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स्कूल में हर कोई रेस में भागता है। तरह तरह की रेस। मगर हर एक रेस में एक बात कॉमन होती है कि हर रेस में स्टार्टिंग लाइन से दूर भागना होता है। बहुत रेसेस में भागे हैं हम। तब भी भागते थे और आज भी भाग रहे हैं। मगर फर्क यह है कि अब स्टार्टिंग लाइन कि जगह पे कोई लाइन नहीं है बल्कि कोई वहां पर खड़ा है। वो ‘कोई’ है कोन? वो हूं ‘मैं’। हाँ, हम खुद खड़े हैं उस लाइन पे। और अब रेस में हम खुद से ही दूर भाग रहे हैं। रोज़ ही भागते हैं। रात को भागते हैं। दिन में भागते हैं। हम खुद का सामना नहीं करना चाहते। खुद के सवालों का सामना नहीं करना चाहते। इसी वजह से हम अकेले नहीं रह पाते।
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Aarti Mishraकल रात को 1 बजे के आस पास मुझे बहुत अकेला महसूस हुआ। ऐसा लगा खुद से अलग हो जाऊं। तो क्या… बस एक दोस्त को फ़ोन लगाया और वो उसी वक़्त हाज़िर हो गया और हम यूँ ही टहलने निकल गए। बहुत अच्छा लगा उस वक़्त। क्यों अच्छा लगा? क्यूंकि उस वक़्त मैं खुद से अलग थी। हाँ मैं जानती हूँ। मैंने अपने दोस्त को बोला “मैं बोर हो रही हूँ तो इसलिए तू आजा”, अब अगर खुद से सवाल करूं कि बोर क्यों हो रही थी तो उसका ज़वाब यह मिलेगा कि खुद का साथ मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं को मैं ही बोर लगती हूं। अजीब बात है ना। बचपन में कैसे एक बच्चा अपने आप में ही खेलता रहता है। उसे किसी से कोई मतलब नहीं होता। मगर जैसे-जैसे बड़े होते हैं तब खुद से बोर होने लगते हैं और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से मिलने कि कोशिश में लगे रहते हैं। दोस्तों के साथ घूमने में लगे रहते हैं। जिसे आज कल कि भाषा में ‘सोशलाइजिंग’ कहते हैं। घूमने का कोई मकसद नहीं होता मगर फ़िर भी घुमते हैं। यह सब अलग अलग तरीक़े हैं खुद से दूर भागने के।
खुद के साथ चल रही उलझनों का हल उसी वक़्त मिल जाएगा जिस दिन हम खुद के साथ रहना सीख जाएंगे। दूसरों कि बातें बहुत सुन ली जब खुद को सुनने लग जाएंगे तो जिंदगी आसान हो जाएगी। दूसरों के साथ बहुत चले गए कॉफ़ी पर, अब कभी खुद के साथ भी जाओ।
यह वादा है मेरा कि खुद के साथ डेट पे जा कर आपको खुद से ही इश्क हो जाएगा।
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