मायापुरी अंक 15.1974
फिल्मी गीतों में सीनिंग या सार्थकता ढूंढना भूसे के ढेर में सुई की तलाश है। अक्सर तो गीत के नाम पर शब्दों की तुकबंदी की जाती है। शायर पहले पहल तो फिल्मी दुनिया में पहुंच कर कुछ उखड़ा-उखड़ा महसूस करते है मगर बाद मैं चांदी की चमक से प्रभावित होकर तुकबंदी करने लगते है। साहिर लुधियानवी पहला फिल्मी शायर है जिसने फिल्मी गीतों को अर्थ दिया। जब अन्य शायर ‘जादूगर सैंया’ छोड़ मेरी बैंया’ लिक रहे थे तब साहिर ने लिखा ‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया।
साहिर जन्म से ही विद्रोही रहा है जिन परिस्थितियों में उसका जन्म हुआ। उनमें वह शायर या लेखक के सिवाय कुछ बन भी नही सकता था। 1922में उसका जन्म हुआ। बचपन में ही उसकी माता साहिर को लेकर अपने पति से अलग हो गई। तब साहिर पर कड़ा पहरा रखा जाता था ताकि बदले की भावना से प्रेरित हो कर साहिर का पिता साहिर को कोई तकलीफ न पहुंचा सके। ऐसी हालत में पल कर साहिर बड़ा हुआ तो उस ने अपना दर्द, अपने जीवने के कड़वे घूंट कविताओं में उड़ेंल दिये। जब लुधियाना से 1943 में साहिर का पहला संग्रह ‘तलखियां’ छपा। तभी से चारों और साहिर की धूम मच गई। शायरों में उसका स्थान बन गया।
1947 में साहिर लाहौर में था हिंदू-मुस्लिम, दंगों से उसके दिल को गहरा आघात पहुंचा। उसने लाहौर में कुछ सरकार-विरोधी लेख लिखे कि सरकार निजी स्वार्थो के लिए साम्प्रदायिकता को भड़का रही है। इस पर पाकिस्तान-सरकार ने उसके खिलाफ वारंट जारी कर दिये तो साहिर भाग कर हिंदुस्तान में आ गया और यहां एक वर्ष दिल्ली में रहकर मुम्बई चला गया। इसी दौरान साहिर साम्प्रदायिकता का और भी पक्का विरोधी बन गया और उसने ‘धूल का फूल’ में एक गीत लिखा
तू हिन्दु बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसना बनेगा।
साहिर रोमांटिक कवि नही है। उसके अपने जीवन में भी रोमांस के लिए कभी कोई स्थान नही रहा। कहते है कि साहिर कभी गायिका सुधा मल्होत्रा की ओर आकृष्ट हुआ था और जब समाज की ओर से इस प्रणय को बढ़ावा न मिल सका तो साहिर की विद्रोही कलम ने लिखा
तुम अगर भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको मैंने तुमसे ही नही सबसे मोहब्बत की है।
जब सुधा मल्होत्रा की एक धनी व्यावसायिक घराने में शादी हो गई तो साहिर पर कुछ दिनों के लिए निराशा का एक दौर भी पड़ा था। उसके बाद से उसके जीवन में रोमांस के लिए कोई स्थान नही रहा। उसने आज तक विवाह नही किया। जब साहिर रोमांटिक गीत लिखता है। तब भी वह समाज के धनी वर्ग पर चुटकी लेने से बाज नही आता। वह अपनी प्रेमिका से ताजमहल पर नही, कही गरीब की झोपड़ी में मिलना चाहता है। उसकी प्रसिद्ध नज्म ताज महल का एक अंश सुनिए
ताज तेरे लिए इक मजहरे उल्फ़त ही सही तुमको इस वादिये-रंगों से अकीदत ही सही मेरी महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे।
साहिर को विश्वास है कि एक दिन ऐसा आएगा जब समाज में दलित वर्ग समाप्त हो जाएगा। निर्धन और धनी की असमानता कम हो जाएगी। साहिर आशावादी शायर है। उसी दिन की आशा में वह कहता है
वो सुबह कभी तो आयेगी इन काली नदियों के सिर से जब रात का आंचल ढलकेगा जब दुख के बादल पिघलेगें जब सुख का सागर छलकेगाजब अम्बर झूमके नाचेगा, जब धरती नगमे गायेगी वो सुबह कभी तो आयेगी।
साहिर अपनी मर्जी का बादशाह है। वह तुकबंदी नही करता। उसने कई फिल्में इसलिए छोड़ दी क्योंकि संगीतकार उससे धुनों पर गीत लिखवाना चाहते थे। इसलिए उसने कुछ इने-गिने संगीतकारों के सात काम किया है जिनमें मदन मोहन (रेलवे प्लेटफॉर्म ओ.पी. नैय्यर (नया दौर) एस.डी.वर्मन (जाल, प्यासा) रोशन (ताजमहल, बाबर, बरसात की रात) और रवि (गुमराह का फूल, आंखे वक्त, हमराज) प्रमुख है। कभी-कभी साहिर के दिल का शायर फिल्मी वातावरण का शिकार हो जाता है तब उसकी कलम “सर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाये’ तथा ‘रेशमी सलवार कुर्ता जाली का’ जैसा गीत निकलता है ? मगर उसी फिल्म में वह ‘ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशा के’ और ‘यहदेश है वीर जवानों का’ जैसे गीत भी लिखेगा।
आज फिल्म-जगत में बहुत-से ऐसे गीतकार है जो यहां-वहां से जमीन उठाकर गीतों को संगीतकार की धुनों पर फिट कर देते है। यह फिल्मी माहौल ही है जहां इमारत पहले बना ली जाती है और नींव बाद में खोदी जाती है। साहिर इस अन्धी दौड़ में पिछड़ गया है और स्वयं को उखड़ा-उखड़ा महसूस कर रहा है। मगर वह सदा शायर ही रहेगा और कभी भी तुकबंदी पर नही उतरेगा।