-अली पीटर जॉन
जाने कैसे भारतीय जनता ऐसी मुर्ख और सेंसलेस हो सकती है कि दीपिका पादुकोण के मंतव्य पर शक़ करे जो जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में डॉक्टर कन्हैया कुमार और उनके साथी छात्रों का साथ देने के लिए पहुंची थी। जाने कितने सवाल दीपिका के मन में चल रहे होंगे कि जब दीपिका ने वहां जाने का निर्णय लिया, दिल्ली की फ्लाइट पकड़ी और दिल्ली पहुँच ड्राइव करके मुसीबतज़दा जेएनयू पहुँची और वहाँ बाकी स्टूडेंट्स के साथ खड़ी हुईं जिन्हें अब पूरे देश में चर्चितडॉक्टर कन्हैया कुमार अपने 'आज़ादी' के नारे के साथ लीड कर रहा था।
दीपिका यूँ तो सिर्फ दस मिनट के लिए चुपचाप खड़ी रही थी लेकिन वो दस मिनट में उसने वो सब कह दिया था जो बड़े से बड़े बेहतरीन वक्ता - जिनमें कन्हैया भी शामिल है - कह देते हैं। कन्हैया आज के समय का सबसे प्रभावी वक्ता है, इसमें कोई शक नहीं है। वो उन 'सयानों' से कहीं ज़्यादा राजनीति और जीवन की समझ रखता है जो जब बोलते हैं आदमी तो आदमी, पेड़ पौधे और पंछी तक बोर हो जाते हैं और कुछ तो सिर्फ उनके लम्बे बोरिंग बयान सुनकर ही देश से बाहर की फ्लाइट पकड़ निकल लेते हैं। दीपिका ने जेएनयू छात्रों के साथ खड़े होकर उन 'चौकीदारों' और 'तड़ीपरों' के मुक़ाबले अपनी ज़िम्मेदारी से अधिक एक नागरिक का फ़र्ज़ निभाया है जो कहने को तो देश के उज्जवल भविष्य की बात करते हैं पर जब लफंगे मुंह पर नकाब ओढ़े लाठी-डंडे लिए मासूम छात्रों को कैंपस में घुसकर उनके सिर फोड़ते हैं तो ख़ुद को किनारे कर लेते हैं।
ऐसा क्या रोना-रफ्फड़ करने का क्या तुक है कि दीपिका जेएनयू प्रोटेस्ट में अपनी फिल्म 'छपाक' का प्रमोशन करने के लिए आई थी जो दस जनवरी पर रिलीज़ होने ही वाली थी? वो क्यों ही अपनी फिल्म को किसी ऐसी जगह प्रोमोट करने के पक्ष में होगी जहाँ स्टूडेंट्स के दिमाग में पहले ही मार-पीट का डर बैठा हुआ था और अगले कई हफ़्तों तक उनके दिमाग में कोई फिल्म देखने का सोचने की भी गुंजाइश नहीं होगी। उनके दिमाग में पहले ही इतने सारे मुद्दे और ख़ून खौला देने वाले मसले चल ही रहे होंगे। क्या दीपिका को कोई सपना आया था कि जेएनयू का प्रोटेस्ट एक ख़तरनाक हिंसक रूप ले लेगा और वो भी तब जब उनकी बहुप्रतीक्षित फिल्म 'छपाक' जिसमें वो एसिड विक्टिम सर्वाइवर बनी हैं और जिस रोल को करने की दीपिका के अलावा किसी की हिम्मत नहीं हो सकती थी; के रिलीज़ होने में मात्र चार दिन बचे होंगे?
'छपाक' वो फिल्म थी जो दीपिका के करियर को एक नया ही मोड़ दे सकती थी तो क्यों वो अपने कैरियर को लेकर इतनी बड़ी रिस्क लेती जबकि वो पहले ही बाजिराओ मस्तानी, पीकू और पद्मावत सरीख़ी फ़िल्में कर नंबर वन पोजीशन पर पहुँच ही चुकी थी? वो चाहती तो अपनी बाकी साथी एक्ट्रेस की तरह सेफ खेलती रह सकती थीं पर फिर क्यों उन्होंने क्यों ऐसे कीचड़ में उतरना ज़रूरी समझा?
मैं इन सारे सवालों को पिछले सात-आठ घंटे तक अपने ज़हन में मथता रहा और जो मुझे ये ही लगा कि ज़िन्दगी में एक समय ऐसा आ ही जाता है जब हर भारतीय अपनी प्राथमिकता को सही स्थान दे देता है, एक समय ऐसा आ ही जाता है जब आपका अपना निजी फ़ायदा दूसरे नंबर पर चला जाता है और देशहित आपकी प्रायोरिटी लिस्ट में प्रथम स्थान पर पहुँच जाता है और आप कुछ भी होने किसी भी सैक्रिफाइज़ करने से पीछे नहीं हटते हो। सात जनवरी की रात को जेएनयू में, दीपिका ने जता दिया था कि वो उसके प्रायोरिटी तय करने का समय था और फिर उसको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं।
जैसे मैं ये लाइन्स लिख रहा हूँ, मैंने तुम्हारे उन वरिष्ठ साथियों को भी देखा है जो एमरजेंसी जैसे मुश्किल दौर में आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे, प्रोटेस्ट कर रहे थे। मैं तुम्हें सल्यूट करता हूँ दीपिका कि तुमने भीड़ में अलग होकर सही का साथ देना चुना, उन लोगों के खिलाफ होना चुना जो पॉवर और पोजीशन के मद में चूर होकर तड़ीपार और चौकीदार के चमचे बने बैठे हैं। अब एक उम्मीद की किरण दिखती है दीपिका, एक उज्जवल भविष्य की उम्मीद दिखती है कि इस देश का आने वाला कल खूबसूरत हो सकता है, डिअर दीपिका, जब तक तुम्हारे जैसे देश को प्यार करने वाले, देश की फ़िक्र करने वाले लोग मौजूद हैं तबतक ये उम्मीद और प्रबल होती जाती है। शुक्रिया दीपिका, मुझे और मेरे जैसे बहुत सारे लोगों को उस मंगल की रात ये उम्मीद देने के लिए।