साल 1971 का समय था। मुहम्मद रफ़ी, राजेंद्र किशन एक स्टूडियो में बैठे अपने प्रिय संगीतकार के साथ कुछ धुनें डिसकस कर रहे थे कि फोन बजा, फोन उस संगीतकार के बेटे संजीव कोहली का था। संगीतकार बोले “अभी एक धुन पर काम कर रहे हैं, बाद में बात करें?”
दूसरी ओर से अतिउत्साहित आवाज़ आई “नहीं पिताजी, आपको एक ख़बर देनी है, ख़बर इतनी अच्छी है कि इसकी ऐवज में आप मुझे हज़ार रुपए भी देंगे”
“बरखुरदार अगर ख़बर किसी काबिल नहीं हुई तो बहुत मार पड़ेगी!”
“मारना छोड़िए आप गले लगा लेंगे” उस बालक ने ऐसा कहा और घर के सामने ही, रोड क्रॉस करके अपने पिता के स्टूडियो पहुँच गया। दरवाज़ा खोलते ही उसने बताया “पापा, इस बार के सारे नेशनल अवार्ड्स दस्तक को मिले हैं, बेस्ट एक्टर संजीव कुमार और बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर.... मदन मोहन”
इतना सुन मदन मोहन जी ख़ुश होने की बजाए गुस्सा हो गए। उन्हें लगा लड़का मज़ाक कर रहा है। लेकिन ये मज़ाक न था, कुछ ही देर में उसी दरवाज़े पर जयदेव खड़े थे। उनके हाथ में शैम्पेन की बोतल थी और वो कहने लगे “मदन जी, मैंने भी आल इंडिया रेडियो पर अभी सुना कि आपको नेशनल अवार्ड मिल है, सोचा सेलिब्रेट किया जाए”
इतना सुन मदन मोहन जाने किस दुनिया में खो गए। यूँ तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा पर सन 50 में कैरियर शुरु करने के बाद आज 20 साल बाद उन्हें किसी पुरस्कार से नवाज़ा गया। बीस साल! जाने कैसे गुज़रे ये बीस साल! बल्कि बीस क्यों, बीते 40 साल की दास्तां खंगाली जाए।
उनकी ज़िन्दगी की शुरुआत 25 जून सन 1924 को बग़दाद में हुई थी। उनके पिता इराक़ी पुलिस में अकाउंटेंट थे। लेकिन सात साल बाद ही वह पंजाब वापस आ गए। फिर उनके पिता बम्बई में काम ढूंढने निकल पड़े और फिर धीरे-धीरे परिवार को भी साथ ले आए। यहाँ मदन मोहन ने अपनी पढ़ाई दोबारा शुरु की और साथ ही बॉम्बे टॉकीज़ में भी जाना-आना शुरु कर दिया। तब उनकी उम्र मात्र 15 साल थी। उनके पड़ोस में तब जद्दनबाई रहती थीं जो नर्गिस की माँ थीं। मदन मोहन उनके साथ बहुत हँसते-बोलते थे। राज कपूर भी वहाँ आया-जाया करते थे। वहीं पास ही कृष्ण महल में सुरैया भी रहती थीं। अब नर्गिस, राजकपूर, मदन मोहन, सुरैया सब मिलकर आल इंडिया रेडियो के लिए जूनियर आर्टिस्ट बन अपनी वोइस रिकॉर्डिंग करते थे। मदन मोहन साहब और उनके पिता की कभी आपस में नहीं बनी, कारण सीधा सा था - मदन मोहन ठहरे रमता-जोगी बहता-पानी टाइप शख्स और उनके पिता चाहते थे डिसिप्लिन। दोनों में अक्सर तकरार होती थी। फिर इनकी मण्डली में एक और क्रांतिकारी जुड़ गए, किशोर कुमार। वो भी इंडस्ट्री में ही कैरियर बनाना चाहते थे।
तब मदन मोहन जी के पिता ने उन्हें ब्रिटिश आर्मी में भेज दिया। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। भोजन सामग्री और सैनिकों की हमेशा कमी बनी ही रहती थी। मदन मोहन बा-मुश्किल दो साल आर्मी में रुके और फिर वापस मुंबई आ गए। अबकी उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री की बजाए रेडियो इंडस्ट्री का रुख किया और लखनऊ के आल इंडिया रेडियो में म्यूजिक प्रोडूसर और कोऑर्डिनेटर के तौर पर काम करने लगे। यही वह बेगम अख्तर, उस्ताद फैयाज़ खान, उस्ताद विलायत खान, तलत महमूद आदि से मिले और उनको उर्दू का चस्का लगा। उन्होंने न सिर्फ उर्दू बोलनी सीखी बल्कि उर्दू लिखनी और पढ़नी भी सीख ली। अब उन्होंने एक बार फिर बम्बई का रुख किया और अपने पिता से कहा कि उन्हें कम्पोज़र बनना है। लेकिन उनके पिता ने साफ मना कर दिया। पर, उनकी किस्मत की उनके पिता की ज़िन्दगी एक और औरत आई और उन्होंने दूसरी शादी कर ली। मदन मोहन की माँ ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं थीं लेकिन दूसरी माँ डॉक्टर थीं। पिता अपनी नई बीवी संग व्यस्त हो गए और मदन मोहन ने ख़ुद को संगीत के नाम कर दिया।
हालाँकि उनकी पहली मोहब्बत अभी भी एक्टिंग ही थी। लेकिन दो भाई नामक फिल्म के लिए वह सचिन देव बर्मन को असिस्ट कर रहे थे कि सचिन दा बोले “मदन तुम्हारी कम्पोजीशन बहुत अच्छी है, तुम एक्टिंग वेक्टिंग का चक्कर छोड़ो, कंपोजर बनों”
यहाँ से मदन मोहन साहब का स्ट्रगल शुरु हुआ था। वह एक कमरे में चार लोगों के साथ रहते थे जिनमें से एक रामानंद सागर जी हुआ करते थे। उन दोनों के पास मिलाकर एक ही सही सुरक्षित शर्ट हुआ करती थी जो कहीं से फटी नहीं थी। इसलिए वो दोनों काम की तलाश में अलग-अलग दिन जाते थे ताकि किसी को फटी शर्ट न पहननी पड़े। सन 50 में मदन साहब को एक कम्पोज़र के नाते पहला ब्रेक मिला, फिल्म थी ‘आँखें’, ये फिल्म तो नहीं चली पर इसके गाने खासे पोपुलर हुए। यहीं से रफ़ी साहब और मदन मोहन की दोस्ती भी शुरु हुई। इसी फिल्म में मुकेश और शमशाद बेग़म का गाया एक गाना – ‘हमसे नैन मिलाना’ – ख़ासा हिट हुआ था।
Shamshad Begum & Mukesh: Humse Nain Milana (Aankhen - 1950)
उनके पिता ने भी इस फिल्म का प्रीमयर देखा और बिना कुछ बोले चले गए और आपनी गाड़ी में जाकर बैठ गए। जब मदन मोहन उनके पास गए तो वो भीगी आँखें लेकर बोले “मैंने कभी तुम पर भरोसा नहीं किया बेटा, कभी भरोसा नहीं किया” इसके कुछ ही समय बाद उनके पिताजी चल बसे।
सन 55 में उन्होंने अपनी एक्टिंग की आजमाइश भी कर ली, उन्होंने फिल्म मुनीमजी में एक इम्पोर्टेन्ट रोल किया। मदन मोहन ने इस दशक में बहुत सी फिल्मे कीं पर सब छोटे बजट की फिल्में थीं। ज़्यादातर का कोई ख़ास नाम न हुआ। मदन मोहन ने बहुत दिन ऐसे भी गुज़ारे जिसमें उन्हें एक-एक हफ्ते तक बिना खाए रहना पड़ा। पर जब मन में एक ही लग्न थी की कि जो करना है यहीं करना है, तो क्या फ़र्क पड़ता था कि दिन कैसे बीतता है।
इसी दौरान उन्होंने फिल्म भाई-भाई के लिए भी म्यूजिक दिया और इसी फिल्म के एक गाने – दुनिया में सब हैं चोर-चोर – से इंस्पायर्ड होकर अक्षय कुमार की फिल्म मोहरा में गाना – तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त – बनाया गया।
Is Duniya Mein Sab Chor Chor
Tu Cheez Badi Hai Mast
अपने कैरियर के 12 साल बाद वो फिल्मफेयर में नोमिनेट हुए। उनकी दूसरी फिल्म ‘अदा’ से शुरु हुई उनकी और लता मंगेशकर की दोस्ती ने यूँ तो एक से बढ़कर एक गाने दिए पर अनपढ़ (1962) फिल्म का – आप की नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे – कुछ ऐसा गाना था जो सबके होंठों पर चिपक सा गया था। इसी फिल्म के एक और गाने को सुन नौशाद साहब ने ऐसी बात कह दी थी जो तब से अबतक किसी संगीतकार ने किसी साथी संगीतकार के लिए नहीं कही थी। वो दूसरा गाना था – है इसी में है प्यार की आबरू, और नौशाद साहब ने ये दोनों गाने सुनकर कहा था “मदन, मेरी सारी जमा पूँजी, सारा काम ले लो और मुझे ये दो गाने दे दो” लेकिन फिर भी उन्हें फिल्मफेयर नहीं मिला।
Aap Ki Nazro Ne Samjha
Hai Isi Me Pyar Ki Aabru
मदन मोहन साहब को अपनी नीली-सफ़ेद स्टडब्रेकर गाड़ी बहुत प्यारी थी। वो किसी को भी उसे हाथ नहीं लगाने देते थे। एक रोज़ वो पूरे परिवार के साथ बहुत तेज़ ड्राइव करते कहीं जा रहे थे कि पीछे से पुलिस साइरन की आवाज़ आई, उनकी पत्नी ने टोका “आपसे कहा था न इतनी तेज़ मत चलाइये, ज़रूर आपने स्पीड लिमिट क्रॉस कर दी होगी, अब भुगतिए”
मदन मोहन जी ने गाड़ी साइड में रोकी, पुलिस वाला जीप से उतरा और उनके पास आया तो मदन जी ने गाड़ी का शीशा नीचे किया और धीमी आवाज़ में कहा “शायद मेरी स्पीड ज़्यादा हो गयी थी, मैं माफ़ी चाहता हूँ” लेकिन पुलिस वाला बात काटते हुए बोला “अरे नहीं मदन मोहन साहब, मैं तो बस ये कहना चाहता था कि अनपढ़ के गाने अबतक के सबे बेहतरीन गाने हैं, इस फिल्म के लिए आपको फिल्मफेयर पुरस्कार हर हाल में मिलना चाहिए था”
मदन मोहन जी मुस्कुराए और अपनी पत्नी की तरफ देखते हुए बोले “देखा, मिल गया न मुझे अवार्ड”
फिल्म शराबी में उनका कम्पोज़ किया गाना “सावन के महीने में” देव आनंद पर फिल्माया गया था। ये बड़ी बात इसलिए भी थी क्योंकि उन दिनों हर बड़े एक्टर के, फिल्ममेकर्स के अपने फेवरेट संगीतकार हुआ करते थे। देव आनंद बर्मन दा के साथ ही जाते थे। राज कपूर शंकर जयकिशन के और दिलीप साहब नौशाद के साथ ही जोड़ी बनाते थे। उन दिनों गाने पोपुलर होने के तीन ही तरीके होते थे। या तो आदमी एलपी ख़रीदे, या फिल्म देखने जाए या रेडियो पर सुने।
SHARABI(1964)-SAWAN KE MAHINE MEIN
अब मुसीबत ये थी कि रेडियो पर वही गाने बजाए जाते थे जो फिल्में सुपर हिट, सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली होती थीं। एलपी उन्हीं अलबम के निकलते थे जो गाने फिल्मों में हिट हो जाते थे और जब फिल्म ही एक हफ्ते-दो हफ्ते में उतर जाए, तो गाने लोगों के पास पहुँच ही नहीं पाते थे। या अवार्ड मिले तो भी गाने रेडियो पर आ जाते थे पर मदन जी का फिल्म फेयर अवार्ड्स से शायद 36 का आंकड़ा था।
1964 में उस वक़्त के बहुत बड़े फिल्म डायरेक्टर राज खोसला साहब ने अपनी अगली फिल्म ‘वो कौन थी’ के म्यूजिक के लिए मदन मोहन को साइन किया। इस फिल्म के गानों ने धूम मचा दी। ख़ासकर लता मंगेश्कर का गाया “लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो” लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया। फिल्म भी सुपर हिट हुई, मदन मोहन फिल्मफेयर में नोमिनेट भी हुए तो सामने राजकपूर की संगम जैसी फिल्म का म्यूजिक लिए ‘शंकर जयकिशन’ भी प्रतिस्पर्धा में थे। लेकिन, बेस्ट म्यूजिक डायरेक्शन अवार्ड लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को फिल्म दोस्ती के लिए मिल गया।
लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो
मज़े की बात देखिए, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल इन दोनों महान संगीतकारों के असिस्टेंट रह चुके थे। फिल्मफेयर का इंतजार बढ़ता गया लेकिन एक से बढ़कर एक संगीत भी बनता गया।
उन्होंने इंडिया चाइना वॉर पर बनी फिल्म हक़ीक़त का म्यूजिक भी दिया। जिसमें ‘कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों’ बहुत पोपुलर हुआ पर उन दिनों घरों में एलपी प्लेयर हुआ करते थे, आज की तरह लाउडस्पीकर या डेक या म्यूजिक सिस्टम होते तो हर 15 अगस्त पर ये गाना बजता।
कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों
मदन मोहन जी सिर्फ गाने कम्पोज़ ही नहीं करते थे, उन्होंने गाने लिखे भी थे। 1966 की फिल्म - दुल्हन एक रात की – के लिए उन्होंने बेहतरीन ग़ज़लनुमा गाना लिखा था – फिर वही शाम, वही ग़म वही तन्हाई है – ये गीत तलत महमूद की आवाज़ में बहुत पसंद किया गया। फिल्म जहां आरा के लिए भी उन्होंने – तेरी आँख के आंसू – लिखा और कम्पोज़ किया था।
Phir Wohi Sham Wohi Gham
Teri Aankh Ke Aansoo Pee Jaoon
रफ़ी साहब के साथ फिल्म चिराग का गाना - तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है – भी बहुत हिट हुआ था। ये गाना फैज़-अहमद-फैज़ की नज़्म से प्रेरित था। रफ़ी साहब का सदाबहार सैड गीत - ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं – भी मदन मोहन जी ने ही कम्पोज़ किया था।
Teri Aankhon Ke Sivaa
Yeh Duniya Yeh Mehfil Mere Kaam Ki Nahi
गीतकारों में अमूमन उन्हें राजेंद्र किशन, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी और रजा महदी खान के साथ काम करना पसंद था। उनके ज़्यादातर गाने लता मंगेश्कर और रफ़ी के साथ ही हैं लेकिन उन्होंने देख कबीरा रोया के लिए लिजेंड मन्ना डे की आवाज़ भी ली थी। वो गाना था – कौन आया मेरे मन के द्वारे। और सदाबहार फिल्म बावर्ची का सदाबहार गीत ‘तुम बिन जीवन कैसा जीवन’ भी मदन मोहन साहब ने ही कम्पोज़ किया था।
Kaun Aaya Mere Mann Ke Dware
Tum Bin Jeevan Kaisa Jeevan
इतना शानदार म्यूजिक, इतनी बढ़िया कम्पोज़ीशन, इतना प्यार, इतना सम्मान और ऐसा ठसका (उन दिनों वो अकेले ऐसे कम्पोज़र थे जो इंग्लिश बोलते थे, सूट पहनते थे पर क्लासिकल धुनें बनाते थे) होने के बावजूद, मदन मोहन साहब को हमेशा यही लगा कि उनके काम की वो कद्र नहीं हुई जिसके वो हक़दार थे। इसमें काफी हद तक सच भी था। यही कारण रहा था कि वो अक्सर बहुत-बहुत शराब पीने लगे थे। इसीलिए 1971 नवम्बर की उस सुबह जब उन्हें नेशनल अवार्ड मिलने की ख़बर दी गयी तो उनको एक बारगी भरोसा ही न हुआ।
मज़ा देखिए, जिस फिल्म – दस्तक - के लिए उन्हें नेशनल अवार्ड मिला उसी फिल्म को फिल्मफेयर अवार्ड में नोमिनेट तो किया गया, पर अवार्ड शंकर जयकिशन को फिल्म पहचान के लिए मिला। अवार्ड मिलने के बावजूद मदन मोहन जी ने दिल्ली राष्ट्रपति भवन जाने से मना कर दिया। बोले “मुझे नहीं चाहिए, कोई बात नहीं, जहाँ 20 साल तक नहीं मिला वहाँ और न सही, मैं कहीं नहीं जाऊँगा, मुझे बहुत काम है” पर तब हरिभाई जरीवाला, यानी संजीव कुमार उनके पास आए और बोले “मदन भाई, तुम नहीं चलोगे तो मैं भी अवार्ड लेने नहीं जाऊँगा” उन्हें भी दस्तक के लिए नेशनल अवार्ड मिला था। अब भला हरिभाई को कैसे मना कर देते। बेमन से ही सही पर मदन मोहन जी अवार्ड लेने दिल्ली पहुँचे।
दस्तक के अलावा न कोई मेजर अवार्ड, न कहीं रेडियो प्रोग्रामों में उनके गाने, न ही लोगों द्वारा उनके गाने बजाने का ग़म उन्हें धीरे-धीरे सालने लगा। वो डिप्रेस रहने लगे, ख़ूब शराब पीने लगे पर उनके काम में कोई कमी न दिखी। यही वजह रही कि पंचम दा किन्हीं और फिल्मों में व्यस्त होने के कारण गुलज़ार ने अपनी फिल्म मौसम के लिए मदन मोहन जी को साइन किया पर उस फिल्म की रिलीज़ से ज़रा पहले, 14 जुलाई 1975 मदन मोहन जी ने अपनी आँखें हमेशा के लिए बंद कर लीं।
पर कुदरत का खेल देखिए, मौसम दिसम्बर में रिलीज़ हुई और उसके गाने सुपर-डुपर हिट हो गए। फिल्म भी 25 हफ्ते सिनेमा हॉल से नहीं उतरी और ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन’ सारा सारा दिन रेडियो पर बजने लगा। भारत के हर गाँव शहर से इस गाने की फरमाइशे आने लगीं। पर अफ़सोस, मदन मोहन जी इस पॉपुलैरिटी को देखने के लिए मौजूद न रहे। इसी तरह फिल्म लैला मजनू (1976) भी बम्पर हिट हुई और उसके गानों ने तहलका मचा दिया। सन 80 के बाद डेक और लाउड स्पीकर भी आने लगे और हर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर स्कूल्स में, मैदानों में, लोगों के घरों की छत पर भी – कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों - बजने लगा मगर फिर अफ़सोस, मदन मोहन जी ये सुनने के लिए यहाँ मौजूद न रहे।
Dil Dhundta Hain Song
बरसों बाद, 2004 में यश चोपड़ा ने वीर-ज़ारा के लिए मदन मोहन जी की कुछ धुनों को संजीव कोहली, यानी उनके बेटे के ज़ेरेसाया फिल्म में लिया और जावेद अख्तर ने उसपे बोल लिखे। एक बार फिर, अपने दोस्त, अपने भाई मदन मोहन की खातिर लता मंगेश्कर रिकॉर्डिंग स्टूडियो आई और जब उन्होंने – तेरे लिए हम हैं जिए, हर आंसू पिए – गाया तो एक बार फिर, टीवी, रेडियो और कैसेट्स तक में मदन मोहन की धुनों का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा। पर फिर, फिल्मफेयर में नोमिनेशन तो मिली लेकिन अवार्ड नहीं मिला। मगर उसी साल फिल्मफेयर की टक्कर के ही आइफा अवार्ड्स में सुनहरे अक्षरों से बड़ी सी स्क्रीन पर लिखा गया – बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर अवार्ड गोज़ टू – मदन मोहन कोहली फॉर वीर ज़ारा और चारों तरफ से तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूँज उठा। वहीँ तालियाँ बजाते-बजाते ऑडियंस में बैठे उनके बेटे संजीव कोहली के होंठों पर मुस्कान और आँखों में पानी भर आया।
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