मैंने ताउम्र अनुपम खेर को रंग बदलने वाले गिरगिट की तरह ही जाना है, गिरगिट ही बुलाया है। और उन्होंने ये कई बार साबित भी किया है कि वो एक ऐसे गिरगिट हैं जिन्होंने अपने रंग किसी भी और गिरगिट से ज़्यादा बार बदले हैं। लेकिन मैंने उनका एक ऐसा अमेजिंग रंग बहुत करीब से देखा है जो उनका बच्चों के प्रति है और उनकी ज़िंदगी में उनसे जुड़े, सालों से काम करते लोगों/दोस्तों के लिए है।
एक समय था जब वह खेरवाड़ी के सलम्स में - जो बांद्रा पूर्व में स्थित है – रहते थे। वहाँ एक कमरे में अनुपम के अलावा तीन और लोग हुआ करते थे और वो चारों मात्र 13 किराया मिलकर देते थे, ज़ाहिर है वो किराया अनुपम अकेले अफोर्ड नहीं कर सकते थे। अनुपम तब पूरा-पूरा दिन काम की तलाश में भटकते थे और शाम को झुग्गी के बच्चों को पाँच रुपये फीस पर पढ़ाया करते थे और मुसीबत ये थी कि वो पाँच रुपये भी उन्हें समय पर नहीं मिलते थे। लेकिन एक बात अनुपम में अलग थी कि वो अपने पूरे पैशन के साथ स्ट्रगल करते थे, उन्होंने हार न मानने की मानों कसम खाई हुई थी। लेकिन साथ ही उन्हें उन बच्चों को पढ़ाना भी बहुत अच्छा लगता था और वो एक शिक्षक होने के नाते अपनी जिम्मेदारी को बहुत गंभीरता से लेते थे। अनुपम को बच्चों के साथ समय बिताना, उन्हें बड़े होते देखना बहुत अच्छा लगता था। फिर वो स्टार बन गए लेकिन उन्होंने बच्चों से कान्टैक्ट बनाए रखा। हालांकि वो ‘खेर’वाड़ी (नहीं नहीं, ये नाम उनके नाम पर नहीं रखा गया है) में रहते नहीं थे पर बच्चे भी उन्हें वैसे प्यार करते थे और उन्हें उन टीचर्स से बहुत बेहतर मानते थे जो पढ़ाने को एक बोझ की तरह समझते थे
अनुपम तब एक स्टार हो चुके थे और मर्मैड नामक बिल्डिंग में – जो जुहू बीच के पास है – रहते थे और एक दिन में दो से तीन शिफ्टस की शूटिंग किया करते थे। वह इतने बिज़ी रहते थे कि उनके पास और किसी भी काम को करने के लिए एक मिनट भी नहीं निकल पाता था।
एक सुबह जब वो मर्मैड के बाहर अपने अपनी गाड़ी से निकले तो उन्होंने हैरानी से देखा कि अपंग बच्चों के लिए एक स्कूल खुला है जिसका नाम दिलखुश स्कूल ऑफ फिसिकली चैलेंजड है। उन्होंने फिर अचानक एक फैसला लिया और स्कूल के अंदर चले गए, वहाँ की नन्स से मिले और उनके सामने बच्चों से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। नन ये सुनकर पहुँच खुश हुई और अनुपम खेर को अपने टीचिंग स्टाफ में जोड़कर उन्हें बहुत अच्छा लगा। फिर ये तय हुआ कि अनुपम हर बुद्धवार को यहाँ आयेंगे और बच्चों से मिलेंगे।
ये ‘मिस्टर खेर’ की ज़िंदगी के कुछ बेहतर तजुर्बों की शुरुआत थी (मैं जब उन्हें पहली बार पृथ्वी थिएटर में मिला था तो इसी नाम से पुकारा था, तबसे इसी नाम से पुकारता हूँ, कैसे कैसे कितने साल बीत गए मेरे दोस्त मिस्टर खेर)। अनुपम ने अपने बिज़ी शेड्यूल में से हर संभव तरीके से समय निकाला और अपने वादे पर खरे उतरे और हर बुद्धवार दिलखुश स्कूल के बच्चों से जितना ज़्यादा हो सके समय निकालकर मिलते रहे। उन बच्चों और अनुपम के बीच एक अच्छा रिश्ता स्थापित हो गया। वहाँ जो नन्स थीं वो ज़्यादातर स्पैनिश थीं, वह काफी समय से दिव्यान्ग बच्चों के लिए भारत के हर कोने में स्कूल खोल रही थीं। तो वहाँ का स्टाफ, टीचर्स और खासकर वो छोटे बच्चे हर बुद्धवार का इंतज़ार किसी फेस्टिवल की तरह कर रहे होते थे कि अनुपम आयेंगे और उनसे मिलेंगे।
मैंने अनुपम को बच्चों के साथ खेलते, बात करते देखा है कि कैसे वो बच्चों का बहुत ख्याल रखते हैं। उनकी केयर करते हैं और कहते हैं “दिल तो बच्चा है जी” और सालों बाद भी उनका बच्चों के प्रति यही रवैया है।
मेरा एक ज़ाती तजुर्बा भी है उनके साथ कि उनके दिल में बच्चों के लिए कितना प्यार भर है। मेरी बेटी स्वाती, अपनी स्कूलिंग पूरी कर चुकी थी और छुट्टियों के दौरान कुछ कारगर करना चाहती थी, कुछ सीखना चाहती थी। उसने मुझे बताया कि वो कॉलेज खत्म होने के बाद फिल्म लाइन में करिअर बनाना चाहती है। तब वो सोलह साल की थी। मैंने उसके बारे में अनुपम को बताया, उन्होंने तब अपनी एक कंपनी शुरु ही की थी जो टीवी सिरियल्स और इवेंट्स का काम करती थी। उन्होंने तब बिना समय गँवाए स्वाती से कहा कि वो उनकी कंपनी जॉइन कर ले जिसका ऑफिस अंधेरी वेस्ट की एक हाउसिंग बोर्ड बिल्डिंग के ग्राउन्ड फ्लोर पर था। अनुपम ने स्वाती को बहुत प्रोत्साहित किया और खुद उसकी प्रोग्रेस पर ध्यान दिया और आज, स्वाती खुद एक कंटेन्ट और कम्यूनिकेशन का इंस्टीट्यूट बन चुकी है। उसने अमेरिका में एक फिल्म बनाई जिसका नाम था “वी द पीपल” और अब वापस एक कंटेन्ट क्रेयटिंग कॉम्पनी की हेड बन चुकी है। मुझे लगता है उसकी तरक्की का बहुत बड़ा श्रेय ‘मिस्टर अनुपम’ को जाता है जो अब भी उसको याद रखते हैं और जब भी मुझसे मिलते हैं मुझसे उसके बारे में हाल-चाल, अब वो कितनी तरक्की कर चुकी है’ आदि जानकारी लेते रहते हैं।
अनुपम के पास एक ड्राइवर था जिसका नाम था “शेख”। शेख अनुपम को “माय डैडी” कहा करता था और अपने पर्स में उनकी फोटो भी रखता था। उसी पर्स में वो अपनी मुहब्बत जूली की भी फोटो रखता था जो ईसाई थी और फिलिपिंस में नर्स थी। अनुपम को जब पता चला कि दो प्रेमी इतने दूर रहते हैं तो उन्होंने शेख को एक फ्लैट दिला दिया। शेख और जूली ने शादी कर ली। फिर अचानक शेख की ख्वाहिशें हद से बाहर होने लगीं और वो अनुपम को ब्लैकमेल करने लगा और वहीं उन दोनों का मालिक नौकर की बजाए दोस्ताना रिश्ता खत्म हो गया जो एक वक़्त बहुत पर्सनल हो गया था, क्यों? क्योंकि अनुपम खेर का दिल बहुत बड़ा है।
अनुपम के बारे में ऐसी बहुत सी कहानियाँ है जहां उन्होंने अपने स्टाफ या बच्चों के प्रति अपना बड़ा दिल दिखाया है लेकिन उनमें बेस्ट स्टोरी उनके असोसीएट दत्तू की है, जो उनके साथ पिछले 35 साल से है, जिसे वाकई उन्होंने एक बच्चे की तरह गोद लेकर उसे पढ़ाया, शादी करवाई और काबिल बनाया और अनुपम वही इंटेरेस्ट उसके बच्चे को लेकर भी रखते हैं।
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