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Ravi Shankar Sharma Death Anniversary: पद्मश्री रवि शंकर शर्मा बोले मैं पोयट्री को ज्यादा इम्पोर्टेंस देता हूं...

Ravi Shankar Sharma Death Anniversary: बचपन से ही संगीत में अति रुचि थी हालांकि मैं संगीत के विषय में उस उम्र में कुद भी नहीं जानता था। इंटरमीडियट करने के बाद मैं पोस्ट एंड टेलिग्राफ डिपार्टमेंट में मुलाजिम हो गया..

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Ravi Shankar Sharma Death Anniversary पद्मश्री रवि शंकर शर्मा बोले मैं पोयट्री को ज्यादा इम्पोर्टेंस देता हूं...

Ravi Shankar Sharma Death Anniversary

Ravi Shankar Sharma Death Anniversary: बचपन से ही संगीत में अति रुचि थी हालांकि मैं संगीत के विषय में उस उम्र में कुद भी नहीं जानता था। इंटरमीडियट करने के बाद मैं पोस्ट एंड टेलिग्राफ डिपार्टमेंट में मुलाजिम हो गया जहां मैंने 5 वर्ष तक सर्विस की। मेरी तमन्ना थी कि मैं फिल्मों में पार्श्व-गायक बनूं। मेरा आदर्श मोहम्मद रफी और पार्श्व गायक बनने के लिए मेंने काफी संघर्ष भी किए। सन् 1942 से 1949 का काल मेरे गहन संघर्श का काला था 49 में ऑफिस से छुट्टी लेकर मैं मुंबई आ गया। कारण भारत-विभाजन के बाद पोसअ एंड टेलिग्राफ डिपार्टमेंट वाले अपने स्टाफ को दिल्ली से बाहर ट्रांसफर करना चाहते थे। मेरी भी तीन शर्तें थी (1) दिल्ली में ही मुझे रखा जाय  (2) या फिर मुंबई में ट्रांसफर किया जाये (3) या फिर हिन्दुस्तान के किसी बड़े और समृद्ध शहर में भेजा जाये। बात नहीं मानी गई तो माता-पिता से आज्ञा लेकर मैं मुंबई आ गया।

अनजाने शहर मुंबई में बहुत पापड़ बेलने पड़े। भटकता था सुबह से शाम न खाने की सुध, न रहने की। महीनें भर तक सी.पी. टेंक की हीरा बाग धर्मशा में निकला उसके बाद मजबूरन वहां से छोड़ना पड़ा और एक दूस के रिश्तेदार के कमरे के बरांडे में डेरा डाला। नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा और यहां चांस भी नहीं मिला। 6 महीने निकल गये। सीी आश्वासन देते थे। कोरस में गाने की सिफारिश करते थे लेकिन सोलो गाना चाहता था। घर से पैसे मंगाता था और उनसे जैसे तैसे गुजारा करता था।

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एक बार कालबा देवी में भोजन करता था, गरूडिया बेंक की पेढ़ी पर सुबह एक कप चाय पीता था। जब बहुत परेशान हुआ तो मैंने पंखे व मोटर रिपेयरिंग का काम शुरू कर दिया। दिन भर निर्माताओं के यहां चक्कर लगाता, रात को पंखे आदि ठीक करता। शाम तक भोगी हुई निराशा रात में काम से जुट कर दूर करता। अब घर से भी पैसे मंगाने बंद कर दिए थें हालत यह कि पहनने को तन पर कपड़े नहीं। तार-तार कपड़े टूटी हुई चपलें और हताश मन लिए यात्रा करता रहा। आखिर फिल्मिस्तान में तबला वादन का काम शुरू किया। गाने का अरमान दफन हो चुका था। तबला वादक बनना मैंने इसिलए मंजूर किया कि फिल्मिस्तान के संगीतकार ने मुझे अपना आसिस्टेंट बनाने का लालच दिया था।

उस संगीतकार ने ता अपना आसिस्टेंट नहीं बनाया लेकिन मेरे काम से, लगन और मेहनत से प्रभावित होकर हेमन्त कुमार साहब ने अपना आसिस्टेंट जरूर बना लिया। उनके आसिस्टेंट के रूप में मैं उनके साथ ‘शर्त’, ‘सम्राट’, ‘नागिन’, ‘जाग्रति’, ‘दुर्गेशनन्दिनी’  जैसी अनेकों फिल्मों में था। इतफाक देखिए कि जिन दिनों ‘नागिन’ बन रही थी, मेरी मुलाकात स्व. देवेन्द्र गोयल से हा गयी। मैंने उन्हें अपने गीत सुनाए और उन्होंने मुझे बतौर संगीतकार ‘वचन’ के लिए अनुबंधित कर लिया। ‘नागिन’ जिसमें मैं हेमंत दा का आसिस्टेंट था और ‘वचन’ जिसमें मैं स्वतंत्र संगीतकार था। दोनों फिल्मों ने साथ-साथ जुबलियां की। हेमंत दा की खुशी का तो ठिकाना नहीं था। काम से तो वे खुश थे ही जुबिली से वे और अधिक खुश हुए।

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इसके बाद 3-4 और फिल्में बाहर की मिली तब एक दिन हेमंत साहब ने कहा - ‘रवि तुम्हारा भविष्य बहुत उज्जवल है और तुम बहुत बड़े संगीतकार बनने वाले हों अब तुम मेरे सहयोगी बन कर काम करना बंद कर दो और स्वतंत्र रहकर अपना विकास करो। दादा की भविष्यवाणी सत्य साबित हुई। मेरी एक के बाद एक सभी फिल्में हिट साबित हुई और ‘चौदहवीं का चाँद’ जो कि एक बहुत बड़ी हिट म्यूजिकल फिल्म थी के बाद तो मेरा बहुत ऊंचा नाम हो गया और मैं टॉप के संगीत-निर्देशकों में गिना जाने लगा। अब तक मैं तकरीबन 150 फिल्मों के लिए अनुबंधित हुआ हूं जिनमें से 125 फिल्में बनी ओर प्रदर्शित हुई और तकरीबन सभी  फिल्मों को एक सा ही रिस्पाँस मिला।

इस वर्ष मेरे फ्रेंडस, वेल-विसर्स, फैंस आदि मिलकर मेरे फिल्म करियर की सिल्वर जुबली मनाने की तैयारियां कर रहे हैं। इन विगत पच्चीस वर्षों में मैंने संगीत भी दिया, गीत भी लिखे और कुछ गीत गाये भी। उत्तम संगीत के लिए मुझे दो बार फिल्म फेयर-पुरस्कार मिल चुके हैं- ‘घराना’ व ‘खानदान’ के अलावा इसके बहुत सारे अवॉर्ड, ट्राफिज आदि विभिन्न एसोसिएशंस, संस्थाओं, संसदों से मुंबई, हैदराबाद, उत्तर प्रदेश, कोलकाता आदि में मिल चुके हैं। सबसे बड़ा अवॉर्ड 1971 में मिला भारत सरकार की ओर से पद्म श्री की उपाधि के रूप में।

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मैंने हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती की अनेक भाषाओं की फिल्मों में संगीत दिया है। हाल ही में गुजरात सरकार ने सन् 1979 के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के रूप में सम्मानित करके पुरस्कृत किया है, गुजराती फिल्म ‘वेर ना वसुलात’ के संगीत के लिए। मेरी आने वाली फिल्में हैं- ‘सांझ की बेला’, ‘प्रेमिका’, ‘चिंगारी’, ‘जोगी’, ‘रितु आए रितु जाए’ , ‘सज्जन ठग’, ‘भांगड़ा’ एवं कुछ अन्य टाइटल्ड फिल्में जिनका नामकरण बाकी है।

संगीत तैयार करते समय मैं इस बात का पूरा-पूरा ख्याल रखता हूं- (1) ट्वीन (धुन) सरल से सरल, सहज और कर्णप्रिय हो (2) कविता भी सरल, सहज मन को छूने वाली हो। कभी-कभी इसके लिए स्वयं भी कभी संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि कई-कई बार सिचुएशन के हिसाब से पोयट्री का अधिक महत्व होता है तो कई बार धुन अधिक महत्वपूर्ण होती है (3) अगर धुन उत्तम हो, गीत हृदय स्पर्शी हो और उसे गाने वाले उत्तम मिल जाएं और साथ ही साथ (4) पिक्चराइजेशन भी उत्तम हो तो गीत में चार चाँद लग जाते हैं। ऐसे ही गीत लोकप्रिय भी होते हैं। मैंने जिन दिनों अपना करियर शुरू किया था तब भारतीय फिल्मों के संगीत में वेस्टर्न संगीत का प्रभाव नहीं के बराबर था। बहुत ही रेयर गाने अंग्रेजी टाइप के सुनने को मिलते थे। लेकिन आज बिल्कुल विपरीत हो गया है आज बहुत रेयर गीत भारतीय धुनों पर आधारित सुनने को मिलते हैं। कहना चाहिए कि टोटल गीत ही अंग्रेजी धुनों की नकल किए हुए फिल्मों में आ रहे हैं।

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जहां तक मेरा सवाल है। मैं भारतीय धुनों का चाहत पुजारी हूं हालांकि मजबूरीवश या सीन की चाह के मुताबिक डिस्को थे या कैबरे की सिचुएशन के मुताबिक मुझे भी पश्चिमी स्टाइल का सहारा लेना पड़ता है लेकिन मैं उसे भी अपनी तरह से देता हूं जबकि बहुत से हमारे साथी वहां की धुनों से इंस्पिरेशन लेने के बजाय वही धुनें ज्यों की त्यों रख देते हैं। मैं पोयट्री को ज्यादा इंर्पोटेंस देता हूं और पोयट्री पर ही धुनें बनाने में अधिक विश्वास रखता हूं अतः बहुत कम धुने मैंने पहले तैयार की हैं यही वजह है कि मेरे संगीत में कविता उभर कर आती है।

मैं अपने हिसाब से तो नहीं कह सकता, हां पब्लिक ने मेरे संगीत को जिन फिल्मों में अधिक सराहा वे थी - ‘दो बदन’, ‘भरोसा’, ‘काजल’, ‘गुमराह’, ‘धुर्मयुग’, ‘धुल का फूल’, ‘वक्त’, ‘खानदान’, ‘दस लाख’, ‘एक फूल दो माली’, ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ , मेहरबान’, ‘दो कलियां’, ‘ घूंघट’ आदि है। लता जी अपने गाये हुए चंद श्रेष्ठ गीतों में से ‘लागे ना मोरा जिया, सजना नहीं आये हाये’ व ‘मोरी छम-छम बाजे पायलिया’ को भी मानती हैं। मेरे तीन शौक हैं (1) इलेक्ट्रोनिकस जब भी समय मिलता है टेप रिकार्डर, इंस्ट्रूमेंटस, हारमोनियम आदि की मरम्मत व उन्हें खोलने बंद करने में लग जाता हूं (2) फोटोग्राफी भारत से जब भी बाहर जाता हूं फोटुओं का ढेर-ढेर लेकर लौटता हूं (3) सर्वाधिक रुचि लेखन से है।  

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