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पन्ना लाल व्यास
कि समय सब कुछ कितना बदल देता है. शम्मी कपूर जो कल थे, वह आज नहीं हैं. आज के शम्मी कपूर को देख कर यह अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता कि शक्ल शम्मी कपूर वेसे थे. वे स्वयं कहते हैं, श्कल और आज पर मैं विचार करता हूं तो लगता है जैसे मेरी काया पलट हो गयी है.
कल के शम्मी कपूर, छरहरे बदन के बांके छबीले, रंगीन तबियत के रंगीले युवक. जिनकी नशीली नीली आंखों में जादुई आर्कषण. जिनके अंग- अंग में चांचल्य. जिनके अभिनय में आवेक और स्पन्दन लटकाना-मटकना, चटखना, हिलना-डुलना, नाचना-गाना जैसे अंग-अंग में भंवर हो. याहू-याहू, जैसे अटपटे शब्दों के साथ अटपठे शब्दों के साथ अटपटे लटके दिखाने वाले अपनी खास शैली के हीरो कल के शम्मी कपूर.
कल के शम्मी कपूर, बात-बात में हंसी-ठिठौली करने वाले नटखट और चंचल हीरो जिन्होंने अपनी हर हिटें- इनको अपनी “जंगली” हरकतों से परेशान किया, और परेशान कर उसे गुदगुदाया और फिर उसे प्यार से रोमांचित किया.
कल के झम्मी कपूर, रंगीन तबियत के रईसजादा मुगलिया ठाट-बाट का जीवन बिताने वाले, उम्दा से उम्दा शराब पीने वाले, मस्ताना तबियत के हीरो, छेड़-छाड़ के उस्ताद, तेज सफ्तार से रोमांस करने वाले और उससे अधिक रफ्तार के साथ मोटर भगाने वाले रोमांटिक युवक.
कल के शम्मी कपूर कुशल निशानेबाज, तैराक और शिकारी. अपनी चुलबुली हरकतों से जेम्स - डीन का इमेज बनाने बाले, मौलिक शंली के चुस्त, नर्तक और नट.
कल के झम्मी कपूर रोमांस के प्रतीक अपनी स्टायल के रोमांटिक हीरो. पर आज के शम्मी कपूर, भारी- भरकम, मोटे और स्थूलकाय, प्रोढ़ करेक्टर आटिस्ट और गंभीर डायरेक्टर जिनकी नशीली नीली आंखों से स्नेह टपकता है. जिनके अंग-अंग में सोम्य भाव है. वे अब हीरोइनों के दिलों में धड़कन उत्पन्न करने वाले रोमांटिक हीरो नहीं, हो कंधों पर स्नेहसिक्त हाथ रखकर अंकल कहलाते हैं. वे अब हिरोइनों के गले में हाथ डालकर, मस्ती के साथ झूमते हुए सीटी नहीं बजाते, उनकी आंखों में आंखें डालकर रोमांस के तीर नहीं चलाते बल्कि उन्हें जीवन का मर्म समझाते हैं.
आज के शम्मी कपूर गंभीर और अनुशासन प्रिय व्यक्तित हैं. शलीनता से गृहस्थ चला रहे हैं, समपित भाव से पूजा-पाठ और प्रार्थनायें करते हैं. आज वे अपने रोमोस की चर्चायें करने के बदले फिल्म-निर्माण और निर्देशन तकनीक पर चर्चायें करना अधिक पसंद करते हैं.
आज के शम्मी कपूर पूर्णरूप से पारिवारिक व्यक्ति हैं, और लगता है जैसे उनके व्यक्तित्व और कूतित्व में उनके स्व. पिता पृथ्वीराज कपूर की छवि झलकने लगी है.
इतना गहरा परिवर्तन, आकाश- पाताल का अंतर, उनके जीवन में उबथल-पुथल मचाने वाली नाटकीय घटनाओं से हुआ है. इस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने बड़ी गंभीरता से कहा, ‘मेरा जीवन एक ड्रामा की तरह रहा है. उसमें कई सीन आये हैं और चले गये. उनमें गीताबाली के साथ हुई शादी का सीन सबसे अधिक दिल को छूने वाला, सबसे अधिक नाटकीय और सबसे अधिक रोमांचकारी रहा है. पर उसकी मौत से मैं बिखर गया. कई दिनों तक मैं टूटा हुआ ओर बिखरा हुआ रहा, यदि मेरी दुबारा नीला जी के साथ शादी नहीं हुई होती तो आज मेरी क्या स्थिति होती, मैं नहीं जानता.”
गीताबाली के साथ शम्मी कपूर! सबसे पहले एफ. सी. मेहरा की ‘सिपाह सालार’ में आये. उसके बाद दोनों की जोड़ी चमकी ‘रंगीन रतन’, ‘मिस कोका कोला’ और ‘कॉफी हाउस’ में. और दोनों “रंगीन रतन’ की शूटिंग के दौरान इतने निकट आ गये कि दोनों के दिल एक-दूसरे के लिये धड़कने लगे और दोनों ही आंखों में एक-दूसरे की छांव घूमने लगे.
कुछ ही दिनों में दोनों का रोमांस गुलाब के फूल की तरह महक- उठा और वह बसंती झोंका भी आया जब दोनों मिलन के लिये आतुर हो उठे. उस बसन्ती क्षण को शम्मी कपूर आज भी नहीं भूले हैं. “मैं उन दिनों जुहू पर एक होटल में रहता था. एक दिन जब मूसलाधार बरसात हो रही थी, मैं गीता की याद में आंखें बंद किये किसी और दुनिया में खोया हुआ था. अचानक वहां गीता मुझ से मिलने के लिये चली आयीं. उस समय उन्हें अपने सामने देखते ही मेरा प्यार मचल उठा, और मेरे मुंह से बस निकला, “मैं तुम से शादी करने चाहता हूं और इसी वक्त.
वह वक्त ही तो था जिसने दोनों को एक-दूसरे से सदा के लिये मिला दिया. वह वक्त ही तो था जिसने दोनों के जीवन में उथल-पुथल मचा कर गहरी शांति पैदा कर दी.
दोनों की अगस्त 24, 1955 को सांयकाल बाणगंगा मंदिर में भगवान को साक्षी करके चंद मित्रों के बीच शादी हो गयी.
शादी के बाद? इस प्रश्नके उत्तर में शम्मी ने बताया, “मैं सोच ही नहीं सकता था कि शादी के बाद मैं अपने काम के प्रति और अपने भविष्य के प्रति गंभीर हो जाऊंगा. उस शादी के बाद मुझे पहली बार अहसास हुआ जैसे मेरे ऊपर भो गृहस्थी का बोझ है. यह बात नहीं कि शादी के बाद हम दोनों में कोई झगड़ा नहीं हुआ. कई मुद्दों पर गरमा-गरम बहस होती थीं हम दोनों के बीच. कभी मैं शिकायत करता कभी वह मेरी कुछ बातों को लेकर रुठ जाया करती थी. शिकायत-शिकवों के बीच हमारी मोहब्बत भी फलती- फूलती रही यह भी सच है कि इस शादी के बाद ही मैंने जीवन का सही अर्थ समझा, और पहली बार समझा, जीना किसे कहते हैं.”
शम्मी कपूर के जीवन में गीताबाली से शादी करने के बाद भाग्य ने भी खूब रंग जमाया. ‘तुमसा नहीं देखा’ में वे नवोदित हीरोइन अमिता के साथ हिट हुए. “दिल देके देखो” में आशा पारेख के साथ वे लोकप्रिय हुए. सन्ा 1961 में सुबोध मुखर्जी के निर्देशन में बनी ‘जंगली’ के हिट होते ही शम्मी और सायरा बानो की जोड़ी युवा पीढ़ी को रोमांचित करने वाली जोड़ी बन गयी. उसके बाद लेख टण्डन के निर्देशन में कल्पना के साथ उनके इमेज ने नया रंग दिखाया. शक्ति सामंत की फिल्म ‘कश्मीर की कली” में उनके साथ शर्मिला टैगोर थी जो उन दिनों बंगाल से आयी ही थी. “जानवर” में उनकी हीरोइन बनी राजश्री. इन फिल्मों में काम करते हुए और कामयाबी की नयी- नयी सीमाओं को पार करते हुए जब शम्मी कपूर, शम्मी कपूर बने! तो एक भयंकर दुघंटना हो गयी. गीताबाली चल बसी. वे पंजाब के एक गांव में “रानो’ नामक पंजाबी फिल्म में शूटिंग कर रही थी कि अचानक उन्हें चेचक निकल आयी जो घातक सिद्ध हुई.
यह दुर्घटना हुई 21 जनवरी 1965 में, और इस दुर्घटना के बाद शम्मी कपूर के जीवन में, जिन्होंनेरू अपने स्पन्दनशील अभिनय से दर्शकों को रोमांचित कर रखा था, गहरी-उदासी छा गयी. ऐसा प्रतीत हुआ जैसे घहराता हुआ सागर एकाएक शांत हो गया. ऐसा लगा जैसे लहरों पर आवेग बहता हुआ जहाज कहीं बीच फंस गया. गीता की मृत्यु ऐसी दुर्घटना थी जिससे झम्मी कपूर का संतुलन बिगड़ गया और वे अपना गम भूलाने के लिये शराब पर शराब पीने लगे. कुछ लोग तो कहने लगे, अब शराब शम्मी कपूर को पीने लगी है. कुछ ही दिनों में वे शराब के इतने आदि हो गये कि डाक्टर भी उन्हें नहीं रोक सके. इतना ही नहीं, मानसिक शांति की तलाश में वे बहक गए, सटक गये. पर न तो शराब में डूबकर अपना गम भूला सके, और न कियी सुन्दरी की बाहुपाई में वे मन की शांति पा सके.
पर एक दिन जब वे रेसकोर्स से हारकर और शराब के नशे में घुत्त होकर घर लौटे तो उनकी आंखों के सामने जिंदगी घूम गयी और उन्हें पहलो बार अहसास हुआ जैसे वे निरथंक तिनके की तरह लहरों में बह रहे हैं. उस दिन उन्हें पहली बार अहसास हुआ जैसे शम्मी कपूर अब शम्मी कपूर नहों रहे. इसी अहसास ने उन्हें भीतर से जगाया, और उन्होंने फिर से शादी कर लेने का फैसला कर लिया. उन्हें अहसास हुआ, जबतक उनके जीवन- में स्थाई रुप से कोई सुन्दरी नहीं आयेगी, उनका जीवन निरन्तर बिखरता रहेगा. यह अहसास होते ही उन्होंने उसी रात 26 जनवरी 1969 को भावनगर की नीला देवी से सम्पर्क किया. वंस्तुतरू नीला देवी के घर वाले पहले से उसकी शादी के लिये तैयार थे. नीला देवी का चुनाव शम्मी कपूर की भाभी, राज साहब की पत्नी कृष्णा देवी ने और शम्मी की बहन- उम्मी ने किया था. इतना ही नहीं, बहुत अरसे पहले जब पृथ्वी- थियेटर की ओर से भावनगर में कुछ नाटक खेले गये थे, तब शम्मी और नीला देवी की प्रथम मुलाकात हुई थी. उस वक्त शम्मी की बाहों में तरुणायी कसमसाने लगी थी और नीला देवी केवल बारह वर्षीय लड़की थी. यह आश्चर्य की बात है कि शम्मी को नीला देवी की इस तरह अचानक याद कैसे आयी. यह भाग्य की आंख-मिचैली थी. आखिर नीला देवी के साथ शम्मी कपूर की शादी हो गयी, और वे फिर से गृहस्थ बन कर बच गये.
शम्मी कपूर उन दिनों की याद करके कहते हैं, ‘यदि नीला के साथ मेरी शादी न हुई होती तो क्या मैं अब- तक जिदा न रहता ? मुझे तो शंका है, मैं तो इस तरह बिखर गया था जैसे आंधी में बालू-मिट्टी के कण बिखर जाते हैं. उन दिनों शरीर में बस सांस थी, आंखों में बस नशा था, जिंदगी नहीं थी”
जनवरी 27, 1969 को शादी कपूर की नीला देवी के साथ शादी हो गयी, और उसी दिन से शम्मी कपूर ने दोबारा जन्म लिया इस जन्म के बाद शम्मी कपूर को महत्वपूर्ण फिल्में आई, ‘ब्रह्मचारी’, ‘पगला कहीं का’, तुमसे से अच्छा कौन है!’, ‘इवनिंग एन पेरिस’ और ‘अंदाज’ इनके अलावा दक्षिण की उन्होंने “दिल तेरा दिवाना’, ‘प्यार किया तो डरना क्या’, ‘राजकुमार’ आदि फिल्मों में भी काम किया. इन फिल्मों में ‘ब्रह्मचारी’ के रोल के लिये उन्हें फिल्मफेयर एवार्ड मिला और ‘अंदाज’ के रोल के लिये उनकी समीक्षकों द्वारा प्रशंसा की गयी.
फिर एक फुलस्टॉप. कुछ ही दिनों में आश्चर्यजनक रूप से शम्मी फिल्मों से कपूर की तरह उड़ गये.
“ऐसा क्यों हुआ ?? मेरे इस प्रश्न पर उन्होंने मुस्करा कर कहा, फिल्मों में मेरा जो खास किस्म का इमेज बन गया था उसे मैं तोड़ना चाहता था. कुछ विश्वास लेकर फिर नये तेवर और अंदाज के साथ आऊंगा.
इस लंबे अवकाश में पारिवारिक व्यक्ति बन जाने पर शम्मी कपूर पूर्णरूप से बदल गये. उनकी नदी के आवेग की तरह चंचलता छू-मंतर हो गयो. वे मोटे और स्थूलकाय हो गये. बे-कुछ गंभीर और दार्शनिक बन गये. अब वे समझ गये कि फिल्मी दुनिया में उनका पुर्नागमन हीरो को तरह नहीं हो सकता. उस स्थिति में उन्हें निर्देशक बनने का ख्याल आया. इस विषय में वे कुछ सोच ही रहे थे कि उनके प्रिय सहयोगी और हिस्सेदार एफ सी. मेहरा ने अपनी फिल्म “मनोरंजन” का निर्देशन दायित्व सौंप दिया. भाग्य से अवसर तो मिल गया पर वह फिल्म आशानुकुल हिट नहीं हुई. वह अंग्रेजी फिल्म “इरमा ला डून्स” का हिंदी संस्करण थी. हिट न होने के बावजूद उस फिल्म के प्रदर्शित होते ही शम्मी कपूर निर्देशकों की श्रेणी में अपनी चंद शैलीगत विशेषताओं के कारण प्रतिष्ठित हो गये. उनके निर्देशन में बनी दूसरी फिल्म थी ‘बंडलबाज’
निर्देशन करने के साथ-साथ शम्मी कपूर ने अभिनय को नहीं छोड़ा. उन्होंने ‘मनोरंजन’ और नडियाडवाला की “बंडलबाज’’ में महत्वपूर्ण चारित्रिक भूमिकायें भी की. उन्होंने ‘शालीमार’ जैसी भव्य और मल्टीकास्ट फिल्म में काम करने के अतिरिक्त अन्य हिंदी किल्मों में विभिन्न चारित्रिक भूमिकाये निभाई हैं. ‘मामा भांजा’ के मामा शम्मी कपूर ही हैं. यह बात सही है कि विभिन्न चारित्रिक भूमिकाओं से शम्मी कपूर का आटिस्ट के रूप में कोई इमेज नहीं बना है पर ऐसा लगता है उनकी भाव-भंगिमाओं में स्व. पृथ्वीराज कपूर की जो झलक है वह कुछ ही दिनों में चंद और फिल्मों के प्रदर्शन के बाद अपना प्रभाव जमा लेंगी. यह बात सही है कि निर्देशन के रूप में वे राजकपूर की तरह कामयाब नहीं हुए हैं पर ऐसी संभावना है कि उनकी शैलीगत विशेषताओं का आज नहीं तो कल अवश्य विस्तार होगा.
आज वो हमारे साथ नहीं हैं लेकिन फिल्मों में उनका दिया हुआ योगदान और उनकी अदाकारी की वजह से आज भी वो हमारे बीच जिन्दा हैं. जब तक दुनिया रहेगी उनका नाम लिया जाता रहेगा.