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यह नब्बे के दशक की बात है, सतीश कौशिक उन दिनों भी संघर्ष के दौर से गुजर रहे थे, एक बार फ़िल्माया स्टूडियो में वे किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, मैं वहां अनिल कपूर का इंटरव्यू करने गई थी। जब मैं इंटरव्यू खत्म करके लौटने लगी, तो सतीश कौशिक ने थोड़ा शर्माते हुए कहा, "मायापुरी में सिर्फ अनिल का इंटरव्यू ही छपता है क्या? मैं भी एक एक्टर हूँ जी।" और फिर हम दोनों हंस पड़े थे। मैंने उन्हें पूछा था, बॉलीवुड उन्हें रास आ रही है या नहीं? वे कुछ उदास हो गए थे, थोड़ा सोच कर बोले, "जैसा सोचा था, वैसा नहीं है बॉलीवुड। नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में था तो सोचता था, बॉलीवुड में मेरे जैसे एक्टर की बहुत जरूरत है, ओम पुरी, अनुपम खेर नसीरुद्दीन की तरह मुझे भी सशक्त भूमिकाएं मिलेगी। लेकिन अभी तक वो सपना पूरा नहीं हुआ। कॉमेडी के अवसर तो कई आ रहे हैं लेकिन गंभीर रोल की जरूरत है। अगर मुझे भी सारांश जैसी फ़िल्में मिले तो दर्शक मेरे अभिनय का एक और पहलू देख सकते हैं।" फिर कुछ सोच कर बोले," लेकिन सच कहूँ कॉमेडी भी कोई आसान काम नहीं है।
कॉमेडी वही कर सकता है जिसने जिंदगी के कठिन स्थितियों को झेला है, जो जीवन को समझ सकता है। जो सही टाइमिंग के साथ चल सकता है, भाषा में जिसकी अद्भुत पकड़ हो। मैं आसानी से कॉमेडी कर सकता हूं क्योंकि मैं एक छोटे शहर से आया हूँ और जीवन की त्रासदियों को हंसी हंसी में झेला है।" थोड़ी देर बातचीत करके मैं फ़िल्माया से निकलने लगी तो वे बोले," मैं भी निकलता हूँ, मेरा दांत दर्द हो रहा है, डेंटिस्ट के पास जाना है। " फ़िल्माया के सामने से, उस जमाने में कोई वाहन आसानी से नहीं मिलता था, हम दोनों अलग अलग रिक्शा रोकने में लग गए। तभी मुझे एक रिक्शा मिली , मैंने सतीश जी को कहा कि वे उसमें बैठ कर डॉक्टर के पास जाएं, मैं दूसरा रिक्शा पकड़ लूँगी।
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लेकिन वे बोले, दोनों बैठते है, तुम अँधेरी स्टेशन उतर जाना, मैं रिक्शा घुमा लूँगा। " उस मुलाकात को बरसों बीत गए। वे एक सफ़ल एक्टर और निर्देशक बन गए, और फिर एक दिन उनसे मेरी मुलाकात हो गई, मैंने पूछा," सपने पूरे हुए? " वे बोले थे , " सपने सपने होते है लेकिन मैंने ऐसे ऐसे किरदार किए कि खुद भूल गया कि मैं कौन हूँ, कभी कैलेंडर, कभी मुथुस्वामी, कभी शराफत अली, कभी पप्पू पेजर, कभी रामलाल। दर्शकों ने मुझे इतना प्यार दिया जितना हीरो को मिलता है। किसी ज़माने में महमूद, जॉनी वाकर, भगवान दादा को इतना प्यार मिलता था। उस जमाने में उनका दर्जा किसी हीरो से कम नहीं था। आज भी फ़िल्में स्टीक कॉमेडी पर चलती है, फर्क बस इतना है नायक कॉमेडी करने लगे है, हालांकि कोई उन्हें कॉमेडियन नहीं कहता लेकिन इससे कॉमेडी के एक्टर्स के हिस्से का काम कम हो गया है। " बातचीत के बीच उन्होंने कहा कि वे बतौर निर्देशक अपनी उड़ान से थोड़ा बहुत खुश हैं, वे बोले," बीस फ़िल्मों का निर्देशन करते हुए मैंने अपने अंदर छुपे एक वर्सटाइल एक्टर की प्यास को तृप्त किया है। सच कहूँ तो मुझमे निर्देशन की ईच्छा बचपन से ही थी, जब मैंने फिल्म 'गाईड' देखी थी। गाईड क्या देख लिया मेरे आँखों में एक सपना बैठ गया। मेरे घर का माहौल फिल्मी नहीं था। फ़िल्में देखने की पाबंदी थी, छुपते छुपाते, फ़िल्में देखता था। ऐसे ही एक चोरी चोरी देखी गई फिल्म थी 'गाइड' जिसने मुझे बॉलीवुड में आने की प्रेरणा दी, बॉलीवुड को जानने की प्रेरणा दी और एक निर्देशक बनने के बीज़ बोए। यह अलग बात है कि चोरी छुपे फिल्म देखने के कारण घर पर मेरी अच्छी खासी धुलाई हुई थी, लेकिन आज जब मैं एक निर्देशक और एक्टर के रूप में सफल हो गया तो वो धुलाई वसूल हो गई। " हंसते हुए उन्होंने बात खत्म की थी। मैंने उनसे पूछा था कि वे जीवन को समझने में और कितना आगे बढ़े चुके हैं, तो वे चलते चलते बोले थे," एक बात समझ गया कि सब कुछ एक तरफ और स्वास्थ्य एक तरफ। देवानंद साहब अपने स्वास्थ्य को लेकर बहुत सजग थे, मेरा जिगरी दोस्त अनिल कपूर, अनुपम खेर, अक्षय कुमार, भी स्वास्थ्य को लेकर बहुत अलर्ट है, अब मैंने भी अपने स्वास्थ्य को लेकर संजीदगी बरतना शुरू कर दिया है। वैसे तो मुझे कोई समस्या नहीं है लेकिन फैट थोड़ा घटाना पड़ेगा। उम्मीद है अगली मुलाकात में मेरी स्लिम ट्रिम फोटो मायापुरी में छ्पेगी। "
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उसके बाद मेरी सतीश जी से फिर मुलाकात नहीं हो पाई। उनकी हँसी आज भी कानों में गूँज रही है। जैसा उनका दोस्त अनुपम ने कहा," जाना तो सबको है एक न एक दिन लेकिन इतनी जल्दी और इस तरह अचानक हम सबको छोड़ कर सतीश चला जाएगा, यह सपने में भी नहीं सोचा था।" यही एहसास हम सबको है।
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सतीश कौशिक ( सतीश चंद्र कौशिक)
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