देशवासियों के मन में देशभक्ति की अलख जगाने वाले गीत तो कई बने हैं लेकिन एक ऐसा गीत बना जिसने साम्राज्यवादी गोरों के दिलों में हड़कंप मचा दिया था. प्रसिद्ध फिल्म लेखक विनोद कुमार बता रहे हैं पैसठ साल से अधिक समय पहले बने उस गीत के बारे में जो आज भी हमारी धमनियों में जोश, बलिदान और देश के प्रति गौरव के भावों की त्रिवेणी बहा देता है.
1943 में रिलीज हुई फिल्म किस्मत के गीत "दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है" को तो आपने जरूर सुना होगा. हर धर्म और सम्प्रदाय के लोगों को आजादी के लिए लामबंद करने वाला यह गीत सीधे–सीधे अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देता था लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजी हुक्मरान इस गीत से धोखा खा गए थे. इस गीत ने वर्षों तक अंग्रेजों को बेवकूफ बनाया और जब उनको अपनी बेवकूफी का पता चला तब उनकी हालत खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे वाली हो गई.
यह गीत 1943 में रिलीज हुई फिल्म किस्मत का है जिसका निर्देशन ज्ञान मुखर्जी ने किया था. इसका निर्माण बॉम्बे टॉकीज ने किया था जो सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाने के लिए विख्यात थी. इस फिल्म के गीतों को संगीत से सजाया था प्रसिद्ध संगीतकार अनिल बिस्वास ने. कवि प्रदीप के लिखे इस गीत को मुख्य स्वर दिया था अमीरबाई कर्नाटकी और खान मस्ताना ने. यह गीत फिल्म की हीरोइन मुमताज शांति पर फिल्माया गया था.
जब यह फिल्म रिलीज हुई तो सिनेमाघरों में दर्शकों की अपार भीड़ उमड़ पड़ी और रातों-रात यह फिल्म हिट हो गई. भारत की धार्मिक बहुलता की छवि को उजागर करने वाले इस गीत ने मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वार को एक कतार में खड़ा कर दिया.
इस गीत में भारत को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों का तो सीधे सीधे नाम नहीं लिया गया लेकिन इसमें जर्मनी और जापान को ललकारते हुए उनको भारत से दूर रहने को कहा गया था.
यह वह समय था जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था. अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तमाम राष्ट्रीय नेता जेलों में बंद थे और देश एक कठिन समय से गुजर रहा था. ऐसे समय में कवि प्रदीप ने गांधीजी के आंदोलन को अपनी कविता में इस प्रकार ढाला "आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है."
इस गीत के जरिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनभावना को भड़काया गया था लेकिन इस गीत में प्रदीप जी ने अपनी लेखनी का बहुत सावधानी के साथ इस्तेमाल किया था. इसके एक अंतरे में जर्मन और जापानियों को दुश्मन कहा गया है ताकि गोरी सरकार यह समझे कि यह गीत उनके दुश्मनों के विरोध में है.
1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और चीन एक साथ होकर जर्मनी और जापान से युद्ध कर रहे थे. ऐसे में चूंकि इस गीत में जर्मन और जापान जैसी फासिस्ट शक्तियों को संबोधित किया गया था इसलिए सेंसर बोर्ड ने कोई आपत्ति नहीं जताई. उस समय के कड़े सेंसर नियमों के बावजूद यह गीत शब्दों के उलटफेर के जरिए सेंसर बोर्ड को बेवकूफ बनाकर पास करा लिया गया मगर जनता अच्छी तरह अवगत थी कि गीत की पंक्तियों में किसको चेतावनी दी जा रही है. फिल्म के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों के अनुरोध पर गीत को कई–कई बार दिखाया जाता था और हर शहर में इसकी फरमाइश की जाती थी. फिल्म किस्मत ने एक ही सिनेमाघर में लगातार तीन वर्ष तक चलते रहने का रिकार्ड स्थापित किया था.
गोरी सरकार को शीघ्र ही अपनी गलती का आभास हो गया और गीतकार के विरुद्ध गिरफ्तारी के वारंट जारी कर दिये गये जिसके कारण उन्हें कुछ समय के लिए सरकार की नजरों से छुपकर रहना पड़ा. जनता के दिलों पर इस गीत ने जो जादू किया उससे गारी सरकार परेशान हो गयी.
इस गीत के कारण कवि प्रदीप की छवि एक निडर कवि के तौर पर हो गई थी. कवि प्रदीप उन गीतकारों में से थे जिन्होंने अपनी आरंभिक प्रसिद्धि कवि सम्मेलनों से पायी और फिर फिल्म नगरी में आए. उन्होंने देश प्रेम का अमर गीत "ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी" लिखा था जिसे देश में जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त हुई.
आजादी के बाद से कवि प्रदीप का लिखा यह गीत नस-नस में देशभक्ति का जज़्बा पैदा करता है. एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने इस गीत के बारे में बताया था - 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत की हार से लोगों का मनोबल गिर गया था, ऐसे में सरकार की तरफ़ से फ़िल्म जगत के लोगों से ये अपील की गई कि - भई अब आप लोग ही कुछ कीजिए. कुछ ऐसी रचना करिये कि पूरे देश में एक बार फिर से जोश आ जाए और चीन से मिली हार के ग़म पर मरहम लगाया जा सके.
उसके बाद प्रदीप जी ने यह गीत लिखा, जिसे स्वर कोकिला लता जी ने अपनी आवाज दी, उस समय भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी वहां मौजूद थे, और उनकी भी आंखें नम हो गईं थीं. कवि प्रदीप ने इस गीत का राजस्व युद्ध विधवा कोष में जमा करने की अपील की. आज भी यह गीत जब बजता है, लोग ठहर जाते हैं, रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
उनके लिखे गीतों में इतना आकर्षण होता था कि दर्शक उन्हें सुनने के लिए बार–बार फिल्म देखने जाते थे. वह अपने गीतों में बहुत सादा और गली–कूचों में बोली जाने वाली भाषा का प्रयोग करते थे ताकि आम आदमी उनकी शायरी का पूरा आनंद उठा सके.
उनके प्रसिद्ध गीतों में फिल्म बंधन का गीत "चल चल रे नौजवान", फिल्म जागृति के गीत "आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की‘‘ और "दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल" थे.
उनकी 1958 की फिल्म तलाक जिसमें राजेंद्र कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई थी और 1959 की फिल्म पैगाम जिसमें दिलीप कुमार, वैजयंती माला और राजकुमार ने काम किया था, के गीत संगीत समय की कसौटी पर खरे उतरे. लोग उनके सार्थक गीतों जैसे– "इंसान का इंसान से भाईचारा यही पैगाम हमारा" से प्रभावित हुए बगैर न रह सके.
Talaq 1958 Movie Video Songs
फिल्म 'पैगाम' के इस सी रामचंद्र ने संगीत से सजाया और मन्ना डे ने आवाज दी थी. गाने की पंक्तियां सही मायनों में गंगा-जमुनी तहजीब से लोगों का परिचय करवाती हैं.
साठ का दशक आते–आते दर्शकों का मिजाज बदलने लगा और लोग पाश्चात्य संगीत पर आधारित तेज लय वाले गीत पसंद करने लगे और प्रदीप जी जैसे कलाकारों को अनदेखा किया जाने लगा. लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से आलोचकों को गलत सिद्ध कर दिखाया.
उन्होंने 71 फिल्मों के लिए 1700 गीत लिखे. वतन पर मर मिटने का जज़्बा पैदा करने वाले इस गीतकार को भारत सरकार ने सन् 1997-98 में 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया.
कवि प्रदीप के देश सेवा के प्रयासों की सराहना के तौर पर रिकॉर्डिंग कम्पनी एच एम वी वालों ने उनके 13 श्रेष्ठ गीतों की एल्बम निकाली थी. सरकार ने उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से नवाजा मगर आम जनता में वह कवि प्रदीप के नाम से प्रसिद्ध हुए. 1961 में संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें अपने गौरवान्वित पुरस्कार से सम्मानित किया. साथ उन्हें "लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड" से पुरस्कृत किया गया था.
11 दिसम्बर 1998 को 83 वर्ष के उम्र में इस महान कवि का मुंबई में देहांत हो गया. उनके लिखे कालजयी गीतों और कविताओं का आकर्षण उस जमाने में भी था और आज भी है, और हमेशा बरकरार रहेगा.
लेखक के बारे में :
विनोद कुमार मशहूर फिल्म लेखक और पत्रकार हैं जिन्होंने सिनेमा जगत की कई हस्तियों पर कई पुस्तकें लिखी हैं. इन पुस्तकों में "मेरी आवाज सुनो", "सिनेमा के 150 सितारे", "रफी की दुनिया" के अलावा देवानंद, दिलीप कुमार और राज कपूर की जीवनी आदि शामिल हैं.
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