भारत के लोग इस बार अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाने वाले हैं। स्वतंत्रता, जिसका उर्दू में अर्थ है आज़ादी! आज़ादी उन्हीं को मिलती है जो कभी गुलाम रहे होते हैं। भारत करीब दो सौ सालों तक अंग्रेज़ों द्वारा गुलाम रहा और जब उसे आज़ादी मिली, तो उस आज़ादी की एक बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी। यह कीमत, घर-द्वार, रूपए-पैसे, नौकरी-व्यापार के साथ साथ कुछ लोगों ने अपने खून से भी चुकाई। भारत की स्वतंत्रता की बात बिना बटवारे का ज़िक्र किए अधूरी है।
एक करोड़ से अधिक लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे इन मुल्कों की आज़ादी में। 6 करोड़ परिवारों ने इधर से उधर और उधर से इधर पलायन किया और न जाने कितनी ही बहनों बेटियों ने अपनी अस्मिता लुटाई इस आज़ादी के नाम पर। आज, 75 साल बाद भी उस खौफ़नाक मंज़र का ज़िक्र भर हो तो रूह कांप उठती है और उँगलियाँ अगला पैरा लिखने से सहम जाती है। लेकिन वरिष्ठ लेखक, फिल्ममेकर और भारत के सर्वश्रेष्ट गीतकार गुलज़ार साहब ने इस त्रासदी को सिर्फ सुना या पढ़ा ही नहीं, झेला भी है।
आगामी 18 अगस्त को गुलज़ार साहब अपना 87वां जन्मदिन मनाने वाले हैं और उनके 65 साल के महान कैरियर में उन्होंने सैकड़ों फिल्मों में गीत और संवाद लिखे हैं। डेढ़ दर्जन फ़िल्में बनाई हैं और दसियों किताबें लिखी हैं पर नॉवल के खाते में उनके पास सिर्फ एक उपन्यास है – दो लोग!
दो लोग की कहानी दो नहीं बल्कि एक से लोगों की ही पंजाब प्रान्त के कैंपबेलपुर के कस्बे से शुरु होती है, जो अब अटक के नाम से नार्थ पाकिस्तान में पड़ता है। जिसे अंग्रेज़ों ने बसाया था और ब्रिटेन की तरह ही कैम्पबेल नाम रखकर बड़े ख़ुश हुए थे पर, पंजाबियों ने इसका नाम कैम्ब्लपुर कर दिया था।
1946 का समय चल रहा है और यहाँ कुछ लोग हैं जिनके कानों में रोज़ बंटवारे की ख़बरें बजती हैं और चुप हो जाती है। कुछ तो बिचारे इतने सीधे हैं कि यह समझ ही नहीं पा रहे कि दो मुल्क आख़िर किस तरह बनने हैं। पाकिस्तान किस ओर खुलना है और लोग यहाँ से हिन्दुस्तान क्यों जा रहे हैं, हम हिन्दुस्तान में ही तो हैं।
ऐसी ही कहानी फौजी और लखबीरा नामक ट्रक वालों की है जो पैसे की खातिर कुछ लोगों को बॉर्डर पार करवाने वाले हैं। एक कहानी कर्मवीर और फज़लु नामक स्कूल मास्टर्स की भी है जो कभी अलग नहीं होना चाहते और एक कहानी तिवारी और उसकी बहु की भी है जो अपने पोते को रख अपनी बहु से पीछा छुड़ाना चाहता है।
इसमें छोटी सी कहानी उन दो बहनों सोनी और मोनी की भी है जिसे पठानों ने कई दिनों तक एक उजड़े घर में बंद करके उनका रेप किया था और उनमें से एक के पेट में उसी पठान का अंश पलने लगा था। जिस पेट को देख वो पीटने लगती थी और पागलों की तरह कहती थी कि ‘मेरे अंदर मेरा दुश्मन पल रहा है, क्या करूँ? ये मरे या मैं मरुँ”
इस हौलनाक कहानियों में गुलज़ार ने पहली बार किसी को सुकून से बैठने नहीं दिया है। यहाँ वहाँ रिफ्युज़ीयों की तरह भटकती कई कहानियाँ अंत में बिखर जाती हैं और किताब का अंत कुछ यूँ होता है जैसे किसी बच्चे की आख़िरी पतंग सिरे से कट गयी हो। एक लंबा खालीपन छोड़ जाता है।
फिर भी मेरा मानना है कि यह किताब पढ़नी चाहिए। एक नहीं दस बार पढ़नी चाहिए। इसपर फिल्म बननी चाहिए जिसे देश विदेश में दिखाया जाना चाहिए ताकि सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया भर के लोगों के ये सबक मिल सके कि आपस में बैर पालने का, कुर्सी के लिए राजनीति करने का और देश बाँटने का फैसला कितनों के परिवार उजाड़ देता है।
साथ ही इस देश के उन नौजवानों के लिए भी यह किताब बहुत ज़रूरी है जो कहते हैं कि वह आज़ाद नहीं है, कि उनकी मर्ज़ी नहीं चलती या इससे तो अंग्रेज़ ही अच्छे थे।
शायद गुलज़ार भी चाहते थे कि इस किताब की पहुँच पूरी दुनिया तक हो इसलिए उन्होंने इस किताब को हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओँ में लिखा है।
हाथों ने दामन छोड़ा नहीं, आँखों की सगाई टूटी नहीं
हम छोड़ तो आए अपना वतन, सरहद की कलाई छूटी नहीं! – गुलज़ार