फ़िरोज़ खान का नाम फिल्म इंडस्ट्री के पहले काओबॉय के तौर पर लिया जाता है। उन्हें बॉलीवुड का क्लिंट ईस्टवुड भी कहा जाता था। फ़िरोज़ खान का जन्म 25 सितम्बर 1939 में हुआ था। उनके पिता पठानी थे तो उनकी माँ इरानी और वह सब रहते बैंगलोर में थे। इसी कारण फ़िरोज़ खान बचपन से ही पढ़ने में बहुत तेज़ थे और आलम ये भी था कि उन्हें दो स्कूल से सिर्फ इसलिए निकलने के लिए कह दिया गया ताकि वो किसी बेहतर स्कूल में तालीम ले सकें। इतना ही नहीं, फ़िरोज़ खान कई भाषाओँ में निपुर्ण थे। उन्हें पश्तो, फ़ारसी, उर्दू, अंगेज़ी, हिन्दी और कन्नड़ भी बोलनी आती थी।
उनके शौक भी उनकी पर्सनालिटी से मैच करते हुआ करते थे। उन्हें घुड़सवारी का शौक था। बंदूकें चलाने में उन्हें बहुत मज़ा आता था। उनके अन्य शौक में स्नूकर खेलना, हॉलीवुड की फिल्में देखना शामिल था। हॉलीवुड की फिल्में वह बहुत देखते थे। उनको वेस्टर्न स्टाइल की वो काओ बॉय वाली फिल्में बहुत रास आती थीं। बड़े होने के बाद उन्होंने फिल्मों में ट्राई करना चाहा। वो मुम्बई आए, कुछ दिन रहे पर बात नहीं तो वापस बंगलौर लौट गये।
साल भर बाद वह फिर मुंबई गये और फिर किस्मत अजमाई, लेकिन इस बार भी बात नहीं बनी। उन्होंने यूपीएससी का एग्जाम समझ फिर तीसरी बार ट्राई मारा और इस बार उन्हें स्टंट मैन की जॉब मिल गयी। उन्होंने ‘हम सब चोर हैं’ से कैमरा फेस करना शुरु किया। लेकिन उनका मकसद तो हीरो बनना था। यह बात 1956 की है।
स्टंट्स रोल के चलते फ़िरोज़ खान को कम से कम इंडस्ट्री में घुसने का मौका तो मिला। उस वक़्त एक्टर्स को ही कोई बहुत पैसा नहीं मिलता था तो स्टंट आर्टिस्ट्स को कहाँ से मिलता। इसलिए अपना ख़र्च चलाने के लिए फ़िरोज़ खान क्लब्स में जाकर स्नूकर खेला करते थे और उस दौर में ‘500’ (आज के 5 लाख के बराबर) रूपए की शर्तें लगाया करते थे। उन्हें अपने पैशन के चलते बहुत फायदा होता था लेकिन कई बार यूँ भी हुआ है कि गेम हार जाने की वजह से वो रात में भूखे ही सो गए।
अपने गर्दिशों के दौर में भी फ़िरोज़ खान के शौक और ठस्कों में कोई कमी नहीं आई। उन्हें सही ब्रेक फिल्म ‘दीदी’ (1960) में मिला।
इसके बाद उन्होंने कई बी और सी ग्रेड फिल्में कीं, जिसमें रिपोर्टर राजू उनकी पसंदीदा में से एक थी क्योंकि उस फिल्म में वह लीड एक्टर थे।
फ़िरोज़ खान ने तबतक सिर्फ एक हिन्दी फिल्म देखी थी, अशोक कुमार अभिनीत किस्मत (1943), वर्ना वह सिर्फ वेस्टर्न फ़िल्में ही देखा करते थे।
पर किस्मत देखने के बाद से ही फ़िरोज़ खान की इच्छा थी कि वह कभी अशोक कुमार के साथ काम करें। उनकी यह इच्छा पूरी हुई फिल्म ऊंचे लोग (1965) से जिसमें उनके साथ राज कुमार और अशोक कुमार थे। वह इन दोनों के छोटे भाई बने थे। यह फिल्म अच्छी हिट हुई और फ़िरोज़ खान को इंडस्ट्री ने बिना किसी शर्त के अपना लिया।
इन्हीं दिनों फ़िरोज़ खान ने एक एयर होस्टेस से शादी भी कर ली। उस होस्टेस का नाम था ‘सुन्दरी’। सुंदरी के साथ उनके दो बच्चे हुए, एक लैला और दूसरे उनके जानशीन, फरदीन खान। हालाँकि इसी बीच उनके और उनकी फेवरेट एक्ट्रेस मुमताज़ के लव अफेयर के चर्चे भी ख़ूब सुने जाते थे।
कुछ समय बाद फ़िरोज़ खान ने बीआर चोपड़ा बैनर तले एक मल्टीस्टारर फिल्म की आदमी और इंसान (1969), इसमें फ़िरोज़ खान के साथ सुपर स्टार धर्मेंद्र,
जिन दिनों वह फिल्मों में एक्टिंग करते थे, तब वह सिनेमेटोग्राफर और डायरेक्टर के पास चले जाते थे और उनसे पूछते थे कि आप ये लेंस बदल रहे हो तो क्यों बदल रहे हो? इससे क्या होता है? शॉट यहाँ से लेने से क्या होगा? आदि इस तरह के सवाल वह करते रहते थे, उन्हें पता था कि वह बहुत जल्द फिल्म डायरेक्शन में ज़रूर आयेंगे। उनके आने के कुछ साल बाद उनके भाई ‘संजय खान’ (शाह अब्बास खान) भी फिल्मों में आ गये थे। इन दोनों भाइयों ने साथ में कई फिल्मों में काम किया जिसमें उपासना नामक फिल्म खासी पॉपुलर हुई।
फ़िरोज़ खान ने अपने डायरेक्शन के शौक को प्रोडक्शन तक बढ़ाते हुए अपराध (1972) नामक फिल्म बनाई जो दर्शकों को बहुत पसंद आई। इस फिल्म में पहली बार कार रेसिंग दिखाई गयी थी जिसे पिक्चराइज़ करना उस दौर में बहुत बड़ी बात थी।
इसके बाद फिल्म खोटे सिक्के में उनके इम्पोर्टेन्ट रोल को भी दर्शकों ने बहुत पसंद किया।
लेकिन अब फ़िरोज़ खान का मन डायरेक्शन में लग गया था। उन्हें दूसरों के डायरेक्शन से ज़्यादा अपने कण्ट्रोल में फिल्म अच्छी लगती थी। दर्शकों को सबसे ज़्यादा उनकी फिल्म की सिनेमाटोग्राफी, लार्जर फ्रेम्स और संगीत रास आता था। फ़िरोज़ खान की हर फिल्म का म्यूजिक ज़बरदस्त होता था।
उन्हों 1975 में धर्मात्मा नामक फिल्म बनाई जिसमें पहली बार किसी फिल्म की शूटिंग अफगानिस्तान में हुई। ये फिल्म भी ब्लॉकबस्टर हुई और अगर उसी साल शोले न आती, तो कोई बड़ी बात नहीं कि धर्मात्मा टॉप ग्रोसिंग मूवी में गिनी जाती। इस फिल्म में हेमा मालिनी और रेखा लीड हिरोइन्स थीं। हालाँकि फिल्म की कहानी काफी हद तक हॉलीवुड क्लासिक फिल्म ‘गॉडफादर’ से इंस्पायर्ड थी।
दो-एक दो-एक फिल्में बतौर एक्टर करने के साथ-साथ फ़िरोज़ खान अब फिल्म निर्माण में भी समय दे रहे थे। 1980 में फ़िरोज़ खान ने अपने दोस्त विनोद खन्ना के साथ ‘कुर्बानी’ बनाई और इस फिल्म ने कमाई के सारे रेकॉर्ड्स तोड़ दिए। अमजद खान, शक्ति कपूर, अमरीश पुरी और कदर खान जैसी सपोर्ट कास्ट से सजी यह फिल्म अपनी लागत से क़रीब दस गुना कमाई करने में कामयाब हुई थी।
इस फिल्म की कामयाबी की सबसे बड़ी वजह इसका म्यूजिक था। फिल्म में पाकिस्तानी सिंगर नाज़िया का गीत ‘आप जैसा कोई मेरी ज़िन्दगी में आए, तो बात बन जाए’ चार्टबस्टर हिट था। लेकिन अन्य चार गाने ‘हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे’, ‘क्या देखते हो?, सूरत तुम्हारी’, ‘लैला हो लैला’ और टाइटल ट्रैक ‘कुर्बानी-कुर्बानी’ भी सुपर डुपर हिट थे। यहाँ तक कि ‘आप जैसा कोई’ के लिए ‘नाज़िया’ को फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला था।
फिल्म के साउंड के लिए भी पी हरिकिशन को फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।
1985 में वो साल था जब फ़िरोज़ खान ने अपनी बीस साल की शादीशुदा ज़िन्दगी से तलाक ले लिया था। और इस तलाक की वजह थी एक नई एयरहोस्टेस, जो उन दिनों फ़िरोज़ खान को बहुत पसंद आ गयी थी और साए की तरह उनके साथ देखी जा सकती थी। बहरहाल, फिल्मों से लिए ब्रेक को खत्म करते हुए छः साल बाद फ़िरोज़ खान ने जांबाज़ (1986) नामक फिल्म बनाई, इसमें अनिल कपूर और डिम्पल कपाड़िया भी उनके साथ थे। फिल्म समीक्षकों की माने तो फ़िरोज़ खान के कैरियर की ये बेस्ट फिल्म थी। इस फिल्म का गीत ‘हर किसी को नहीं मिलता यहाँ प्यार ज़िन्दगी में’ चार्टबस्टर गीत हुआ था। लेकिन एक और वजह थी इस फिल्म को पॉपुलर करने की, इसमें अनिल कपूर और डिम्पल कपाड़िया का एक कामुक दृश्य था जो कुछ इस तरह फ़िरोज़ खान ने डायरेक्ट किया था कि ऑडियंस की साँसे थम जाती थीं। सिर्फ इस सीन के लिए बहुत से लोग यह फिल्म देखने कई-कई बार पहुँच गये थे।
यहाँ तक उनकी हर फिल्म में म्यूजिक कल्याणजी आनंदजी का था।
विनोद खन्ना अपने कैरियर के पीक पर फिल्म इंडस्ट्री से ब्रेक लेकर आचार्य रजनीश की शागिर्दी में अमेरिका चले गये थे। जब वो लौटे तो उन्हें फिल्म में कास्ट करने वाला कोई न था। लेकिन उनके दोस्त ‘फ़िरोज़ खान’ तब भी मौजूद थे। फ़िरोज़ ने उनके साथ फिल्म ‘दयावान’ बनाई जिसमें माधुरी दीक्षित बिल्कुल नई हीरोइन थीं। यह फिल्म तो हिट हुई ही, लेकिन माधुरी दीक्षित और विनोद खन्ना के किस सीन की चर्चा फिल्म से कहीं ज़्यादा हुई।
इसके बाद फिर छः साल लेते हुए फ़िरोज़ खान ने 1992 में संजय दत्त, कबीर बेदी और विकी अरोड़ा के साथ यलगार बनाई। एक्शन क्राइम जोनर की ये फिल्म भी हिट रही।
इस फिल्म के बाद फ़िरोज़ खान ने एक्टिंग से कुछ समय के लिए ब्रेक ले लिया और फिर अपने बेटे फरदीन खान को लॉन्च करते हुए ‘प्रेम अगन’ बनाई, ये उनकी बनाई पहली फिल्म थी जो बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुँह गिरी। लेकिन हार न मानते हुए वह पाँच साल बाद 2003 में फिर फरदीन खान के साथ जानशीन लेकर आए, इस फिल्म में वह 11 साल बाद एक्टिंग भी कर रहे थे पर इस फिल्म का हाल प्रेम अगन से भी बुरा हुआ और ये आठवीं और आख़िरी फिल्म थी जो फ़िरोज़ खान ने डायरेक्ट की।
पर हाँ, 2005 में अपने बेटे का सपोर्ट करते हुए हॉलीवुड फिल्म कांफिडेंस की रीमेक ‘एक खिलाड़ी एक हसीना’ में फ़िरोज़ खान फरदीन के साथ आए। ये फिल्म फिल्म हिट तो नहीं हुई पर सेटेलाईट पर दर्शकों द्वारा बहुत पसंद की गयी।
उन्होंने फरदीन की शादी अपनी दोस्त और कभी रह चुकी मुहब्बत, मुमताज़ की लड़की से की और समधी बनकर ही सही, आखिरकार मुमताज़ का साथ पा ही लिया
अपने कैरियर में शायद पहली बार और यकीनन आखिरी बार एक कॉमेडी फिल्म की, वेलकम (2007)! इस फिल्म में सबसे बड़े डॉन ‘आरडीएक्स’ बने फ़िरोज़ खान दर्शकों के दिल में फिर वही बरसों पुरानी रॉयल्टी, वही छाप छोड़ने में कामयाब रहे और ये फिल्म भी ब्लॉकबस्टर हुई। उनके फैन्स को उम्मीद थी की फ़िरोज़ खान फिर कुछ फिल्मों में कॉमेडी करते नज़र आयेंगे मगर अफ़सोस कि 2009 में ही लंग कैंसर की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी।
पर मात्र आठ डायरेक्टेड फिल्मों के दम फ़िरोज़ खान अमर हो गये। उनके जैसा रॉयल, डैशिंग, हैंसम, मैनिश और निडर न कोई आर्टिस्ट हुआ था न कभी होगा।
उनकी निडरता की मिसाल इससे समझिए कि एक बार पाकिस्तान गये और स्टेज पर खड़े होकर बोल आए कि “भारत एक महान देश है और उन्हें भारतीय होने पर गर्व है, भारत सेक्युलर देश है, वहाँ एक मुस्लिम राष्ट्रपति है तो प्राइममिनिस्टर एक सिख है। भारत का मुसलमान आज तरक्की कर रहा है, जबकि पाकिस्तान जो इस्लाम के नाम पर बनाया गया था लेकिन लगता है कि आज यहाँ मुस्लिम ही मुस्लिम को मार रहा है”
ख़ास इस स्टेटमेंट के चलते पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री परवेज़ मुशर्रफ ने उन्हें पाकिस्तान वीसा से ब्लैकलिस्ट कर दिया था।
पर फ़िरोज़ खान को क्या फ़र्क पड़ा? वो अपने आख़िर दिन तक भी बादशाह की तरह जिए और बादशाह की तरह मरे।
- सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’