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हिन्दी सिनेमा को बौद्धिक स्तर पर सार्थकता देने वाले, मानवीय संवेदनओं के पुजारी तथा नारी पुरूष के संबंधों को नई आस्था और रोश्नी से तोलने वाले विद्रोही, विप्लवी सिनेमाकार, कवि, लेखक, पत्रकार बासु भट्टाचार्या जी की पुण्यतिथि पर हम आपको उनकी मृत्यु पर उनके दोस्त, साथी और करीबी कलाकार, स्टार, मित्र द्वारा दिए गए गमगीन बयान के बारे में बताते है. सबके पास इस विभूतिके लिए श्रद्धा सुमन है और है एक यादगार अनुभव जो मैं यहां पेश करती हूं.
बासु चटर्जी:
पिछले कुछ समय पहले से बीमार पड़े थे. हम सब को विश्वास था कि जुझारू दिल दिमाग का यह कभी ना हारने वाला इंसान जल्दी ठीक हो जायेगा. परन्तु इस अंतिम लड़ाई में न जाने कहां चूक गया बासु. बीमारी के दौरान मैं कई बार मिलने गया था बासु से . हर बार वह बोला था, 'दुआ कीजिए कि मैं जल्दी घर लौट जाऊँ.' 'मेरे ख्याल से उनकी तरह दिलेर, खुद्दार इंसान फिल्म इंडस्ट्री में बहुत कम हैं.
गुलजारः
मेरे और बासु दा के बीच जो पैंतीस वर्षो की लंबी दोस्ती, और हृदय जनित संबंध की गहराई थी वह इन श्रद्धा की चन्द पंक्तियों में साकार करना मुश्किल है. हृदय में भारी खालीपन और शून्यता का एहसास हो रहा है. वे हमेशा एक गुरू की तरह मुझे सही गलत की पहचान कराते रहते थे. मैं अब सोच भी नहीं पा रहा हूं कि बासु दा के बिना यह इंडस्ट्री मुझे कैसी लगेगी. कहां से मिलेगी प्रेरणा हमारे सार्थक सिनेमा को?
राजेश खन्नाः
बासु दा के असमय निधन की खबर पाते ही मन आश्चर्य, गम, अविश्वास से भ गया. कैसे जा सकते हैं इतनी जल्दी दादा, जो खुद काफी मक्कम, दृढ़ निश्चयी और जीवट थे? चूंकि मैं फिल्म 'आविष्कार' के दौरान बहुत व्यस्त स्टार था और उनकी यह फिल्म स्वीकार नहीं कर पा रहा था अतः उन्होंने मुझे रास्ता सुझाते हुये कहा कि दिन भर चाहे मैं कहीं और शूटिंग कर लूं पर रात को उनकी फिल्म में काम करूं. उनके इस कला, हठ से मैं दंग रह गया था.' आविष्कार' की शूटिंग रात को होती रही. ऐसे कला के पुजारी को मेरा शत शत प्रणाम.
सुनील दत्त:
ऐसा लग रहा है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री खाली होती जा रही है विचारशील, सार्थक फिल्म मेकर से. बासुदा से मेरी मित्रता पुरानी है. जीवन के शुरूआती दौर में वे भी एक पत्रकार थे और मैं भी एक पत्रकार था, 'हिन्दुस्तान टाइम्स' और 'इंडियन एक्सप्रैस' में उन्होंने काफी कुछ लिखा. असल में वे एक संवेदनशील कवि और लेखक थे. जब भी हमारे बीच साहित्य, कला और फिल्म की बातें उठती तो वे कहते थे, 'भले ही मैं आत्मा से एक कवि हूं, लेखक हूं लेकिन भारत के कोने कोने, गांव गांव में अपनी बात पहुंचाने के लिए फिल्म से बढ़िया कोई माध्यम नहीं. फिल्म तो वह माध्यम है जो बिना पढ़े लिखे भी लोगों के हृदय में उतर बसता है. ऐसी गहरी बातें अब कौन सुनायेगा.
अमोल पालेकरः
बहुमुखी प्रतिभा के धनी बासुदा अपने मन की बात अपने विचार, फिल्मों के जरिये व्यक्त करते थे. उनकी यह फिल्में नई चेतना, अनुभूति और नई दिशाओं की ओर राह दिखाती है. कई बार बहस का मुद्दा भी बनी उनकी फिल्में, विवादास्पद भी, परन्तु उन्होंने कभी हार नहीं मानी, विद्रोह से भरे, वे समाज और स्त्री पुरूष के रिश्ते को नये मायने और दृष्टिकोण से परखते रहे. परंपरा में बंधे परन्तु गलत परंपराओं के विरोधी इन सब के बीच वे फिल्म भी बनाते रहे और कई संस्थाओं से जुड़े भी रहे जैसे इफडा.
ओमपुरी:
बासु दा से मेरा परिचय बहुत पुराना रहा है. हालांकि शुरू के दिनों में उन्होंने मुझे अपनी फिल्म में नहीं लिया परन्तु इस से हमारी प्रगाढ़ता में कोई कमी नहीं आई. हम घंटो उनके हरी हरी टैरेस पर बैठे दुनिया जहां की बातें करते थे मैं उन्हें अपनी समस्यायें बताता और वे मुझे. उनसे हर मुलाकात मुझे बौद्धिक आनन्द से भर देती थी, 'आस्था' में उन्होंने मुझे लिया. जब भी किसी ने 'आस्था' के कुछ विवादास्पद दृश्यों की आलोचना की तो वे मुझे बोले' मेरी सोच की गहराई को शायद आज लोग पचा नहीं पा रहे है परन्तु आखिर इस हकीकत को लोग स्वीकारेंगे जरूर.' उनकी बीमारी के दौरान उनसे मिलने गया तो अस्पताल में किसी नन्हें बच्चे की तरह मचल उठे थे, 'ओम, डाॅक्टर से कहो यह टयूब वगैरह हटाये, मुझे घर जाना है. अब और नहीं कह पा रहा हूं, मेरा दिल भरा जा रहा है.
शर्मिला टैगोर:
मैंने सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि ऐसा दिन भी आयेगा जब मुझे यह दुखद समाचार मिलेगा. उनकी फिल्मों में काम करते हुए मुझे रचनात्मक सुख मिलता था. अपनी व्यस्तता के बावजूद वे इंडियन फिल्म डायरेक्टर एसोसियशन में मुस्तैदी से जुड़े थे. फिल्म सोसाइटी आंदोलन में उनका योगदान, भुलाया नहीं जा सकता. 'इफडा' में उन्होंने फिल्म स्कूल भी शुरू किया था. इसके अलावा वे कई सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़े थे जैसे इंडियन कल्चरल सोसाइटी, यह संस्थायें कई स्कूल और काॅलेज भी चलाती है. उनके साथ काम करते हुए हर पल मैंने कुछ सीखा ही है.
रेखाः
बासुदा के साथ काम करते हुए मैंने कई तरह के अनुभवों को सहेजा है. मेरी तरह उन्हें भी बागवानी का शौक था, उके बालकनी में तरह तरह के खूबसूरत पौधे एक कवि की संवेदनाओं को प्रकट करती नजर आती है. अपने हाथों से वे इन पौधों को खाद पानी डालते थे. फिल्म 'आस्था' में उनके इस हरे भरे बगिया की विशिष्ट झलक दर्शकों को जरूर मिलेगी. उन्होंने कभी भी आम मसालेदार फिल्म बनाने में रूचि नहीं ली फिल्मों के मुख्य मार्ग से अलग उन्होंने अपनी अलग राह चुनी वे उन फिल्मकारों से दुखी थे जो गलत तरीके से कमाये पैसों पर गलत फिल्में बनाकर गलत ढंग से पैसा कमाने की होड़ में लगे रहते हैं.
संजना कपूर:
मैंने उन्हें बहुत करीब से जाना है. अपने बारे में, अपने बचपन, शुरूआती कैरियर के दौर के बारे में मुझे वे हमेशा बताते थे. 1934 में मुर्शिदाबाद में उनका जन्म हुआ था. और बेहरामपुर में पढ़ाई हुई. सोलह वर्ष की उम्र से वे पत्रकारिता करने लगे थे. फिर फिल्मों का शौक सत्यजीत राय की फिल्में देखकर लगा तो वे बिमल राय के सहायक बन गये. फिर 1966 में स्वतंत्र रूप से पहली फिल्म 'तीसरी कसम' बनाई. राजकपूर जी इस फिल्म के हीरो थे, सुना है वे हमेशा दोपहर की शूटिंग पसन्द करते थे परन्तु पापा जी (बासु भट्टाचार्या) ने न जाने किस तरह बहला मना कर सुबह छः बजे राज जी को बुलवा कर सूर्योदय का शाॅट लिया . आज तक जितनी फिल्में उन्होंने बनाई, सबकी कहानी उनकी अपनी थी 'अनुभव' से आस्था' तक. वे हर उम्र' हर तरह के लोगों से दुनिया जहां की बातें कर लेते उनके घर में मौजूद हर वस्तु के पीछे कोई न कोई कहानी है.
दीप्ति नवल:
बहुत ही जिन्दादिल स्वभाव के थे बासु दा. वे गलत रूढ़ियों को नहीं मानते थे परन्तु अपनी परंपराओं से जुड़े थे. फिल्म 'पंचवटी' के मेकर के रूप में जब कैनेडा से उन्हें सम्मान के लिए युनिट के साथ आंमत्रित किया गया तो वे खुद धोती कुर्ता में वहां गये और सारे पुरूष कलाकारों को भी धोती कुर्ता पहनने को कहा. वे अपने स्वतन्त्र विचार और स्वतन्त्र तर्क को लेकर हर फिल्म रचते रहे. अपनी पहली फिल्म 'तीसरी कसम' के साथ ही राष्ट्रपति स्वर्ण पदक हासिल करना क्या मामूली बात है.
सुलेनाः
बासु चटर्जी दुनिया के लिए बासु दा थे पर मैं उन्हें काकू कह कर संबोधित करती थी उन्होंने मुझे अपने सैट पर हमेशा निमंत्रित किया परन्तु इंटरव्यू के नाम से बिदक कर कहते थे, धुत, इत्ती से लड़की को इंटरव्यू दे कर मुझे अपने शब्दों का गुड़गोबर नहीं करना है. हमारा जमाना और था जब हम छोटी उम्र में भी गंभीर पत्रकारिता करते थे पर आजकल के पत्रकार-हरि बोल.
फिल्म 'तीसरी कसम' के बाद उन्होंने 'आविष्कार' 'तीसरा पत्थर''अनुभव' 'तुम्हारा कल्लू' 'ग्रहप्रवेश' 'पंचवटी' 'राख' 'आस्था' का निर्माण निर्देशन किया. इनमें 'तुम्हारा कल्लू' 'तीसरा पत्थर' 'आनन्द महल' 'असमाप्त' 'कविता' 'आखिरी डाकू' 'मधुमालती' प्रदर्शित नहीं हो सकी.
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