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दिखने लगी है ‘मायापुरी’ की संपादकीय पर पहल... तो फिर सेंसर बोर्ड की आवश्यकता क्या है?

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By Sharad Rai
दिखने लगी है ‘मायापुरी’ की संपादकीय पर पहल...  तो फिर सेंसर बोर्ड की आवश्यकता क्या है?
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केन्द्रीय संसदीय कार्य मंत्री श्री विजय गोयल ने एक दैनिक पत्र में सेंसर बोर्ड को लेकर अपना जो क्षोभ व्यक्त किया है, यही पहल कराने के लिए आपकी पत्रिका ‘मायापुरी’ ने दो सालों से लिखना शुरू किया हुआ है। दो साल पूर्व हमने वही बात कही थी अपनी संपादकीय में- ‘क्या सेंसर को कैंसर हो गया है?’ फिर, हमारी बात से सहमत होने वालों का एक सिलसिला चल पड़ा। हमने कम से कम बीस फिल्मों का उदाहरण देकर कहा था कि सेंसर बोर्ड कहां-कहां भटकता रहा है। श्री पहलाज निहलानी (पूर्ण सेंसर प्रमुख) के समय हमने जो सवाल उठाये थे और समाधान बताये थे, श्याम बेनेगल समिति में करीब करीब वही सब कुछ था। पहलाज जी के जाने और वर्तमान सेंसर प्रमुख प्रसून जोशी के दौर में भी ‘मायापुरी’ ने वही कहा है जो माननीय मंत्री जी कह रहे हैं

हमारे पाठक जानते हैं कि पिछले दिनों रिलीज फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ को लेकर हमने क्या कुछ नहीं लिखा। ‘वूमंस इम्पॉवरमेंट’ की नैतिकता का ध्यान रखते हुए भी हमने समय-समय पर चेताया है। हमारी संपादकीय रही है ‘वेलकम टू सैनेटरी नैपकिन कल्चर’, ‘पैड’, ‘पीरियड’ और ‘पर्दे पर मास्टबेशन’। बेशक समय के साथ सबकी जरूरत है जिसका हम विकासोन्नत स्वरूप में सम्मान करते हैं। मगर उसकी प्रेजेन्टेशन को लेकर क्या सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी और नहीं बढ़ जाती ? हम यही कहना चाहते हैं और कहते रहे हैं कि ‘सेंसर’ बोर्ड जिस उद्देश्य से गठित किया गया था- हम उससे हटकर कुछ और कर रहे हैं जहां ना कोई पॉलिसी समझ आती है ना कोई सोच समझ में आती है। ‘वीरे दी वेडिंग’ पर हमारी संपादकीय के समर्थन में बाम्बे हाईकोर्ट के वकील और सोशल दुनिया के लोग सामने आये हैं। vijay goel

हमने सुझाव भी दिया था (मायापुरी संपादकीय अंक 2280) कि दादी और पोती को एक साथ फिल्म देखने के लिए सर्टिफिकेट का रिमार्क मायने रखता है। एडल्ट केटेगरी में दादी और व्यस्क पोती दोनों आती हैं मगर पर्दे पर ‘मास्टबेशन’ एक साथ नहीं देख सकती। उसके लिए ‘।’ के साथ ‘ग्’ का इंडिकेशन होना ही चाहिए। हम कहते आये हैं कि हर केटेगरी का डिटेल उल्लेख देना सेंसर की जिम्मेदारी है, वैसे ही जैसे शराब और सिगरेट दृश्यों के लिए शब्दावली लिख कर साथ में आती है। तब, अपने विवेक से जिसे नहीं देखना होगा आंखें बंद कर लेगा। यही तर्क गालियों पर नहीं लागू होगा। कहीं शब्द ‘साला’, ‘कमीना’ को गाली की केटेगरी में रखकर सेंसर बोर्ड अड़ जाता है तो कहीं वही शब्द गीत के बोल और फिल्म के टाइटल बनकर बहुप्रचारित किए जाते हैं। कभी फिल्म ‘आंधी’ (1975) में हीरोइन के द्वारा शराब-सिगरेट सेवन करने पर फिल्म को बैन कर दिया गया था (हीरोइन स्व. इंदिरा गांधी के रूप में दर्शाई गई थी), अब ‘वीरे दी वेडिंग’ में देखिये संस्कार बचाने के लिए क्या बचा है? शराब-सिगरेट, डबल मीनिंग डायलॉग (अपना हाथ जगन्नाथ) और मैथुन क्रिया, वो भी पति की नजर के सामने जायज है। अरे, सोचो जरा हम कहां जा रहे हैं? क्या अब भी आप कहेंगे कि सेंसर बोर्ड की आवश्यकता है?

 - संपादक

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