यादों की बारात से Nazir Hussain के जन्मदिन पर विशेष लेख

मैं तो गांव का आदमी और वहां की गंध ही मेरे तन-बदन में महकती रही है. यह बात कहते हुए मुझे गर्व का भान होता है कि भारत के अमर शहीद ब्रिगेडियर उस्मान और ब्रिगेडियर अब्दुल हमीद की जन्म भूमि गाजीपुर ही मेरी भी जन्म भूमि हैं...

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मैं तो गांव का आदमी और वहां की गंध ही मेरे तन-बदन में महकती रही है. यह बात कहते हुए मुझे गर्व का भान होता है कि भारत के अमर शहीद ब्रिगेडियर उस्मान और ब्रिगेडियर अब्दुल हमीद की जन्म भूमि गाजीपुर ही मेरी भी जन्म भूमि हैं जहां के लोगों के लहू के कण-कण में आर्मी समायी हुई है. वे अपने देश की आन के लिए हर समय कुर्बानी देने के लिए तत्पर रहते हैं.

मेरे देश भारत पर भी मुझे गौरव और गर्व है. वह एक गुलदस्ता है जिसमें हम सब अलग-अलग रंगों और गधों के फूल एक साथ उसकी शोभा में चार चांद लगाते हैं. भारत की जनता की रंगों में प्रजातंत्र किस गहराई तक पैदा हुआ है इस बात का प्रमाण उसने इस बार के चुनावों के दौरान सारी दुनिया के सामने उदाहरण के रूप में रखा है. भारत संसार का सबसे बड़ा और सबसे जागृत प्रजातंत्र है किन्तु फिर भी मुझे अपनों से ही शिकायत भी है कि अभी तक हम पूर्णतया भारतीय नहीं बन पाये हैं. हम नेशन के फार्म में हैं और यहां जब वेव आता है तो जनता उसमें बह भी जाती है.

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खैर, मेरी पैदाइश एक किसान के यहां हुई जो पेशे से सैनिक थे.

मेरे परिवार में तो लोग ग्रेजुएट बन जाने के बाद भी सेना को ही प्रीफर करते रहे हैं इसीलिए मैंने भी अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी होते ही ब्रिटिश आर्मी ज्वाइन कर ली. मैं सिंगापुर में था और उस समय युद्ध चल रहा था. जो हम सैनिकों की टुकड़ियां जापानियों से अंग्रेजों का फेवर करते हुए अलग कमाल दिखा चुकी थीं और सिंगापुर में कैद कर ली गयी थीं. उन्हीं टुकड़ियों से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज बनी. अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हम लोगों के दिल में जान कुर्बान कर देने के हौसले थे और कोई भी गैरतवाला हिंदुस्तानी उस वक्त रूक नहीं सकता था.

मैंने उस समय इंफोमेशन ब्राडकास्ंिटग का मोर्चा संभाला था. आज तो रेडियो टेलीविजन जैसे सर्व-सुलभ साधन हो गये है सब जगह लेकिन उस वक्त तो नाटक, भाषण और गीतों तक संदेश पहुंचा कर उन्हें जागृत किया जाता था. हम लोगों को नेताजी ने एक स्लोगन दिया था- ‘जय हिंद’ सब कुछ होते हुए भी उस समय और आज भी लोगों में प्रांतीयवाद था, है लेकिन इस स्लोगन के द्वारा उसे खत्म किया गया. कोई भी मिलने पर सलाम राम-राम, सतश्री अकाल की जगह कहता था जयहिंद यह नारा नहीं था स्लोगन था. यह तो मैं आपको बता ही चुका हूं. हम सब का मजहब एक ही था-भारत, अपनी मातृभूमि, अपना देश लड़ाई छिड़ी तो हम सब सिंगापुर से कोहिमा तक पैदल आए. तीन महीने तक सब-मैरिन में रहे. इससे बड़ा त्याग संसार में कुछ हो सकता है कि लोग देश प्रेम की दीवानगी में भूख, प्यास से जूझते हुए अफ्रीका का चक्कर काटते हुए भारत पहुंचे. कोई कुछ भी कहे, लेकिन देश को आजाद कराने में आजाद हिंद का भी बहुत बड़ा हाथ था. सारी आर्मी अंग्रेजो के विरूद्ध हो रही थी. क्योंकि हम लोगों के कोहिमा पहुंचते ही ब्रिटिश नैवी का रिवोल्ट हो गया था.

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हमारे नेता शाह नवाज आदि पर मुकद्दमें चले थे लाल किले में तब पं. जवाहर लाल नेहरू पहले आदमी थे जो गाउन पहन कर डिफेंस के लिए खड़े हो गये थे. उनका यह अहसान रहा है फौज पर इसके बाद सर भूला भाई देसाई ने इस केस को संभाला और देन डिफेंडेड रिलीज होने के बाद पांच बरस तक आजादी की लड़ाई लड़ी. सन् 1946 में रिलीज होने पर गवर्नमेंट की ओर से हर फौजी को दो रूपये और थर्ड क्लास का टिकट दे दिया गया. यह सब टार्चर बर्दाश्त करके जब अपने लोगों और मुल्क के बीच खड़े हुए तो किसी ने दरबानी की नौकरी तक नहीं दी. शाहनवाज वगैरह भी वहीं थे उन्होंने मुझे सजेस्ट किया कि कुछ नाटक तैयार करके वे उनके शो करके फौजियों के लिए कुछ फंड जुटाऊं तो मैंने सिपाही का सपना’ लिखा इसका पहला ‘शो’ कांग्रेस सेशन में 47 में कृपलानी की अघ्यक्षता में हुआ. वहीं, सभी पत्रकारों ने मुझसे पूछा था कि क्या मैं फिल्मों में जाना पसंद करूंगा.

वह राइट्स का जमाना था, सभी जगह आग भड़की हुई थी और हमें अपने ‘शो’ राइट एरिया में ही करने होते थे क्योंकि उसके जरिये हम लोगों को संदेश देते थे कि देश के लिए खून तो हम सबने मिल कर ही बहाया है एक तुम हो जो फसाद फैला रहे हो. आखिर पार्टीशन हो गया. उसी समय कलकत्ते से बुलावा आया उस ‘शो’ के लिए शो देख कर न्यू थियेटर्स वालों ने आॅफर दिया लेकिन मेरे मन के भीतरी कौने में इच्छा थी कि मैं तो फौज में ही भर्ती होऊंगा. लेकिन इस बात की पीड़ा आज भी मेरे मन में है कि इंडियन आर्मी में एक भी आजाद हिंद फौज के सैनिक को नहीं लिया गया और इसी लिए मुझे फिल्मों की ओर मुड़ना पड़ा. जब मैंने फिल्मी दुनियां में कदम रखे तो सभी ने मुझसे पूछा कि आपके पास आजाद हिंद फौज पर कोई कहानी है? मैं कहानी लिखने में लग गया और मैं लेखन के क्षेत्र में प्रस्थापित हो गया क्योंकि मेरी लिखी ‘पहला आदमी’ की कहानी को लोगों ने बहुत पसंद किया. फिल्म की कथा-पटकथा व संवाद लेखन मेरा था निर्देशक थे विमलराय. न्यू थियेटर्स की यह फिल्म बाॅक्स आॅफिस पर हिट साबित हुई और उससे प्रभावित होकर बंबई से भी मेरे पास काफी आफर्स आए. पहले तो मैंने ‘ना’ ही कहा लेकिन जब बिमल राय भी बंबई आए तो मैं भी उनके साथ बंबई ही आ गया. बंबई में मैंने ‘मां’ में काम भी किया और उसके संवाद भी लिखे. ‘मां’ भी खूब चली इसके बाद बिमल राय निर्देशित ‘परिणीता’ ‘बिराज बहू’ आदि का संवाद लेखक भी मैं ही था.

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कहते-कहते लेखक, निर्देशक और चरित्र अभिनेता नजीर हुसैन एक क्षण के लिए रूके. नजीर हुसैन बहुत ही सुलझे हुए विचारों के सादा इंसान हैं. अभिनय को वे अपनी इसी सहजता के बल पर ही तो यथार्थ में परिवर्तित कर देते हैं कि दर्शक उनकी कला में एकरस हो जाता है. सैकड़ों ही फिल्मों में वे पुत्रवत्सल पिता, आदर्शवादी शिक्षक, आदर्श सैनिक, के रूप में दिखाई दिये हैं. और उस चरित्र के यथार्थरूप में ही दिखे हैं. विशेषकर टेªजेडी दृश्यों में तो उन्होंने लोगों के मन को आर्द्र करके भिगो दिया है.

‘अब मैं यह बताना चाहता हूं कि हिन्दी से भोजपुरी फिल्मों की ओर मैं कैसे मुड़ा जिन दिनों मैं ‘नई दिल्ली’ में काम कर रहा था मुझे दिल्ली जाने का मौका मिला. उन दिनों भारत के राष्ट्रपति थे बाबू राजेन्द्र प्रसाद, वे एडवोकेट जनरल आफ बिहार बाबू महावीर प्रसाद के अच्छे मित्र थे. जनरल साहब से मेरी दिल्ली में एकाएक मुलाकात हो गयी. वे हमारे भोजपुरी एरिया के ही थे. मैंने मिलते ही परनाम बाबू साहब कहा. वे बोले अरे यहां कहां थे इतने दिनों तक. मैं ने बताया वे मुझे राजेन्द्र प्रसाद जी के पास ले गये. उन्होंने बातों के दौरान पूछ लिया कहां के हो और पता लगते ही बोले-‘अरे भाई भोजपुरी में फिल्म नहीं बनती? भोजपुरी एरिया ईस्टर्न यू. पी. का एरिया है. इस भाषा के बोलने वाले तेरह करोड़ लोग है लेकिन तब तक यह बोली थी, लिपि कार्य में नहीं आ पायी थी. मैंने कहा बाबू साहब फिल्में दो-चार हजार में तो बनती नहीं इसलिए हिम्मत कौर करे? वे बोले, तुम शुरू तो करो.

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वापिस लौटा तो ‘गंगा जमना’ की तैयारियां हो रही थीं. मैंने देखा फ्रंटियर का पठान दिलीप कुमार इस भाषा को इस खूबी से बोल रहा, लिख रहा है कि क्या बात. मैं भी था ही उस फिल्म में. तब मैंने महसूस किया कि दिलीप दो-तीन वर्षो से उसी भाषा में लोगों से बात क्यों किया करता था. मन में बात पिंच हुई कि जब दिलीप, सरहद की भाषा वाला उस पर मास्टरी करके फिल्म बना सकता है तो मैं क्यों नहीं बना सकता ? मैंने भी ‘गंगा मैया तोहे पियरि चढ़इबो’ लिखनी शुरू कर दी और सन् 1956 में फिल्म फ्लोर पर भी चली गयी. लोग मजाक उड़ाते थे कि भैयों की भाषा वाली इस फिल्म को देखेगा कौन लेकिन मैंने किसी की परवाह नहीं की और लगा रहा अपने काम में. फिल्म की 8 रीलें बन गयीं तो मेरे पास संदेश आया कि राष्ट्रपति फिल्म देखना चाहते हैं. निर्माता बोला, फिल्म पूरी होने के बाद ही दिखाएंगे, फिल्म बनी तब वे राष्ट्रपति पद से अलग हो गये थे लेकिन वे तो महान विभूति थे उनका महत्व तो जितना सिहासन पर था उतना ही उससे अलग होने के बाद भी था. फिल्म पूरी होकर सन् 1962 में महा शिवरात्रि के दिन पटना में लगी. और उसकी धूम मच गयी. राजेन्द्र बाबू को जब पता लगा तो वे बच्चों की तरह मचल उठे फिल्म देखने के लिए. किंतु वे बहुत सिरीयस थे इसलिए उनके आग्रह पर 16 मी. मी. साईज की फिल्म धोतियां लटका कर उन्हें दिखाई गयी. जब इमोशनल सीन शुरू हुए तो वे रो पड़े. मैंने शराब के विरोध में लिखी थी वह फिल्म एक किसान परिवार को शराब कैसे बर्बाद कर देती है.

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मैं उस समय बड़ौदा में शूटिंग कर रहा था कि तार मिला, राजेन्द्र बाबू मिलना चाहते है. मैं दिल्ली से बनारस पहुंचा. प्लेन रात के 11 बजे पहुंचा. टेक्सी लेकर मुगल सराय पहुंचा और तूफान पकड़ कर पटना. स्टेशन पर खामोशी थी. क्या हो गया है सब को......? मैं सोच रहा था कि एक आदमी ने पेपर मेरे सामने कर दिया. राजेन्द्र बाबू ने उसी रात को दो बजे हमसे चिर विदा ले ली थी. बाद में महावीर बाबू ने मुझे बताया कि फिल्म देख कर वे बोले थे कि यह फिल्म अगर मैं दिल्ली या बंबई में बैठ कर देखता तो मुझे महसूस होता कि मैं अपने गांव में बैठा हूं, इसके सारे के सारे कैरेक्टर मेरे गांव के ही है. नजीर को तत्काल सूचना भेजो कि मैं उससे मिलना चाहता हूं उसमें जो बात सबसे अधिक पसंद की गयी थी और जिसमें अपीलिंग पावर थी उनमें से एक यह भी थी कि मैं उस फिल्म में लड़की को तवायफ तो बना देता हूं लेकिन उसका चरित्र नहीं गिरने देता. हीरो उसे इसी रूप में इसी विचार से स्वीकार करता है कि आखिर वह भी तो किसी की बहन, किसी की बेटी थी.

इसके बाद दूसरी भोजपुरी फिल्म ‘लागी नाहीं छूटे राम’ मैंने हरिजनों की समस्या पर बनायी थी. तीसरी फिल्म ‘हमार संसार’ का सबजेक्ट भी बहुत ही अभिनव और प्रमाणिक था. विषय था किसान गांवों से शहर की ओर क्यों जा रहे हैं....क्यों ?

हमारी फिल्में आज कैसी बनती हैं यह तो आप जानते ही हैं. अगर कहें कि चूं-चूं का मुरब्बा बनती हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. क्यों...? इसलिए कि वे पूरे भारत के लोगों के लिए बनाई जाती है. मेरा मानना तो यह है कि इसीलिए हमारी रीजनल लेंगुएज में हिंदी फिल्मों से बेहतर कथानक वाली फिल्में बनती हैं.

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मर्दुमसुमारी के दिनों में एक आदमी मेरे पास आया, बोला-‘आप की मातृ-भाषा कौनसी है....?’

मैंने कहा-‘मातृ-भाषा यानि.....? वह भाषा तो नहीं जिसे आदमी मां की गोदी में सीखता है और बोलता है.’

‘जी हां ....’ उसने कहा.

‘भोजपुरी....’ सुन कर वह चैंका, ‘यह क्या बला है....’

यह बात इसी तरह राजेन्द्र बाबू से पूछी गयी थी और यही जवाब उन्होंने भी दिया था. जब यह खबर ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ में छपी तो वह आदमी तत्काल मेरे पास आया बोला आप की ही भाषा....

मैंने हंसते हुए कहा ‘जी हां मैं राष्ट्रपति की भाषा ही बोलता हूं.’ वह सकुचा गया.

‘तो क्या अब भी आप कुछ लिख रहे है या....?’

‘चैदह वर्ष बाद अब जाकर लिखी है ‘बलम परदेसिया’ अगले सप्ताह ही फ्लोर पर जाने वाली है. देव मुखर्जी पद्यमा खन्ना, नजीर हुसैन , लीला मिश्रा साधना खोटे और टुनटुन की टीम उसमें काम कर रही है.’

नजीर हुसैन की आनेवाली फिल्में हैं.

‘मंदिर-मस्जिद’ ‘पंडित और पठान’ ‘डाॅक्टर बाबू’ ‘सुल्तानें हिंद’ इसके आगे आप वगैरह-वगैरह लगा लीजिए, वे हंसते हुए बोले. इसलिए कि सभी फिल्मों के नाम न तो याद ही है और न इस वक्त याद आएंगे ही.  

नजीर हुसैन, वन विहार,
नडियाड वाला कालोनी मलाड़

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