संपादकीय
ज्यों ज्यों 2019 के लोकसभा चुनावों की तारीख नजदीक आ रही हैं, पूरे देश के राजनैतिक माहौल से बॉलीवुड भी इत्तेफाक रखता दिखाई दे रहा है। फिल्में एक दिन में नहीं बनती, जाहिर है चुनाव के मुद्दे पर नजर हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की पहले से चाकचौबंद रही है कि जैसे ही चुनाव सामने आये, राजनायिकों के जीवन पर बनाई गई फिल्में थिएटरों तक पहुंचा दी जाए! ‘एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर’ इस प्रयास की पहली असफल कोशिश रही है। अब, ठाकरे (बालासाहब ठाकरे) और मोदी (प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी) की बायोपिक फिल्में कितनी सफल होती हैं और देश की जनता पर कितना असर करती हैं, यह देखने वाली बात बनकर सामने आने वाली है।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के जीवन की फिल्म ‘एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर’ एक खास पार्टी को नुकसान पहुचाने की फिल्म का रिजल्ट बॉक्स ऑफिस पर लोगों ने देख लिया है। अनुपम खेर इस फिल्म में मनमोहन सिंह को कितना ‘पपेट’ के रूप में पेश किया गया है और राहुल गांधी की कितनी खिल्ली उड़ाई गयी है।
बतर्ज 2009 के इलेक्शन (‘यह इलेक्शन राहुल के बस का नहीं है’ जैसे संवाद से सुशोभित) यह बात दर्शकों के दिमाग को पलट पायी है, इसमें संदेह है। कुछ ऐसा ही रिव्यू फिल्म के सभ्रांत वर्ग में मराठा सुप्रिमो बाला साहब ठाकरे की बायोपिक फिल्म ‘ठाकरे’ को लेकर है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी को ठाकरे बनने की प्रसिद्धी पहले ही मिल चुकी है। किन्तु क्या फिल्म के निर्माता (शिवसेना सांसद संजय राउत) और ठाकरे-पुत्र शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे को यह फिल्म वोट बैंक बढ़ाने में मदद करेगी? और, यही सवाल लोकसभा चुनाव से पहले प्रदर्शित होने वाली प्रधानमंत्री मोदी की बायोपिक फिल्म को लेकर है। मोदी बने विवेक ओबेरॉय का वोट बैलेट पेपर पर जनता का वोट बनकर छाप छोड़ेगा यह भी सोचने वाला विषय है। फिल्म ‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक’ में प्रधानमंत्री के करेक्टर को कितना माइलेज असली जिंदगी में मिलता है, यह बात भी मौसमी बुखार में एंटिबायटिक गोली खाने जैसा ही है।
निश्चय ही ‘एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर’ से सिनेमा के पर्दे पर राजनायिकों को उतारने की एक शुरूआत हुई है। किन्तु निष्पक्षता ने एक सवाल खड़ा कर दिया है ऐसी फिल्में बनाये जाने के औचित्य पर। दक्षिण में ‘एन टी आर’ पर और ‘जयललिता’ पर फिल्में असर दिखाती हैं तो कहा जाएगा कि वहां की ऑडियंस सिनेमा स्टारों को भगवान मानती रही है। रजनीकांत और कमल हासन अपनी राजनैतिक पार्टी को मजबूत जमीन देने में (अब तक तो) नाकाम ही कहे जा रहे हैं। सो, हिन्दी बेल्ट में किसी ठाकरे की सोच को स्थापित करने की बात कितनी असरदार होगी और उनसे जुड़ी पार्टी का कितना वोट बढ़ायेगी, वक्त ही बतायेगा। हम तो यही कहेंगे- ये भी फिल्मी बुखार है...और कुछ भी नहीं।
- संपादक