बॉलीवुड में लगातार कई संजीदा किरदार निभाते हुए राजकुमार राव ने अपनी एक अलग पहचान बना ली है.हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘‘बरेली की बर्फी’’में वह हल्के फुल्के किरदार में नजर आए, तो कईयों को वह नहीं जमे.पर राज कुमार राव का दावा है कि उन्हे दर्शकों का प्यार मिल रहा है.इन दिनों वह ‘न्यूटन’, ‘ओमार्टा’सहित कई दूसरी फिल्में कर रहे हैं.इनमें से ‘‘न्यूटन’’ 22 सितंबर को रिलीज होगी।
आपने एक फिल्म ‘‘ट्रैप्ड’’की थी. आपको लगता है कि इस तरह की फिल्में देखने के लिए दर्शक तैयार है?
बिलकुल..दर्शक तैयार है.सिनेमा बड़ी तेजी से बदल रहा है. ट्रैप्ड को हमने एक करोड़ में बनाया था.तीन करोड़ उसने बॉक्स ऑफिस पर कमाया.डिजिटल वगैरह से भी हमने करीबन डेढ़ दो करोड़ कमाए हैं. मुझे लगता है कि यह सही है.अब यह जरूरी नही है कि हर फिल्म सौ करोड़ कमाए.पर यदि ‘ट्रैप्ड’ सौ करोड़ कमाती, तो हमें ज्यादा खुशी होती। हमें पता है कि इस तरह की फिल्म का एक सीमित वर्ग है और इस सीमित वर्ग ने यह फिल्म देखी. मैं इस तरह की फिल्म इसलिए करता हूं,क्योंकि मुझे पता है कि दर्शक ऐसी फिल्म देखना चाहता है.दूसरी बात मेरी फिल्मों की सूची में इस तरह की फिल्म भी दर्ज होनी चाहिए.मैं उन फिल्मों से अपने आपको दूर रखने की कोशिश करता हूं, जिन्हें देखने के बाद दर्शक भूल जाए. देखिए,ऐसी फिल्में करने का मजा हैं जिन फिल्मों के बारे में लोग पचास साल बाद भी बात करें दूसरी तरफ ‘बरेली की बर्फी’ अच्छा कमा रही है,तो बैलेंस बना हुआ है।
‘‘बरेली की बर्फी’’ के प्रदर्शन के बाद किस तरह का रिस्पांस मिला?
बहुत अच्छा रिस्पांस मिला.फिल्म की शूटिंग के दौरान मुझे उम्मीद नही थीं,कि लोगों को यह फिल्म इतनी पसंद आएगी.पर लोगों का उम्मीद से ज्यादा स्नेह व प्यार मिला है मैं तो सभी लोगों का बड़ा शुक्रगुजार हूं।
आपको नहीं लगता कि अब तक जो किरदार निभाए हैं,उनसे इस फिल्म का किरदार कमजोर रहा?
कमजोर तो नहीं रहा.पर मैं समानता जिस तरह के किरदार निभाता आ रहा हूं.उनके मुकाबले यह संजीदा किरदार नही है.बहुत हल्का फुल्का किरदार है.फिल्म भी हल्की फुल्की हास्य फिल्म है.पर किरदार में भी नई बॉडी लैंग्वेज है.नई भाषा है.इसके अलावा इसके अपने दो व्यक्तित्व हैं.उस हिसाब से यह कमजोर किरदार नहीं है.कलाकार के तौर पर इस किरदार को निभाने के लिए मुझे काफी तैयारी करनी पड़ी।
फिल्म ‘‘न्यूटन’’ क्या है?
यह फिल्म ‘‘न्यूटन’’ चुनाव के साथ साथ वोट देने की बात करती है.यह एक हल्की फुल्की ब्लैक कॉमेडी वाली फिल्म है.यह एक दिन की कहानी है.छत्तीसगढ़ के जगलों में जहां सिर्फ 76 वोट हैं,वहां न्यूटन नामक यह युवक जाकर वोटिंग करवाता है.वहां पर नक्सल वादियों का भी आतंक है.लेकिन न्यूटन सिद्धांतों वाला इंसान है.वह चाहता है कि सभी लोग अपने मताधिकार का उपयोग करें.न्यूटन एक ऐसा युवक है,जो कि सिस्टम में रहकर चीजों को बदलना चाहता है.अब यह बदल पाएगा या खुद बदल जाएगा, यही सवाल है.वैसे भी कहा जाता है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
आपका किरदार क्या है?
मैंने न्यूटन का शीर्ष किरदार निभाया है.यह एक सरकारी मुलाजिम है.वह कलेक्टर यानी कि जिलाधिकारी के दफ्तर में क्लर्क है.इस नक्सल प्रभावी इलाके में कोई भी इंसान चुनाव करवाने के लिए चुनाव अधिकारी के रूप में नही आना चाहता.तब न्यूटन को यह जिम्मेदारी दी जाती है.न्यूटन को लगता है कि नौकरी,नौकरी होती है.काम कोई भी हो,हमें अपने हर काम को पूरी इमानदारी के साथ करना चाहिए.निजी जिंदगी में भी मेरी यही सोच है कि काम काम होता है.हर काम को सम्मानजनक तरीके से किया जाना चाहिए।
फिल्म में ईमानदारी की चर्चा है या कुछ और मुद्दा उठाया गया है?
सिस्टम को बदलने की बहुत बारीक रेखा है.इस फिल्म में इस बात पर जोर दिया गया है कि हम सिस्टम के अंदर रहकर भी सिस्टम को बदल सकते हैं। इसके साथ ही चुनाव है. इसी के साथ दूसरी तमाम बातें इस फिल्म में हैं.जिन्हें हम सभी लोगों ने बहुत सटल तरीके से ह्यूमर के जरिए कहने की कोशिश की है.यह फिल्म लोगों को हंसाने के साथ साथ सोचने पर मजबूर करेगी।
‘‘न्यूटन’’ के लिए भी आपको किसी खास तरह की तैयारी करने की जरूरत पड़ी?
जी हां!! अब तक हम वोट देने जाते हैं.पर जो चुनाव अधिकारी होता है और चुनाव प्रकिया क्या है? इन सबकी बहुत ज्यादा जानकारी नही होती.तो हमें सबसे पहले चुनाव प्रकिया इन सबकी बहुत बारीक जानकारी हासिल करनी पड़ी.इसके अलावा मैंने अपने लुक पर काम किया। बाल थोड़ा कर्ली रखे हैं.एक दिन की कहानी है.तो लुक को बनाए रखना जरूरी था, तो हमें हर दिन सुबह तैयार होने में दो घंटे लग जाते हैं। निर्देशक के साथ साथ पटकथा से हमें बहुत मदद मिली. पटकथा में बहुत बारीक बारीक जानकारी दी गयी थी.लेखक व निर्देशक दोनों छत्तीसगढ़ के एक नक्सलवादी इलाके में काफी दिन रहकर और सारी जानकारी इकट्ठा करके आए थे।
निर्देशक अमित मसूरकर की यह पहली फिल्म है,आपने उन पर कैसे यकीन किया कि वह अच्छी फिल्म बनाएंगे?
अमित मसूरकर ने इससे पहले एक छोटी सी फिल्म ‘‘सुलेमानी कीड़ा’’ बनायी थी,जिसे काफी सराहना मिली थी। मामी फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म ने चर्चा बटोरी थी.पर मैं यह फिल्म देख नही पाया लेकिन मैं अमित को अपने करियर की पहली फिल्म ‘लव सेक्स धोखा’ से जानता हूं. वह सुलझे हुए मेहनती, इमानदार और अपने काम को पूरी तवज्जो देने वाले निर्देशक हैं उनका दिमाग बड़ा तेज है.उनके अंदर इस तरह की कुछ खूबियां हैं,जो हमें उनकी तरफ आकर्षित करती हैं.इसके अलावा मुझे कहानी व किरदार इतना पसंद आया कि ना कहने का तो सवाल ही नहीं था।
आपने कहा यह शोध पर आधारित फिल्म हैं.आपके अनुसार लोकतंत्र और वोट का अधिकार कितने महत्वपूर्ण ढंग से फिल्म में उभरा है?
देखिए, देश की आजादी को 70 वर्ष हो गए पर अभी भी देश का एक तिहाई इंसान वोट देने नहीं जाता. शायद हमें अभी तक अपने वोट का महत्व समझ नहीं आया। जबकि लोकतांत्रिक प्रकिया में इंसान का सबसे मजबूत हथियार वोट है.वोट देकर हम तय कर सकते हैं कि हमें किस तरह का देश चाहिए? हमें यकीन है कि हमारी फिल्म ‘‘न्यूटन’’ देखकर लोगों को अहसास होगा कि चुनाव और वोट कितना महत्वपूर्ण है.
आप हंसल मेहता के साथ फिल्म ‘‘ओमार्टा’’कर रहे हैं.इसकी क्या प्रगति है?
यह फिल्म अभी 11 सितंबर को टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखायी जाएगी.10 व 11 सितंबर को मैं टोरंटो में रहूंगा.उसके बाद एक सही तारीख को सिनेमा घरों में इसे पहुंचाने की जद्दोजेहाद शुरू होगी।
फिल्म ओमार्टा है क्या?
यह कहानी है उमर शेख की.उमर शेख बहुत तेज दिमाग के विद्यार्थी थे.पर किस तरह से उनका किसी ने दिमाग बदला और उन्होंने आतंकवाद का रास्ता अपना लिया. वह कंधार हाईजैक का हिस्सा बने. फिर बीबीसी के पत्रकार डेनियल पर्ल, जो पाकिस्तान में थे, उनकी हत्या में उनका हाथ होने की बात आयी. उनको सजा भी हुई.तो उनकी इस कहानी को इस फिल्म में दिखाया गया हैं।
यानी कि एक आतंकवादी को महिमा मंडित करने का मसला है?
जी नहीं! हम एक सच्चाई दिखा रहे हैं.यह एक डार्क किरदार है.इसके लिए मैंने काफी रिसर्च किया. आज की तारीख में आतंकवाद बहुत बड़ी समस्या है.पूरा विश्व आतंकवाद की चपेट में हैं.हम सभी इससे प्रभावित हैं.हम कहीं नए साल की पार्टी में जाते हैं, तो वहां भी हमें डर लगा रहता है.हमने कहानी इस ढंग से कही है कि युवा पीढ़ी देखे और सबक ले.उन्हें समझ आए कि यह गलत है.हाल ही में बंगलादेश में जो आतंकवादी हमला हुआ,वह कितना गलत था. बांगलादेश में तो बहुत कम उम्र के बच्चों ने इस काम को अंजाम दिया.इस फिल्म के माध्यम से हम इस समस्या को एक नए नजरिए से देख सकते हैं कि वास्तव में दुनिया में क्या हो रहा है।
इसके अलावा क्या कर रहे हैं?
वेब सीरीज‘बोस’में सुभाषचंद्र बोस का किरदार निभा रहा हूं.
आप पत्रलेखा को सपोर्ट नहीं करना चाहते?
मैं उनकी सिफारिश करने की बनिस्बत चाहता हूं कि वह अपनी प्रतिभा के बल पर काम करें.और वह कुछ अच्छे काम कर भी रही हैं.‘बोस’में काम कर रही हैं.हर कलाकार की अपनी एक यात्रा होती है।
शादी कब कर रहे हैं?
अभी समय है.फिलहाल हम दोनों अपने अपने करियर पर पूरा ध्यान दे रहे हैं.