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रंग बरसे... भीगे चुनर... भीगने दो, बाऊजी!

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By Mayapuri Desk
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रंग बरसे... भीगे चुनर... भीगने दो, बाऊजी!

अब आप मुझसे यह पूछोगंे न कि मैं ‘मायापुरी’ से इतना लम्बा अर्सा कहाँ गायब रहा? सो साहब मैं उस देश का रहने वाला हूं जहाँ एक बार नेता वोट लेकर पीठ मोड़ता है तो फिर पांच साल से पहले फ्लट कर नहीं दिखाई देता! आपने कभी नेता से पूछा है कि वीर जी तुस्सी पांच साल कहाँ रहे? मैं भी चूंकि नेताओं के मुल्क की ही रोटी खा रहा हूं सो नेताओं के संस्कार मेरे में आने ही आने है। इस मुल्क की पूरी बुनियाद में मैं मामूली हवेली राम हूँ।....खैर बहर हाल जब-जब होली आई है। तब-तब एक गाना मेरी बनियान तले कुलबुलाने लगा है... रंग बरसे डूबे... उहूं... रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे। मेरी तो खैर अब वह उम्र हो गई है कि असर नहीं पड़ता। चाहे रंग बरसे या व्हिस्की या रम बरसे... चुनर वाली भीगे बा बेलबोटम सा मीनी स्कर्ट वाली भीगे मेरी बला से। मेरी आत्मा ने रेनकोट ओढ़ लिया है। कोई रंग वंग असर नहीं करता मगर हां जब-जब मौहल्ले के छोकरे इस गाने पर अपनी नीम की दातून जैसी पतली कमर लचकाते है। मुझे अमिताभ बच्चन की याद आती है। यह अमिताभ पहले एक फस्र्ट क्लास ऐक्टर थे... फिर गवर्नमेट जी का सेकेंड क्लास दोस्त बने... फिर थर्ड क्लास पालीटीशियन! पता नहीं अब क्या है? पहले फिल्मों में जमा बैठे थे. फिर अमरीका के अस्पताल में लेट गये... फिर इलाहाबाद से खड़ा हुए... फिर संसद में बैठ गये.. फिर बोफोर्स ने खटिया ही खड़ी कर गया। फिल्म और पाॅलिटिक्स अब नागरा जूते जैसे हो गये है जिसमें उल्टा-सीधा नहीं होता! चाहे जो सा जूता जिस पैर में पहन लो आप! दुख सिर्फ उस वक्त होता है जब जूता पैर काटने लगता है।

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  ‘रंग बरसे भीगे चुनर...’ वाले गाने में (जिसे अमिताभ के पिताजी ने लिखा और अमिताभ ने खुद गाया) एक जगह आया है. सोने की थाली में ज्योना परोसा... खाएं गोरी का यार... बलम तरसे...’ अमिताभ के साथ भी यही हुआ। किस शान से पार्लीयामेंट में दाखिल हुए... राजनीति की परोसी हुई ‘सोने की थाली सामने थी। मगर यार लोग पंगा मार गये... सोने की थाली सामने से तिड़ी कर ले गये... और बेचारा ‘बलम’ (अमिताभ) तरसता रह गया। किस ठाठ से सत्ता सुंदरी ने लौगां इलायची का बीड़ा लगाया था। जाने कहाँ से यह निगोड़ा फेयरफैक्स लौगां इलायची का बीड़ा दबा गया... बलम तरसता रह गया। रंग बरसने की बजाए बम बरस गया अगले पर।...
  मगर बाऊजी, डिस्पाट आॅफ अवरीथिंग, मैं आज भी अमिताभ को ग्रेट मानता हूँ। आदमी सिर्फ लम्बाई से ही ग्रेट नहीं होता। खेल दिखाना पड़ता है। अपने इस शहंशाह ने शान से लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। ले जाओ अपनी कुर्सी.. नहीं बैठते। फिर जब जरूरत हो बुला लेना...बैठ जायेंगे। एक्टर है कोई दूध नहीं कि एक बार जम कर दही हो गये तो दूध नहीं बन सकते। राजनीति की ऐक्टिगं और ऐक्टिगं की राजनीति...बहते पानी पर बनी तस्वीरे है.. रोज बनती है, रोज घुलती है जो परसो ‘कुली’ या ‘मर्द’ हुआ आज ‘शहंशाह’ बन बैठा है। जादू का खेल है प्यारे। और अन्त मैं याद आता है। ‘रंग बरसे’ का तीसरा अन्तरा कहते हैं. ‘बेला चमेली का सेज बिछाया. सोवे गोरी का यार बलम तरसे!’ बेचारे बलम से मुझे पूरी पाँच सौ ग्राम हमदर्दी है। किस शान से अपने टीनू आनंद ने अगले को ‘शहंशाह’ बनाया। मगर फिल्म राजनीति झटका खा गई.. दो बार! हाय रब्बा ढ़ाई करोड़ लागत की यह गाजर आसमान में ही लटकी रही। सुभाष घई और राहुल रवैल ने ‘सुपर स्टार’ को लेकर फिल्म बनाने का इरादा ही ड्राप कर दिया। इसे ही कहते है कि सोवे गोरी का यार...बलम तरसे...।  

 चुनांचे पाई साहब, चाहे राजनीति का रंग बरसे या भंग बरसे.. अपने अमिताभ का जलवा ही और है। यह आधा किलो सर्फ ही किसी भी दूसरे किलो भर पाऊडर का मुकाबला कर सकता है। एकदम डाबर का च्यवन प्राश दादा जी और बैड मिटन बाद में पहले च्यवन प्राश रहा राजनीति का सवाल सो मुझे डा. बशीर बद्र का शेर याद आता है-
‘यहाँ लिबास की कीमत है, आदमी की नहीं।
मुझे गिलास बड़े दे, शराब कम कर दे।’
  अपने अमिताभ पर कई-कई रंग बरसे है...कई कई बार चुनर भीगी है भीगने दीजिए चुनर होती ही भीगने के लिए है फिर सुख जाएगी. फिर भीगेगी। यह सिलसिला चलता रहेगा मेरे पाठको को और अमिताभ को होली मुबारक।

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