कुछ लोग जन्मजात प्रतिभा संपन्न होते हैं। फरहान अख्तर ने अपना करियर बतौर राईटर डायरेक्टर शुरू किया था लेकिन बाद में उनके कई और टेलेंट निकल कर सामने आये जैसे वे गज़ब के एक्टर और सिंगर भी हैं यानि इन सारी विधाओं में वे पूरी तरह पारंगत हैं। फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ में तो उन्होंने अभिनय की सारी हदें पार कर दी। अब वे फिल्म ‘वजीर’ में एक्शन हीरो के रूप में नजर आए। इस फिल्म के अलावा उनसे उनकी टीवी शो को लेकर एक बातचीत।
टीवी पर रियेलिटी शो ‘आई डू दैट’ को लेकर कैसा अनुभव रहा ?
बहुत अच्छा रहा। नया फार्मेट था। एक ऐसा शो जो आपको इंस्पायर करता है कि जो चीजें आप देखते हुये सोचते हैं कि वे आपके बूते से बाहर हैं उन्हीं को महज सात दिन में सीखकर कर के दिखाया जाये। इससे ज्यादा प्रेरणादायक बात और क्या हो सकती है। उनमें जितने प्रतियोगी थे उनमें से काफी को मैं जानता था, कुछ को शो के दौरान जानने का मौका मिला।
अगर ‘वजीर’ की बात की जाये तो इसके बारे में आप क्या बताना चाहेंगे ?
ये एक मेटेफर है। इसमें मैं दानिश अली नामक ऐसा किरदार निभा रहा हूं जो एटीएस ऑफिसर है वो अमिताभ बच्चन साहब के साथ एक ऐसे आदमी की खोज में हैं जो अपने आपको वजीर कहता है। अगर कहा जाये तो इससे भी आगे की बात ये है कि इस फिल्म की कहानी को एक दोस्ती की कहानी कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि दानिश अली दुख की सारी हदें पार चुका है। ऐसे में ये दोनों मिलते हैं जंहा उसे लगता है कि वो इस दोस्ती के सहारे फिर से अपनी वही जिन्दगी जी सकता है ।
अगर निर्देशक बिजॉय नांबियार की बात की जाये तो उनकी फिल्में ज्यादातर डार्क होती हैं और उनके किरदार ग्रेशेड्स होते हैं ?
ग्रे शेड कहां नहीं होते। आपकी जिन्दगी में ग्रेशेड होते हैं हर शख्स के भीतर ग्रेशेड होते हैं। अगर वे फिल्म में दिखाई देते हैं तो वे एक तरह सच्चाई से परिचित करवाते हैं।
अगर हम पुरानी और नई फिल्मों की तुलना करें तो…..?
बेशक आप दिलीप साहब की फिल्में उठाकर देख लें, अमिताभ बच्चन की फिल्में देख ले, राजेश खन्ना या नूतन की फिल्में उठाकर देख लीजिये। उन सभी में आपको डार्क किरदार दिखाई देते हैं। आज एक बार वही बात नई फिल्में दोहरा रही हैं। बस फर्क इतना ही है उस दौरान पात्र थोड़े ड्रामेटिक होते थे, आज उनमें नैचुरेलिटी ज्यादा है।
आपकी फिल्में देखी जाये तो उनमें आपने अपने किरदार पूरी तन्मयता के साथ निभाये हैं, इस फिल्म के किरदार के लिये आपने क्या कुछ किया ?
देखिये ‘रॉक ऑन’ या ‘जिन्दगी न मिलेगी दोबारा’ जैसी फिल्मों में रिसर्च की जरूरत नहीं थी क्योंकि वहां जैसे आप हैं वैसा ही दिखाई देना था लेकिन ‘भाग मिल्खा भाग’ या ‘वजीर’ जैसी फिल्मों में रिसर्च की जरूरत होती है क्योंकि किरदार के आस पास रहने वाले लोगों को लगना चाहिये कि हां ये बंदा हमारे बीच का ही है। उसके लिये किरदार से संबधित किताबें होती हैं। मेरी दोस्ती या जान पहचान के दायरे में ऐसे लोग हैं जो पुलिस ऑफिसर है तो उनके यहां समारोह में जाना पड़ता है कुछ और कारणों से उनसे मुलाकात होती रहती है ऐसे अवसरों पर उन्हें समझने में काफी हेल्प मिलती है और मिली भी है।
मिल्खा जैसे किरदार का लेकर जब आपको ऑफर आता है तो आपके मन में क्या होता है ?
मिल्खा सिंह एक कहावत के तौर पर देखें जाते रहे हैं कि भागना हैं तो मिल्खा सिंह की तरह भागना लेकिन उनके बारे में हम कितना जानते थे कुछ भी नहीं मैं खुद नहीं जानता था कि पार्टीशन के दौरान उनके साथ क्या हुआ था, उनकी फैमिली के साथ क्या हुआ था, वे आर्मी में गये वहां रहते हुये वे टॉप पॉजिशन में कैसे पहुंचे। ये हम सबको कहां पता था। मुझे जब राकेश मेहरा ने बताया तो पता लगा तो ये सब सुनकर मुझमें एक जुनून सा पैदा हुआ बाद में उसी जुनून के तहत मैं वो भूमिका निभाने में कामयाब हुआ ।