मायापुरी अंक 01.1974
और हमारा शत्रुघ्न सिन्हा, महिमा ही अपरम्पार है। इनके बारे में जितना भी लिखा जाए कम है। जनाब ‘चेतना’ फिल्म में आए थे, एक बहुत ही छोटा-सा रोल था मगर इस रोल ने इनके सारे दरिद्र दूर कर दिए। सूखे से चेहरे पर मांस चढ़ने लगा फिर इनकी फिल्म आई ‘खिलौना’ ‘खिलौना’ में बिहारी नाम के दुश्चरित्र की भूमिका का इन्होनें निर्वाह किया। फिल्म ने सफलता की बुलन्दियों को संजीव कुमार के कारण छू लिया मगर मार्केट इन महाशय की भी बनी। कल तक काम के लिए द्बार खटखटाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा का दरवाजा निर्माता निर्माता खटखटाने लगे। ‘बापे तुसी ग्रेट हो’ कहने वाले इनके चारों तरफ मंडराने लगे और क्या यह तो वह स्थिति होती है जब कोई कलाकार या तो अपने आप को संभाल लेता है या पतन की ओर अग्रसर होना प्रारम्भ होता है। हमारे शत्रुघ्न सिन्हा साहब भी जब चारों तरफ अपनी तारीफों के पुल बंधते हुए देखते तो बल्लियों उछलने लगते। इतना उछलते, इतना उछलते कि उन्हें यह तक नही पता चलता था कि उछलते हुए वे कहां तक पहुंच गए है।
रेशमी लुंगी पहने हुए, सुरापान करके जब वे अपनी विशेषताओं का निशान बखान करने लगते हैं तो उनके चेहरे पर पड़ा ‘कट’ निशान फैल कर और चौड़ा हो जाता है। ऐसा लगने लगता है जैसे दिलीप कुमार, धर्मेन्द्र राजेश खन्ना और प्राण इंडस्ट्री में उन्हीं महाशय की बदौलत है। फिल्मी दुनिया की सारी कलियों के लिए जैसे यही एक भौंरा है। इतना घमंड तो कभी राजकुमार ने भी नही किया, जितना आजकल आप करते है। शत्रुघ्न सिन्हा से किसी ने पूछा तो तमक कर बोले, वो क्या खाकर घमंड करेगा। उसके पास है ही क्या? आज शत्रु चलता है। उसके नाम की तूती बोलती है तो क्यों नही वक्त का फायदा उठाया जाए। वक्त का फायदा उठाए जाने के इसी चक्कर में जब शत्रुघ्न सिन्हा ने स्व. पृथ्वीराज कपूर की कला का अपमान किया तो शम्मी कपूर का खून खौल गया और उसने आव देखा न ताव, हमारे श्यामवर्ण खलनायक शत्रुघ्न की पिटाई कर दी। धर्मेन्द्र ने भी एक दो बार शत्रु को काफी लताड़ा है किन्तु इसे भी आखिर हम क्या कहें कि इतने अपमान के कड़वे घूंट पी लेने के बाद भी शत्रु का नशा नही टूटा। उन्होंने खलनायक की जगह हीरो बनने की घोषणा कर दी। इस प्रसंग में जब इस लेख के लेखक की शत्रुघ्न सिन्हा से वार्ता हुई तो शत्रु ने कहा, मैं कलाकार बनना चाहता हूं इसलिए मैंने हीरो के रोल भी स्वीकार करना शुरू कर दिया है। विडम्बना देखिए कि शत्रुघ्न सिन्हा की राय में जैसे खलनायक होना कलाकारिता का अपमान है, खलनायक मानो कलाकार ही नही होता। शत्रुघ्न के सभी शुभचिंतकों ने उन्हें सलाह दी कि वह हीरो के बनने के मोह में न पड़े क्योंकि जितनी ख्याति और सफलता उन्हें खलनायक बन कर अर्जित की है वह नायक बन कर प्राप्त नही कर पायेगा। सभी तर्को और परामर्शो को शत्रुघ्न सिंहा ने उठाकर ताक पर रख दिया और हीरो के रोल स्वीकार कर लिए। परिणाम वही हुआ जो होना था, शत्रु का जादू कम होने लगा। बिखर कर रह गये शत्रुघ्न सिन्हा।
जो पत्र-पत्रिकाएं शत्रुघ्न सिन्हा की तारीफों के पुल बांधते नही थकती थी वे ही उसकी आलोचना करने लगी। क्रोध से तिलमिलाने लगें शत्रुघ्न सिन्हा और पत्रकारों तथा पत्रिकाओं के खिलाफ उन्होंने विष उगलना प्रारम्भ कर दिया। पांच-छ: मास पूर्व दिल्ली के एक पत्रकार को भरी पार्टी में उन्होंने जान से मारने की भी धमकी दी और बात पुलिस कार्यवाही तक जा पहुंची थी। आज भी शत्रुघ्न की जितनी फिल्में आ रही है उनमें उनके अभिनय का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता ही जा रहा है।
शत्रुघ्न सिन्हा में अभिनय क्षमता है इस में दो राय नही हो सकती है मगर उनके व्यवहार ने उन्हें प्रगति पथ पर बढ़ने से रोक रखा है। बात फिर घूम फिर कर तुलसीदास जी की चौपाई पर आ जाती है कि शत्रुघ्न जो रिपुओं का नाश करता है आज स्वयं अपना शत्रु हो रहा है। उसके चेहरे का कट और अधिक फैल कर चौड़ा न हो, वह निरन्तर प्रगति पथ पर बढ़े यदि शत्रु चाहतें है तो उन्हें चाहिए कि जी जान से खलनायक के पात्र अभिनीत करे क्योंकि उनका जादू वही पात्र खत्म कर रहे है जो उन्होंने नायक के रूप में किए है। हमें आशा है कि ‘मायापुरी’ का शत्रु अपना नाम सार्थक सिद्ध करेगा।