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वो नन्ही कली कल मुझे एक कविता बन कर मिली

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By Mayapuri Desk
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वो नन्ही कली कल मुझे एक कविता बन कर मिली

वो नन्ही कली कल मुझे एक कविता बन कर मिली. मैंने सोचा था की मेरी आँखें थक गई हैं या हार गई हैं ख़ूबसूरती और खूबसूरत ख्यालों को ढूँढने में, जो मैं किसी ज़माने में होने में मशहूर था.

लेकिन दो महीने पहले एक कैफ़े में एक छोटी सी खूबसूरत सी एक कली मेरे रूबरू हुई ओर मैंने अचानक देखा मेरी वो आँखें जो किसी को परखने में माहिर थी वो फिर जीवित हुई ओर मैं उसे देखता रहा ओर मेरे ख़याल ऐसे आगे बढ़ते गए की मैंने उस कली पर एक लम्बी दास्तान लिख दी ओर उम्मीद की कि वो एक दिन एक मशहूर फूल बन जाएगी.

देखते ही देखते मुझे ओर मेरी आँखों को पता चल गया की वो कली कोई आम कली नहीं थी ओर मैंने उसमें न सिर्फ एक अच्छी अदाकारा देखि जो आगे जा कर एक बहुत बेहतरीन अदाकारा बनेगी बल्कि वो जो भी करेगी आगे वो उसको ऐसे मक़ाम पर पहुंचाएगी जो उसका हक है.
अभी तो वो सीख रही है और आगे आगे यह ज़माना देखेगा की जिस कली को मैंने देखा था वो सब उसको देखने के लिए तरस जाएंगे.
आज वो बिलकुल एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां से वो सिर्फ आगे जा सकती है क्यूंकि पीछे जाना तो उसके भाग्य में लिखा ही नहीं है.
कल रात इस कली ने मुझे ऐसा चौंका दिया की मैं अभी तक अपने आप को संभाल नहीं पा रहा हूँ. वो कली एक कवी बन कर मेरे सामने आई और जब मैंने उसकी कविता पढ़ी तो मैं बस पढता गया ओर अभी भी पढ़ रहा हूँ और ऐसा लगता है की जिंदगी भर पढता रहूँगा.
ओर यह सुनिये, जानिये और मानिये की एक छोटी सी कली का मन कैसे जीता है आज कल के इस धुंधले से और डरावने से माहोल में.

शहर 

आरती मिश्रा

वो नन्ही कली कल मुझे एक कविता बन कर मिली

ऐसे ही अचानक घूम रही थी सड़कों पर. कोई ऐसी वेसी सड़कें नहीं. मुंबई की सड़कों पर. बहुत भीड़ है आस पास, इतनी भीड़ की इस भीड़ में तुम खुद को खो दो और ढूंढ ही ना पाओ. बहुत शोर है, इतना शोर की पास खड़े हुए दोस्त की आवाज़ तक ना सुन पाओ. जिधर भी नज़र घुमाओ, लोग ही लोग, रफ़्तार भरी दुनिया. इस भीड़ में हर कोई अकेला है.
मैं एक बहुत ही छोटे शेहर से आती हूँ. वहां भी भीड़ है मगर भीड़ ऐसी की खुद को तुम उसमें ढूंढ पाओ. वहां भी शोर है मगर ऐसा की एक दुसरे की आवाज़ सुन पाओ.

वहां एक सुकून है.

मगर यहाँ के शोर में एक अजीब सी ख़ामोशी है. ऐसी ख़ामोशी जो तुम्हारे दिल को चीर के निकल जाए. इस शोर में कितनी आवाज़ें दब के रह जाती हैं, खामोश हो जाती हैं. सिग्नल पे फूल बेचते हुए बच्चे की मन की आवाज़, फूटपाथ पे लेटे हुए परिवार के दिल की आवाज़, सड़क पे घुमते एक भूखे के पेट की आवाज़. यह सब आवाजें ख़ामोशियाँ बन गई हैं इस शोर में.

यह सब लोग गुम हो गए हैं इस भीड़ में. मैं भी तो भीड़ का हिस्सा ही हूँ. इस भीड़ में यह ख़याल आते है मुझे.

अक्सर सोचा करती हूँ...
मैं हूँ कौन.
क्या मैं वो हूँ
जो आज हूँ या वो जो कल थी
वो जो समय से परे हूँ
या वो जो समय के दायरे में हूँ
या फ़िर दोनों ही...
मैं हूँ कौन
वो जो अभी तेरी आँखों का नज़ारा हूँ
या वो जो अभी किसी ओर के ख्यालों का कारण हूँ
या फ़िर दोनों ही...
मैं हूँ कौन
वो जो काफ़ी हूँ खुद के साथ
या वो जो अकेली हूँ भीड़ के साथ
या फ़िर दोनों ही...
मैं हूँ कौन
वो जो एक आशिक का इश्क हूँ
या वो जो एक हारे हुए का इंतेक़ाम हूँ
या फ़िर दोनों ही...
फ़िर सोचती हूँ
अरे फिलहाल यह कौन है जो खुद की तलाश में है...
दिल के अंदर से निकल रही चीखें कहाँ सुनाई देंगी इस शोर में. कौन सुनेगा इन्हें?
हाँ एक है जो सुन सकता है.
वो है मैं खुद.
हाँ, इस भीड़ में सिर्फ एक मैं ही हूँ जो खुद क लिए हूँ, खुद की आवाज़ सुन सकती हूँ.

वो नन्ही कली कल मुझे एक कविता बन कर मिली

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