जीतेन्द्र ने एच.एस.रवैल की 'मेरे महबूब' फिल्म को तब देखा था जब वह एक युवा थे और इस फिल्म पर इतने मोहित थे कि उन्होंने इसे कई बार देखा था और इसी तरह और उसी निर्देशक के साथ बनाई गई फिल्म का हिस्सा होने की उम्मीद की थी। अली पीटर जॉन
वह जल्द ही एक प्रमुख स्टार बन गए थे और उन्होंने अपना बैनर, ‘तिरुपति फिल्म्स’ स्थापित किया था।
उन्होंने और उनके भाई प्रसन कपूर ने इस बैनर के तहत कई फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें से अधिकांश हिट थीं।
जब उन्होंने अपने बैनर की स्थापना की थी तब उन्होंने 'मेरे महबूब' जैसी फिल्म बनाने के अपने सपने को भी याद किया था।
उन्होंने अपने बैनर के तहत 'मेरे महबूब' जैसी फिल्म बनाने के लिए एच.एस.रवैल से संपर्क किया और रवैल सहमत हो गए और उन्हें उनके द्वारा लिखित एक स्क्रिप्ट मिली और जाने-माने लेखक डॉ.राही मासूम रज़ा और फिल्म का नाम 'दीदार ए यार' था, जो एक मुस्लिम बैकग्राउंड के खिलाफ बताई गई एक प्रेम कहानी थी। इसमें जीतेंद्र, रेखा, टीना मुनीम और अशोक कुमार की मुख्य भूमिकाएँ थीं। साहिर लुधियानवी सहित अच्छे कवियों ने काव्य गीत लिखे, जो लक्ष्मीकांत प्यारेलाल द्वारा टयून किए गए थे और इसमें जी.सिंह थे, जो एक छायाकार थे, जिन्होंने ‘मेरे महबूब’ और अन्य महंगी और विदेशी फिल्मों में भी काम किया था।
फिल्मों के हिट होने को लेकर जीतेन्द्र को बहुत उम्मीद थी और इंडस्ट्री भी इसे लेकर उत्साहित थी।
रिलीज के दिन जैसे-जैसे जीतेंद्र की उम्मीदें बढ़ती गईं, उन्होंने उम्मीद की कि सिनेमा में शुरुआती दिनो में भारी भीड़ होगी जिसके चलते यहां तक कि मुंबई और अन्य प्रमुख शहरों में हर थिएटर के बाहर पुलिसकर्मी लगाए जाएंगे।
रिलीज की सुबह, जीतेंद्र और उनकी टीम लोगों की प्रतिक्रियाओं की तलाश में रही। और जब वे सिनेमाघरों में घूमने गए, तो जीतेन्द्र यह देखकर हैरान रह गए कि सिनेमाघरों के बाहर एकमात्र भीड़ पुलिसकर्मियों की थी, जिन्हें सिनेमाघरों के बाहर जगह बनाने के लिए पैसे खर्च करके उन्होंने तेनात किए हुए थे ताकि यह देखा जा सके कि कोई सुरक्षा समस्या न हो।
कहने की जरूरत नहीं है, ‘दीदार ए यार’ न केवल जीतेन्द्र और उनकी कंपनी के लिए, बल्कि पूरी इंडस्ट्री के लिए एक बड़ी फ्लॉप फिल्म थी।
जीतेंद्र ने 1982 से एक भी फिल्म का निर्माण नहीं किया है। 1982 वह साल है जिस साल उन्हें अपने 50 साल पुराने करियर का सबसे बड़ा झटका मिला था।
कभी कभी ख्व़ाब भी कितने ख़तरनाक होते हैं, है ना जीतू साहब?
अनु- छवि शर्मा