बुरा ना मानो होली है के नारों से जब सुबह सुबह आँखें खुलती है तो बोझिल पलकों में शरारती रंगों की बारात सजने लगती है, जी करता है उस बचपन में लौट जाऊँ जहां होली की कितनी सारी यादें अठखेलियाँ कर रही होती है। कहती है Vidya Balan एक भरपूर मादक अंगड़ाई लेते हुए। ‘‘लेकिन बचपन में तो होली का वह रस नहीं मिलता है जो जवानी में पिया के साथ लपट झपट के होली खेलने में मिलता है ?
मेरे इस शरारती प्रश्न पर आँखें तरेरती है विद्या, ‘‘यू नॉटी, लेकिन बात तो आप सही कह रही हो, बचपन में मासूम शरारतें चलती है होली के खेल में, जवानी में उसी मासूमियत में थोड़ा सा नशा घुल जाता है। जी हाँ, लेकिन उस होली के नशे में मस्ती जो चढ़ती है तो उतरने का नाम ही नहीं लेती है।’’ कहकर विद्या खनखना कर नटखट अंदाज से जो हंसती है तो लगता है कि इस बार होली के अवसर पर विद्या के पतिदेव को कुछ ज्यादा सावधान रहना पड़ेगा क्योंकि पत्नी विद्या कभी भी और कहीं भी उन्हें होली के चपेट में घेरने को तैयार है।