रेटिंग*
हर भाषा का अपना एक स्वरूप होता है लिहाजा कुछ चीजें वहीं अच्छी लगती हैं जिस भाषा की परिधि में आती हों। गुजराती फिल्मों का अपना एक स्वरूप है, उन्हें बनाने का ढंग है, लेकिन अगर आप उसे हिन्दी में बनाने की कोशिश करेगें तो फेल ही साबित होगें। लेखक निर्देशक मनोज नथवानी की फिल्म ‘बेटियों की बल्ले बलले’ इसी तरह की फिल्म है। जिसका सब कुछ गुजराती हें लेकिन उसे बनाया हैं हिन्दी में।
कहानी
कहानी एक ऐसे फोजी जीत उपेन्द्र की हें जो फोज में रहते तो जाबांजी दिखाता ही है लेकिन रिटायर होने के बाद भी वो खास कर बेटियों को लड़ने की ट्रेनिंग देता रहता हैं जिससे वे बलात्कारियों से मुकाबला कर सके। बावजूद इसके उसकी पत्नि और बेटी ऐसे ही लोगों से घबरा कर आत्महत्या कर लेती है। बाद में जीत उन्हें जान से मार देता हैं। उसके अच्छे व्यवहार और सही काज को देखते हुये जेल से आजाद कर दिया जाता है। इसके बाद वो एक ऐसी लड़की के लिये लड़ने के लिये खड़ा हो जाता है जिसका एक अमीरजादे ने रेप कर दिया। अब वो लड़की उसे सजा दिलाना चाहती है। क्या अंत में वो अपने मकसद में कामयाब हो पाती है।
डायरेक्शन
बेशक कहानी अच्छी है मगर वो एक बेहद कमजोर निर्देशन के हत्थे चढ़ किल कर दी गई। लिहाजा फिल्म में निर्देशन और अभिनय के तहत कतई नये या सीखदड़ लोगों को देखते हुये झेलना पड़ता है। यहां तक फिल्म में गुजराती फिल्मों के कई नामी कलाकार हैं लेकिन वे भी कुछ खास नहीं कर पाते।
अभिनय
जैसा कि बताया गया है कि फिल्म में गुजराती फिल्मों का स्टार जीत उपेन्द्र है लेकिन कमजोर निर्देशक के चलते वो कुछ नहीं कर पाता। उसके अलावा श्रुति,फिरोज इरानी, शरद व्यास, हेंमत झा धवन हेवाडा, राजू टैंक, मनीश शाह तथा स्पेशल रोल में योगेश लखानी भी साधारण रहे।
क्यों देखें
पहले तो ऐसी फिल्में रिलीज ही नहीं होनी चाहिये और अगर हो जाये तो उसे बनाने वालों और देखने वालों पर एक बुरी फिल्म को बढावा देने पर जुर्माना लगना चाहिये।