2 नवंबर 1897 को जन्में सोहराब ने जब मैट्रिक पास की तो वह प्रिंसिपल से यह पूछने गए कि भविष्य में क्या करें। प्रिंसिपल ने कहा, तुम्हारी आवाज सुनकर यही लगता है कि तुम्हें नेता बनना चाहिए या अभिनेता और सोहराब अभिनेता बन गए। हिंदी सिनेमा में सोहराब मोदी लौह पुरुष के नाम से मशहूर थे। यही नहीं उनकी आवाज भी इस कदर बुलंद थी कि उस दौरान के लोग बताते हैं कि नेत्रहीन भी इस बब्बर शेर की दहाड़ और संवाद सुनने के लिए उनकी फिल्में देखने सिनेमाघरों में जाते थे।
पारसी होने के बावजूद सोहराब मोदी जिस शैली में हिंदी और उर्दू बोलते थे दर्शक-श्रोता भौंचक रह जाते थे। दरअसल उनका बचपन उत्तर प्रदेश के रामपुर मे बीता था जहां उनके पिता सरकारी अधिकारी हुआ करते थे। वहीं की भाषा उन्होंने ग्रहण कर ली थी। थियेटर करने के बाद जब वह मुंबई आए तो फिल्मों की ओर मुड़ गए। चूंकि वह अपने मूड की फिल्म बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने फिल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन की स्थापना की।
अपने इसी बैनर तले उन्होंने पुकार बनाई। यह फिल्म मुगल बादशाह जहांगीर के पौराणिक न्याय के बारे में बताती है कि जहांगीर तब खुद को असहाय पाता है जब एक धोबिन के पति की हत्या का आरोप खुद उनकी बेगम नूरजहां पर लगता है। जिसे वो बेपनाह मोहब्बत करते हैं। कहते हैं कि उस दौर में सोहराब मोदी पुकार का रीमेक बनाना चाहते थे और दिलीप कुमार को जहांगीर के रोल के लिए साइन करना चाहते थे, लेकिन दिलीप नहीं चाहते थे कि उनकी तुलना पुकार के अभिनेता चंद्रमोहन से हो जो इस फिल्म से रातोंरात स्टार बन गए थे।
अपने समय के मशहूर पटकथा-संवाद लेखक अली रजा ने एक बार साफ तौर पर कहा था कि फिल्म इंडस्ट्री ने सोहराब मोदी के साथ न्याय नहीं किया। उन्हें फिल्म इतिहास में जितनी जगह मिलनी चाहिए थी नहीं मिली। बातचीत में अमूमन हर पुराने फिल्मकार मानते है कि अगर कभी ईमानदारी से भारतीय फिल्म का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें एक पूरा अध्याय सोहराब मोदी का होगा।
सोहराब मोदी की खासियत रही कि उनके द्वारा हरेक तरह की सामाजिक, धार्मिक, सुधारवादी और ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण किया गया। प्रायरू हरेक तरह के चरित्र को उन्होंने बेहद संजीदगी से जीया। अपने पांच दशकीय फिल्मी जीवन में कुल 38 फिल्मों का निर्माणए 27 फिल्मों का निर्देशन और 31 फिल्मों में अभिनय करने वाले सोहराब को भारतीय सिनेमा के 75 वर्ष के हीरक इतिहास का साक्षी एवं फिल्मों की शुरुआती दौर का सशक्त चश्मदीद गवाह माना जा सकता है।
सन 1980 में सोहराब मोदी को “दादा साहब फाल्के पुरस्कार” से सम्मानित किया गया। भारत में कई ऐतिहासिक फ़िल्मों को जो प्रतिष्ठा दिलाई है उसका श्रेय सोहराब मोदी को ही जाता है।
80 साल तक आते आते मोदी साहब को चलने-फिरने में छड़ी का सहारा लेना पडा। उनकी एक ख्वाहिश थी कि वे ‘पुकार’ फिल्म को फिर से बनाये लेकिन बीमारी के चलते वे ऐसा नही कर पाए। 1983 में उन्होंने अपनी आखिरी फिल्म ‘गुरुदक्षिणा’ का मुहूर्त निकाला परन्तु सन 1984 में डॉक्टरों द्वारा घोषित कर दिया गया की उन्हें कैंसर है और अपनी आखिरी फिल्म को अधूरा छोड़कर 28 जनवरी 1984 को मोदी हमे हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए। उनका धैर्य बहुत अपार था। कई बार कलाकार अपने असफल होने पर हार जाते है लेकिन मोदी ने प्रयास करना नहीं छोड़ा और अपनी सफलता हासिल की।