यह लेख दिनांक 22-2-1976 मायापुरी के पुराने अंक 75 से लिया गया है।
जब मैं महेन्द्र कपूर के निवास स्थान पर पहुंचा, तो महेंद्र जी संगीतकार जगदीश जे. के साथ किसी गीत की रिहर्सल में व्यस्त थे.
रिहर्सल के बीच ही पता चला कि वे फिल्म “श्री सत्य नारायण की महापूजा” के शीर्षक गीत के लिए रिहर्सल कर रहे हैं, दूसरे दिन इस गीत की रिकाॅडिग थी।
नरेन्द्र उपाध्याय
रिहर्सल खत्म होने के बाद महेंद्र कपूर मेरे पास आ कर बैठ गए, मैंने सबसे पहला प्रश्न पूछा
“आपको गायन-कला की प्रेरणा कहां से और कैसे मिली सबसे पहली बार आपने कहां गाया ?
संवाल सुनकर महेन्द्र जी जैसे अपने अतीत के झरोंखों में झांकने लगे फिर मुस्कराकर बोले “गाने की प्रेरणा तो मुझे शायद प्रकृति ने दी है।
हां यह मेरी रूचि जरूर रही है, जब से मैंने होश संभाला मुझे गाने का बेहद शौक रहा, उस समय तक गाना मेरे लिए सिर्फ हॉबी” ही रहा, प्रोफेशनल सिंगर बनूंगा, यह कभी सोचा ही नहीं था!
“सबसे पहला गाना जो मैंने गाया था, वह मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा, मैं उस समय बम्बई के ‘सेंट जेवियर हाई स्कूल’ में पढ़ता था।
हम लड़कों को हर हफ्ते स्कूल के तरफ से शिक्षाप्रद फिल्में दिखाई जाती थी, एक बार हम ऐसे ही फिलम देख रहे थे कि अचानक प्रोजेक्टर खराब हो गया।
प्रिंसीपल ने कहा कि लड़के चाहें तो ‘डिबेट” या गाना–बजाना करके अपना समय पास कर लें, खैर सलाह–मशविरा हुआ और तय किया गया कि कुछ गाना–बजाना होना चाहिए।
मैंने उस मौंके पर उन दिनों का लोकप्रिय फिल्मी गीत सुनाया, फिल्म का नाम तो याद नहीं रहा, हां बोल कुछ यूं थे “ठंडी– ठंडी रेत में खजूर के तले” गाना खत्म होते ही साथी लड़कों ने तालियों से पूरा हाल गुंजा दिया।
“और फिर ‘सैंट जेवियर’ का यह होनहार विद्यार्थी कुछ ही सालों बाद हिंदुस्तान का एक लोकप्रिय गायक बन गया हजारों नहीं लाखों, करोड़ों तालियां उसके गीतों की प्रशंसा में बजने लगी।
लेकिन महेंद्र कपूर इन तालियों के बीच कभी यह नहीं भूले किं उनकी मंजिल क्या है, उनका अस्तित्व क्या है आज भी वे अपने अतीत को अपने से अलग नहीं कर सके हैं।
अतीत का एक–एक पृष्ठ उनके जीवन की पुस्तक में बहुत ही सुंदर ढंग के साथ जुड़ा हुआ है।
स्कूल में पढ़ने के दौरान ही मैंने कई बार गीत–प्रतियोगिता में भाग लिया और प्रतियोगिता में पुरस्कार भी पाए।
बाद में मैं ‘बम्बई विश्व विद्यालय’ में चला गया जहां मैंने गायन प्रतियोगिताओं” में तीन साल तक लगातार ट्राफियां जीती, उन्हीं दिनों में मैंने गोल्डी (आज के चर्चित निर्देशक विजय आनंद) के साथ कई ड्रामों में भाग लिया।
गायन के क्षेत्र में आपने व्यावसायिक गायन महेन्द्र कपूर ने मुझे बताया कि आकाशवाणी बम्बई में उन्होंने, रेडियो पर गाने के लिए प्रयास किया किंतु उन्होंने महेंद्र जी की आवाज को रद्द कर दिया, काफी समय तक वे स्टेज पर ही गाते रहे।
बाद में जब आल इंडिया मरफी सिंगिंग कंपींटीशन’ में महेंद्र ने भाग लिया तो एक बार चारों तरफ उनके नाम की ख्याति फैल गई।
इस कंम्पीटीशन के निर्णायक फिल्म संसार के पांच जाने–माने लोकप्रिय संगीतकार सी. रामचंद्र, मदन मोहन, नौशाद, वसंत देसाई, अनिल विश्वास थे।
मैंने इस आल इंडिया कम्पटीशन में भी गायक के तौर पर पुरस्कार प्राप्त किया, साथ ही लोकप्रियता भी।
“इस कम्पोटीशन के बाद भी कया आपको फिल्मों में गाने के लिए दरवाजे नहीं खुल सके?
नहीं, उन पांचों संगीतकारों ने वायदे तो जरूर किए लेकिन एक साल तक मैं उनके दरवाजों पर चक्कर लगाने के बावजूद भी, निराश ही रहा।
इसमें उनका दोष भी नहीं था क्योंकि उन दिनों संगीत–निर्देशकों की इतनी धाक नहीं थी कि, वे बिना निर्माता की स्वीकृति के अपनी मर्जी से किसी नए गायक या गायिका को ले सके उससे गवा सकें, चककर लगाने के बाद सी. रामचंद्र मुझे एक दिन व्ही. शांताराम के पास ले गए।
व्ही. शांताराम जी उन दिनों अपनी फिल्म ‘नवरंग’ के निर्माण में व्यस्त थे, उन्होने मेरे कुछ गीत सुने और मुझे अपनी फिल्म ‘नवरंग’ में मौका दिया।
सी. रामचंद्र जी ने इस फिल्म के लिए मुझसे और गायिका आशा भोंसले से एक गीत गवाया, ‘नवरंग’ का यह गीत बेहद लोकप्रिय हुआ।
जितनी लोकप्रियता इस गीत को उस समय मिली, उतनी ही लोकप्रियता आज भी है, इस गीत के बोल हैं ‘आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह न जाये तेरी–मेरी बात आधी’ इस गीत की लोकप्रियता के बाद तो मुझे दूसरी फिल्मों में भी मौके मिलने लगे।
‘धूल का फूल’ भी मेरी एक ऐसी ही फिल्म थी, मेरे लिए जिसके एक ही गाने ने मुझे वह लोकप्रियता दिलाई जो किसी नए गायक को एक सौ फिल्मों में गाने के बाद भी नहीं मिल पाती।
‘धूल का फूल’ फिल्म के इस गीत के बोल हैं ‘तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं’ इस फिल्म के संगीतकार एन. दत्ता थे।
क्या ‘नवरंग’ से पहले भी आपने किसी फिल्म में गाया क्योंकि कुछ लोग कहते हैं आपकी पहली फिल्म ‘सोहनी महिवाल’ थी?
हां, फिल्म तो ‘सोहनी महिवाल’ ही पहली थी जिसके लिए मैंने सबसे पहला गीत गाया, किन्तु यह फिल्म ‘नवरंग’ के बाद प्रदर्शित हुई थी।
इस फिल्म के लिए पहली बार गाते समय आएको क्या कठिनाइयां महसूस हुई?
सोहनी महिवाल’ के इस गीत के बोल थे ‘हुस्न चला है इश्क से मिलने” और यह गीत छः मिनट का था, आम तौर से एक गीत तीन मिनट का होता है।
इस फिल्म के संगीतकार नौशाद जी थे और उन्होंने इस गीत को गाने से पहले ही फिल्म का पूरा बैक ग्राउंड म्यूजिक तैयार कर लिया था।
चूंकि बैक ग्राउंड काफी ऊंचे स्वर में था इसीलिए नौशाद जी ने मुझे हिंदायत दी थी कि मुझे काफी ऊंची आवाज में गाना है, आखिर की लाइनों में तो आवाज को बहुत ही खीचंना था, नौशांद जी ने कहा गा सकते हो तो कोशिश करके देखो।
मैंने कोशिश की और जिंस दिन इस गीत की रिकाॅर्डिग थी नौशाद जी ने पूरे दिन के लिए रिकाॅर्डिग रूम बुक करवा लिया था।
किन्तु यह मेरी मेहनत या ईश्वर की कृपा थी कि वह गीत तीन घंटे में रिकाॅर्ड कर लिया गया, इसी प्रकार की मेहनत मुझे फिल्म ‘गुमराह’ के एक गीत ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनो’ के लिए करनी पड़ी।
इस गीत के पूरे 28 रीटेक हुए थे, और तभी जा कर वह गीत रिकाॅर्ड हो पाया, ‘गुमराह’ में संगीतकार रवि हमारे साथ थे. और इस फिल्म के गीतों को जितनी प्रशंसा और लोकप्रियता मिली वह मेरे पूरे गायन जीवंन का सबसे बड़ा पुरस्कार है, उपलब्धि है।”
महेन्द्र कपूर ने हिंदी फिल्मों के अलावा सिंधी, पंजाबी, मराठी, गुजराती और अन्य भाषाओं वाली फिल्मों के लगभग तीन हजार गीतों को अपना स्वर दिया है, ‘गुमराह’ ‘धूल का फूल’ ‘हमराज’,‘उपकार’ और ‘पूरब और परिचम’ महेन्द्र कपूर के लिए वे फिल्में हैं जिनके गीतों के साथ उनका नाम हमेशा के लिए अमर हो चुका है।
आजकल नयी प्रतिभाओं को संगीत के क्षेत्र में सही प्रवेश क्यों नहीं मिल पा रहा है, कुछ लोगों का आरोप है कि पुराने संगीतकारों, और गायकों ने मिलकर एक प्रकार की गुटबंदी स्थापित कर ली है, यह आपकी दृष्टि में कहां तक उचित है?
यह बिल्कुल गलत है. ऐसा कुछ भी नहीं है. सीधी सी बात यह है कि, मंजे हुए अनुभवी गायकों के साथ एक तो संगीतकारों को ज्यादा तकलीफ नहीं उठानी पड़ती।
दूसरे वे कुछ हजार रुपयों के लिए रिस्क उठाने को तैयार नहीं है और यह ‘रिस्क’ ही वह बंद दरवाजा है. जिसके खुलने की प्रतीक्षा नए सिंगर आज करते हैं न इन नई प्रतिभाओं के लिए पुराने गायकों का अन्याय है और न ही संगीतकारों का।
पश्चिम संगीत से भारतीय फिल्म-संगीत में जो यह शोर-शराबा गलत ढंग से भरता जा रहा है क्या आप इसे ठीक समझते हैं?
नहीं, मैं इसे ठीक नहीं समझता, हमारे संगीतकार पश्चिमी संगीत से प्रेरणा लें, यहां तक तो ठीक है लेकिन मैं चाहता हूं वे पूरी तरह पश्चिमी रंग में न खो जाएं, उन्हें चाहिए वे शोर–शराबे को अपनी भारतीय संगीत शैली में ढाल लें।
अगर ऐसा नहीं होता तो डर है कि कहीं वेस्टर्न म्यूजिक हमारे भारतीय संगीत पर हावी न हो जाए।
महेन्द्र कपूर ने दो बार युद्ध के समय सरहद पर जा कर फौजी जवानों का मनोरंजन किया है। एक बार वे बंगला देश की सरहदों पर भी सुनील दत्त के (अंजता आर्टस) दल के साथ जवानों के मनोरंजनाथ जा चुके हैं।
यूं तो कई फिल्मी गीतों की रजत जयंति ट्राफियों से महेन्द्र कपूर के शो–केस सुसज्जित हैं लेकिन सबसे बड़ा और गौरव शाली पुरस्कार महेंद्र कपूर के ‘ड्राइंग रूम’ का वह प्रमाण–पत्र है जो उन्हें भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरि ने ‘पदम श्री की उपाधि के लिए प्रदान किया है।
महेंद्र कपूर को दर्द भरे गीत बेहद पसंद हैं. नए संगीतकारों में बप्पी लहरी, रविद्र जैन और राजेश रोशन से उन्हें बड़ी आशाएं हैं।
महेन्द्र कपूर का कहना है कि अगर यह संगीतकार इसी प्रकार ईमानदारी से परिश्रम करते रहे तो शीघ्र ही चोटी के संगीतकारों में इनकी गणना की जायेगी।
महेन्द्र कपूर की कुछ और तस्वीरें :