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हमारे देश में के राज्यों में आज भी ऐसी जगाहें हैं जहां इन्सान अपने और अपने परिवार के लिये दो जून की रोटी कमाने के लिये इस कदर शोषित हो रहा है कि उसे आत्महत्या का निर्णय लेना पड़ रहा है। कितने ही ऐसे राज्य हैं जंहा किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। क्यों? इस बारे में प्रोड्यूसर डायरेक्टर सुधांशू शर्मा की फिल्म ‘कालीचाट’ काफी कुछ बताती है ।
कहानी, निर्देशन, अभिनय
सीताराम यानि प्रकाश देशमुख अपनी पत्नि कला यानि गिरतिका श्याम और अपने दो बच्चों के साथ बुंदेलखंड के एक गांव में रहता है। उसकी जमीन सूखी है, इसलिये वो एक कूंआ खोदने का प्रयास कर रहा है लेकिन नीचे एक बड़ी चट्टान जिसे कालीचाट कहा जाता है निकल आती है। उस बड़ी चट्टान को ब्लास्ट करवाने के लिये वो जब बैंक से लोन लेने जाता है तो उससे पहले उससे पटवारी जैसे लोग कागज बनवाने के नाम पर पैसा झटक लेते हैं। इसके बाद बचाखुचा पैसा पंडित मौलवी ले जाते हैं। लेकिन कुछ नहीं होता। बाद में किसी की सलाह पर सीताराम गांव साहुकार से अपनी पांच बीघा जमीन गिरवी रख टयूवल लगवाने का फैसला करता है। साहुकार उसे तीस हजार पर बीघा एक साल के लिये पैसा देता है लेकिन एक एक करके चार जगह पानी नहीं निकलता तो वो पांचवी जगह पर भी दांव लगा लेता है लेकिन जब वो देखता है कि वहां भी कुछ नहीं है तो वो उसी अनखुदे कूएं में फांसी लगा लेता है लेकिन उसके बाद पांचवी जगह पानी निकल आता है लेकिन सीताराम की जान लेने के बाद।
कुछ अरसा पहले बुंदेलखंड में किसानों की गरीबी पर एक चैनल ने किश्त दर किश्त अभियान चलाकर बताने की कोशिश की थी कि वहां के लोग जानवरों से बद्तर जिन्दगी जीने पर मजबूर हैं। उसके बाद भी केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेगंती दिखाई दी। इस फिल्म के द्धारा निर्देशक ने एक किसान के जरिये वहां के किसानों की बदहाल हालत दिखाने के लिये एक ऐसी ईमानदार फिल्म बनाई है जो दर्शक, राज्य और सरकार की आंखें खेलने के लिये काफी है। फिल्म में बताया गया है कि आज भी गरीब किसानों से उनकी साहयता के लिये खुले सहकारी बैंक और पटवारी आदि इस तरह का बर्ताव करते है कि न चाहते हुये भी वो गांव के खून चूसने वाले साहूकार के पास जाने के लिये मजबूर हो जाते हैं। बाद में वही साहूकार उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर कर देता है ।
फिल्म की कास्टिंग इतनी शानदार है कि उन्होंने पूरी कहानी को विश्वसनीय बना दिया।
फिल्म कुछ फिल्म फेस्टिवल्स में पुरस्कृत भी हुई है।
फिल्म देखने के बाद शिद्दत से पता चलता है कि हमारे देश का एक हिस्सा आज भी किस तरह घोर गरीबी में जीते हुये दाने दाने का मौहताज है। और हमारा तंत्र उसकी बची खुची आस को कुचलते हुये उसे आत्महत्या करने के लिये मजबूर कर दे रहा है।