंबई का रुख कर लिया।
लेकिन फिल्म इंडस्ट्री तो समुंदर है। पहली बार पांव रखते हुए मन में यह असमंजस नहीं था कि तैरेंगे या डूबेंगे?
बिल्कुल नहीं। इतने सालों तक जो थिएटर मैंने किया था, जो किरदार मैंने निभाए थे, जिस लेवल का आत्मविश्वास मेरे अंदर आ चुका था तो असमंजस की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी। मैं तय करके गया था कि अगले छह महीने में मैं अपने परिवार को भी वहां पर बुला लूंगा और तीसरे ही महीने में मुझे केतन मेहता की ‘सरदार’ में काम मिल गया और फौरन ही मैं अपने परिवार को दिल्ली से मुंबई ले गया। दिल्ली में भी सब कुछ बेच कर गया क्योंकि यह पता था कि अब यहां वापस नहीं आना है।
आपने निगेटिव किरदार ही ज्यादा निभाए हैं। आपको नहीं लगता कि इन किरदारों ने आपकी प्रतिभा को एक खांचे में सीमित करके रख दिया?
नहीं, बिल्कुल भी नहीं। मैंने जान-बूझ कर निगेटिव किरदारों को चुना। दरअसल थिएटर में मेरा एक नाम, एक पहचान बन चुकी थी और फिल्मों में आने के बाद मुझे अपनी उस प्रतिष्ठा को भी बनाए रखना था। मैं नहीं चाहता था कि मुझे फिल्मों में कोई ऐसा-वैसा किरदार निभाते हुए देख कर कोई यह सोचता कि यह इतने मामूली रोल के लिए मुंबई चला गया। मुझे पहली कतार में ही रहना था और हिन्दी फिल्मों में सिर्फ तीन ही किरदार पहली कतार में होते हैं-हीरो, हीरोइन और खलनायक। हीरो वाला मामला मेरे साथ था नहीं तो मैंने जान-बूझकर खलनायक वाला रास्ता चुना और सफल भी रहा क्योंकि मैंने हमेशा अलग किस्म के खलनायक ही चुने। ‘बैंडिट क्वीन’, ‘विरासत’, ‘प्रेमग्रंथ’, ‘सरफरोश’, ‘गॉडमदर’, ‘सत्या’ जैसे मेरे निभाए कोई भी किरदार उठा लीजिए, किसी में भी आपको समानता नहीं मिलेगी।
आपके निभाए ये किरदार काफी वास्तविक-से लगते हैं। इतने ज्यादा, कि कई बार इनसे घृणा तक होने लगती है। कैसे आप इतनी गहराई तक जाकर इन्हें पकड़ पाते हैं?
किरदारों को निभाने से पहले हमें इनके बारे में जो बताया जाता है उनसे हट कर मेरा अपना रिसर्च वर्क भी रहता है। जैसे ‘विरासत’ में मेरा लकवाग्रस्त व्यक्ति का रोल था। इससे पहले मैं एक टेलीफिल्म ‘ज्योति बा फुले’ कर चुका था जिसमें ज्योति बा को भी आखिर में जाकर लकवा लग जाता है। तब मैंने ऐसे लोगों को करीब से देखा जिनमें से एक डॉक्टर भी थे। उनसे मेरी लंबी चर्चा हुई कि एक लकवाग्रस्त इंसान कैसे सोचता है, कैसे वह अपनी बात और अपनी भावनाओं को सामने वाले तक पहुंचाने के प्रयास करता है। उसी चीज को दिमाग में रख कर मैंने यह किरदार निभाया जिसे लोगों ने काफी पसंद भी किया।
फिल्म इंडस्टी में इतना लंबा समय गुजारने के बावजूद आपने कम ही काम किया। इसकी क्या वजह रही?
वजह यही थी कि मुझे सिर्फ अच्छा काम करना था। ऐसा काम करना था जिसमें मैं अपनी ओर से कुछ नया दे सकूं। अगर मैं अपने पास आने वाला हर काम करता चला जाता तो अब तक खत्म हो चुका होता। मैंने हमेशा यह देखा कि जो किरदार मुझे निभाना है, कहानी में वह कहां खड़ा होता है, उसका महत्व क्या है। सिर्फ करने के लिए मैं कोई भी काम नहीं कर सकता क्योंकि यह अभिनय के प्रति बेईमानी होगी।
आप अभिनय पढ़ाते भी हैं। वे कौन-सी चीजें हैं जो आप अपने विद्यार्थियों को सबसे ज्यादा सिखाते हैं?
ऑब्जर्वेशन और रिसर्च-वर्क। इन दो चीजों के बिना आप अपने काम में नयापन नहीं ला सकते। एक अभिनेता के तौर पर यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप हर बार कुछ नया दें और यह तभी संभव है जब आप अपने किरदार को लेकर खूब सारा रिसर्च-वर्क करें और अपने आसपास की दुनिया को ऑब्जर्व करें और फिर अपने किरदार में उन चीजों का इस्तेमाल करें।
आपके पुराने साथियों में कइयों ने निर्देशन का भी रास्ता पकड़ा। अनुपम खेर ने एक, तो सतीश कौशिक ने ढेरों फिल्में बनाईं। कभी आपका मन नहीं हुआ डायरेक्टर बनने का?
नहीं, न कभी डायरेक्टर बनने का और न ही प्रोड्यूसर बनने का। कभी सोचा ही नहीं कि एक्टिंग से हट कर भी कुछ करना है। हां, यह भी है कि जीवन भर एक्टिंग भी नहीं करनी है। जल्द ही ऐसा वक्त आएगा जब मैं अभिनय को थोड़ा किनारे करके अभिनय सिखाने पर ज्यादा ध्यान देने लगूंगा। मेरा मन है कि जो ज्ञान मैंने अर्जित किया है, उसे मैं बांट कर जाऊं।

इस दिशा में प्रयास भी हो रहे हैं?
बिल्कुल हो रहे हैं। हर साल एन.एस.डी. आकर एक हफ्ते के लिए नई पीढ़ी से रूबरू होना भी इसी का हिस्सा है। अभी मेरी छोटी बेटी की शादी होनी बाकी है। उसके बाद मैं सक्रिय एक्टिंग को छोड़ कर अपने गृह-प्रदेश मध्यप्रदेश में एक एक्टिंग स्कूल खोलने का इरादा रखता हूं। कभी कोई फिल्म करनी होगी तो वहीं से आकर करूंगा।
आपने कई टी.वी. धारावाहिक भी किए लेकिन इधर लंबे समय से आप छोटे पर्दे पर भी नहीं आए। कोई खास वजह?
वजह यही है कि जब आप कोई टी.वी. सीरियल करते हैं तो आपकी प्राथमिकता वही हो जाता है। महीने में करीब 25 दिन आपको वहां देने पड़ते हैं और ऐसे में फिल्मों के लिए और थिएटर के लिए समय नहीं निकल पाता।
आगे आप किन फिल्मों में आने वाले हैं?
फिल्में तो कई हैं जिनका काम चल रहा है। ‘सोलर एक्लिप्स’ है, एक कॉमेडी फिल्म ‘फुलटू जुगाड़ू’ है, अजय चंडोक की ‘शादी तो बनती है’ भी है, एक उल्लेखनीय फिल्म लेख टंडन जी की है ‘फिर उसी मोड़ पर’। इनके अलावा भी कई हैं जिनमें मैं काम कर रहा हूं।