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बेशक हमारे यहां बच्चों को लेकर अच्छी फिल्में नहीं बनती या बनती हैं तो बेहद कम बनती हैं। दूसरे ऐसी फिल्मों में जब जरूरत से ज्यादा प्रयोग करने की कोशिश की जाती है तो परिणाम उल्टा निकलता है। अनुराग बासू ने अपनी फिल्म ‘जग्गा जासूस’ में बच्चों को ध्यान में रखते हुये कहानी बुनी लेकिन डिज्नी द्वारा प्रस्तुत इस फिल्म की लंबाई तथा बोलने की जगह गाते संवाद और कई दर्जन गाने मनोरंजन करने की बजाये बौर करना शुरू कर देते हैं।
जग्गा यानि रणबीर कपूर बचपन में अनाथ था लेकिन उसे एक शख्स शाश्वत चटर्जी गोद ले लेता है। चूंकि जग्गा हकलाता है इसलिये वो बोलने से बचता है। उसके पिता उसे समझाते हैं कि वो अपनी बात अगर गाकर करेगा तो उसका हकलाना बंद हो जायेगा। बाद में ऐसा ही होता है। लेकिन अचानक एक दिन उसके पिता गायब हो जाते हैं। जग्गा जब अपने पिता की तलाश में निकलता है तो उसका साथ एक जर्नलिस्ट कैटरीना कैफ भी देती है। इस तलाश में दोनों को न जाने कितनी दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है लेकिन अंत में वे अपने ऑपरेशन में सफल होते हैं।
अनुराग बासू ने अपने इन्टरव्यू में कहा था कि वे इस बार बच्चों को लेकर कुछ नया करना चाहते थे । उन्होंने कोशिश भी की लेकिन वे आंशिक तौर पर ही सफल हो पाते हैं। फिल्म में बेशुमार कमजोरियां हैं जो शुरू से आखिर तक खटकती रहती हैं । बेशक बच्चों को फैंटेसी पंसद है लेकिन यंहा कुछ ज्यादा ही हो गया। जैसे जग्गा को हकला दिखाने की कोई वजह नहीं बताई गई और वो जब वो हकला कर बोलता है तो मनोरंजन की जगह खीज पैदा होने लगती है। दूसरे वह तो हकलाने की वजह से अपनी बात गाकर कहता है लेकिन दूसरे किरदार भी अपने संवाद कविता के तहत बोलते है। ये कुछ देर के लिये तो ठीक लगता है लेकिन बाद में बौरियत पैदा करने लगता है। प्रीतम ने करीब बीस पच्चीस गाने टुकड़ों में कंपोज किये हैं। फिल्म का कैमरा वर्क कमाल का है। देशी विदेशी लोकेशनों और सेटस पर डिज्नी ने बेतहाशा पैसा खर्च किया है। लेकिन फिल्म न तो बच्चों को आकर्षित करती है न ही बड़ों को।
बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि रणबीर कपूर जैसा बेहतरीन अभिनेता कड़ी मेहनत के बावजूद पिछली फिल्म ‘बर्फी’ वाला करिश्मा नहीं कर पाये बल्कि वे जब हकलाते हुये बोलते हैं तो खीज पैदा होती है। दरअसल इस बार उनका इस्तेमाल सही तरह से नहीं हो पाया। कैटरीना अब लगभग बासी हो चुकी है उसके व्यक्तित्व में अब वो आकर्षण या ताजगी नहीं रही। बाकी शाश्वत चटर्जी और सौरभ शुक्ला आदि आर्टिस्ट बस ठीक ठाक काम कर गये।
अंत में फिल्म को लेकर यही कहा जा सकता है कि नहीं लुभा पाता 'जग्गा जासूस'।