मेरे जीवन में कुछ सबसे यादगार पल ‘स्क्रीन’ में काम करने के दौरान रहे हैं, ‘स्क्रीन’ जो इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप की फिल्म मैगजीन है, जिसमें मैंने अपने जीवन के 48 साल दिए हैं। इस दौरान मेरे कुछ बहुत ही रेयर मोमेंट्स भी रहे हैं, जैसे की मेरी पहली और एकमात्र मुलाकात श्रीमती नरगिस दत्त के साथ थी! अली पीटर जॉन
मैंने उन्हें सार्वजनिक समारोहों और उनके दोस्तों और एक समय के सहयोगियों द्वारा बनाई गई फिल्मों की लॉन्चिंग में देखा था! मैंने उन्हें टाटा मेमोरियल अस्पताल में देखा था जहाँ वह नियमित रूप से आती थी और मैंने उन्हें ‘स्पैसिट सोसाइटी ऑफ इंडिया’ की गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए भी देखा था जिसका केंद्र कोलाबा और बाद में बांद्रा में था। मेरे सीनियर कालीग मिस्टर आर.एम.कुम्ताकर सुनील दत्त और नरगिस दोनों के अच्छे मित्र थे और उन्होंने उनके सभी प्रमुख फंक्शन को कवर किया था और वह एकमात्र पत्रकार ऐसे थे जिन्हें उनकी शादी में आमंत्रित किया गया था, मैं श्रीमती दत्त से मिलने के अपने मौके का इंतजार करता रहा और इसके लिए मुझे लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़ा!
मुझे पाली हिल पर सुनील दत्त के बंगले से फोन आया और बताया गया कि श्रीमती दत्त मुझसे मिलना चाहती हैं। मुझे नहीं पता था कि मैं इस पर कैसे रियेक्ट करू। मीटिंग उनके बंगले पर शाम 6 बजे के लिए तय की गई थी और मैं एक न्यूकमर होकर क्या महसूस कर सकता था जब सफेद रंग के कपडे पहने वह जादुई महिला मेरे कैब से बाहर निकलने पर गेट पर मेरा इंतजार करती नजर आई थी। वह कई महिलाओं के साथ खड़ी थीं, जो देखने में उनकी पुरानी दोस्त या घरेलू मददगार नजर आ रही थी।
श्रीमती दत्त ने मुझे बंगले तक पहुंचाया और मुझे अपने साथ बैठाया क्योंकि उन्होंने महिलाओं को मेरे लिए कुछ स्नैक्स तैयार करने के लिए देखरेख भी करनी थी और उनके अनुसार स्नैक्स मेरे लिए एक दावत थी!
मैं सोच रहा था कि इस महान महिला ने मुझे क्यों बुलाया था और इससे पहले कि मैं उससे कुछ भी पूछ पाता, उसने मुझे बताया कि उसने मेरे कॉलम अली के नोट्स पढ़े थे और उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें मेरे लिखने का तरीका बहुत पसंद है जो मैंने लिखा था जो उस तरह के नशे की तरह था जिसे मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। और वह समय आया जब उन्होंने मुझसे उर्दू में बात करनी शुरू की और मुझे बताया कि वह चाहती थी कि मैं संजू बाबा का ख्याल रखूं जो कि अपने पिता द्वारा हीरो के रूप में लॉन्च किए जाने के लिए तैयार था। और वह कहती रही, “बाबा बहुत अच्छा लड़का है, थोडासा बेहका हुआ है, लेकिन अल्लाह करे वो जल्द ठीक हो जाएगा, मेरी आपसे गुजारिश है कि आप बाबा को थोड़ा संभालिए” मुझे तब बहुत हैरत हुई जब एक महिला जिसे मैनंे एक बहुत मजबूत महिला के रूप में देखा था वह अपने संजू बाबा के बारे में मुझसे बात करते हुए रोने लगी थी। मैंने उनसे कहा कि मैं कोई मान इंसान तो नहीं हूं लेकिन मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा। उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया और मुझे गेट तक छोड़ने आई और ड्राइवरों में से एक से कहा कि मुझे जहाँ मैं चाहू, वहाँ ड्राप कर दे!
संजय दत्त की फिल्म ‘रॉकी’ की लॉन्चिंग का दिन था और महबूब स्टूडियो का परिसर सभी मशहूर हस्तियों और सितारों के मेले कि तरह दिख रहा था। इसमें संजय की ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों की एक्सबिशन थी, जहाँ संजय का पहला शॉट लिया जाना था। मिस्टर और मिसेज दत्त हाथ जोड़कर प्रवेश द्वार पर खड़े थे और वे हर मेहमान का स्वागत करते हुए खुशी के आंसू बहाते रहे, और वह छोटे और बड़े हर मेहमान का स्वागत कर रहे थे।
यह घटना दुर्भाग्य से मेरे और श्रीमती दत्त के लिए अंतिम खुशी का क्षण थी। क्योंकि नरगिस दत्त को कैंसर हो गया था और और उनसे बहुत प्यार करने वाले उनके पति मिस्टर दत्त ने उन्हें कैंसर के इलाज के लिए दुनिया के सबसे अच्छे ‘स्लोन केटरिंग’ अस्पताल में भर्ती कराया और तब मिस्टर दत्त ने पूरी दुनिया को भुला दिया और नरगिस के साथ रहकर उनके दर्द के पल और कैंसर के खिलाफ उनकी लड़ाई में उनका साथ दिया।
जब श्री और श्रीमती दत्त अस्पताल में थे तब श्रीमती दत्त ने मुझसे और दत्त से कहा, “मुझे कैंसर का सबसे अच्छा इलाज मिल रहा है क्योंकि हमारे पास संसाधन (रीसॉर्सिज) हैं, लेकिन उन लाखों और करोड़ों लोगों का क्या होगा जो कैंसर से पीड़ित हैं और मर रहे हैं। हम उनके लिए कुछ सार्थक और उपयोगी क्यों नहीं कर सकते? यही वह क्षण था जब श्री दत्त ने श्रीमती दत्त को एक वचन दिया था कि वह उनके सपने को पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे और कैंसर के खिलाफ श्री दत्त के अनकहे धर्मयुद्ध की शुरुआत हुई, जिसने भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अन्य पड़ोसी देशों में लाखों लोगों के जीवन को बदल दिया है!
संजू की फिल्म ‘रॉकी’ का मुंबई के ‘गंगा सिनेमा’ में प्रीमियर था, जिसमें श्रीमती दत्त शामिल नहीं हो सकीं, लेकिन मिस्टर दत्त ने श्रीमती दत्त की उपस्थिति के प्रतीक में फ्रंट रो की एक सीट को खाली रखा।
श्रीमती दत्त की हालत खराब हो गई और उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों को अपने परिवार के साथ बिताने का फैसला किया।
अब मेरे लिए यह परीक्षा का समय था। इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप चाहता था कि मैं पहले ही से श्रीमती दत्त के लिए एक ओबिचूएरी (शोक सन्देश) लिखूं। मुझ पर दबाव बनाने के लिए मैनेजमेंट और लीडिंग एडिटर्स दोनों कि और से दबाव दिया जा रहा था और मुझसे यह भी कहा गया था की बस मृत्यु की तारीख को खाली रखें!
मुझे अपने तरीके से अपना काम करने की वजह से एक ‘दिमागी खराब’ के रूप में जाना जाता था। मैंने ओबिचूएरी लिखने से मना कर दिया। आदेशों की अवहेलना करने के लिए उन सभी ने मेरे खिलाफ एक्शन लेने की धमकी दी, लेकिन मैं ठान चुका था कि मैं श्रीमती दत्त के मरने से पहले ओबिचूएरी नहीं लिखने वाला था। मैंने श्रीमती दत्त के मरने के दो घंटे बाद उन्हें ओबिचूएरी देने की चुनौती को एक्सेप्ट किया और मेरे सभी मालिकों ने मुझे उस तरह का लुक दिया जैसे उन्होंने मुझे पहले कभी नहीं दिया था।
श्रीमती दत्त आखिरकार अपनी इस जिंदगी और मौत की लड़ाई से हार गई और 3 मई 1981 को अपने बंगले में ही उनकी मृत्यु हो गई और उनके निधन के बाद मैं बंगले पर पहुंचने वाले पहले कुछ लोगों में से था। पूरे बंगले में शोक का माहोल था, लेकिन श्री दत्त श्रीमती दत्त के लिए एक असामान्य अंतिम संस्कार की योजना बनाने में व्यस्त थे, जो 40 से अधिक वर्षों से हर परिस्थिति में उनके साथ खड़े रहे थे। यह देखना लगभग बहुत बुरा था कि कुछ सर्वश्रेष्ठ लोग और विशेषकर मीडिया यह देखने का इंतजार कर रही थी कि क्या राज कपूर उस महिला को अपना अंतिम सम्मान देने के लिए आएंगे जिससे वह प्यार करते थे और जिसे उन्होंने स्वीकार किया था। शोमैन अंतिम संस्कार के लिए शवयात्रा शुरू होने से ठीक पहले पहुंचे और पूरी भीड़ उन्हें देखने के लिए खड़ी रही। और उन्होंने उस अभिनेत्री के निधन पर कैसे प्रतिक्रिया दी होगी जिसने उनके साथ 18 फिल्में करने का रिकॉर्ड बनाया था।
मिस्टर दत्त ने श्रीमती दत्त को कभी भी धर्म परिवर्तन करने के लिए नहीं कहा था और उन्हें अपने फेथ (इस्लाम) का पालन करने की अनुमति दी थी और केवल श्री दत्त जैसे ही सच्चे धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति ही श्रीमती दत्त के लिए एक सम्मान जनक अंतिम संस्कार की व्यवस्था कर सकते थे। उनके शरीर को पहले एक लाल साड़ी में हिंदू दुल्हन के रूप में तैयार किया गया था और उसके बालों में फूल लगाए गए थे और हिंदू पत्नी के शरीर की तरह एक अर्थी पर उन्हें रखा गया था। और बंगले के गेट से, उनके शरीर को कफन से ढ़क दिया गया और अंत में कब्रिस्तान ले जाया गया, जहां उसकी मां जद्दनबाई को दफनाया गया था।
बंगले का सबसे दर्दनाक दृश्य संजय दत्त का अपनी मां की मृत्यु से पूरी तरह अंजान और लगभग बेखबर रहना था और यहां तक कि वह सी रॉक होटल के डिस्को में जाने के लिए तैयार हो रहे थे। लड़कों के ग्रुप ने मेरा मज़ाक तब उड़ाया जब मैंने उन्हें बताया कि मैं अंतिम संस्कार में जा रहा हूं और वह मुझे डिस्को ले जाने के लिए मुझे अपनी कारों में बैठने लगे थे। सौभाग्य से मुझे मेरे दोस्त इंदर राज आनंद, एक जाने-माने लेखक और उनके बेटे टीनू और बिट्टू रस्ते में मिल गए जो मुझे अपने साथ कब्रिस्तान ले गए जहां मैंने उस अद्भुत महिला को अपना लास्ट गुडबाय किया।
शाम 4 बजे तक अंतिम संस्कार हो चुका था। मैंने ऑफिस जाकर अपनी कहानी लिखी और रात 9ः30 तक, यह नरगिस दत्त के बारे में मेरी कहानी थी जिसे एक्सप्रेस ग्रुप के सभी एडिशन में ले जाया गया था।
मैं श्रीमती दत्त के मरने से पहले उन्हें न मार पाने में सफल रहा था।