तीन पीढ़ियों से अभिनय सम्राट, ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार की कहानियां सुन सुन के और उनकी फिल्में देखते हुए, दुनिया ने जैसे निर्धारित ही कर लिया था ही दिलीप साहब अजर अमर हैं। वे उम्र, रोग, व्याधि और काल के गिरफ्त से परे हैं लेकिन पंचभूत से निर्मित मानव शरीर ने आखिर जता दिया कि शरीर आखिर शरीर ही होता है। दिलीप साहब चले गए, अभिनय की दुनिया का विशाल वट वृक्ष ढह गया। वैसे तो हर इंसान को एक न एक दिन जाना ही होता है लेकिन फिर भी बॉलीवुड का हर सदस्य गमगीन है क्योंकि उनके जाने से जैसे एक जमाना छूट गया। एक दौर जैसे मुट्ठी से रीत गया। धड़कते एहसास को सहेजती थी उनकी फिल्में, अब वो धड़कन स्थिर है। सबके पास उनकी कोई ना कोई याद धरोहर है। मेरे पास भी छोटी छोटी बातें हैं उनसे मुलाकात की। पता नहीं क्यों, मुझे दिलीप साहब कभी सीरियसली नहीं लेते थे। उन्हें जैसे यकीन ही नहीं होता था कि रिबन में बाल बांधे, मिडी पहने ये पतली दुबली साँवली लड़की उनसे साक्षात्कार करने आई है।
वो मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। दोपहर का वक्त था और अंधेरी ईस्ट स्थित सेठ स्टूडियो में एयर कंडीशनर पूरे स्पीड पर थी। मैं उनके मेकअप रूम के सामने लॉबी में बैठी उनका इंतजार कर रही थी, उन दिनों की कई पॉपुलर अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं के पत्रकार भी उनके इंतजार में बैठे थे। सुभाष घई जी से मैंने कहा था कि मैं मायापुरी से हूँ और मेरी उनसे मुलाकात करवा दें।
जब दिलीप साहब अपने मेकअप रूम से बाहर निकले तो सीधे सेट की तरफ बढ़ गए। उनकी मसरूफियत देखते हुए किसी पत्रकार ने उन्हें रोकने की घृष्टता नहीं की लेकिन मैं उन दिनों इन एटिकेट्स से अनजान थी। दौड़ कर उनकी राह रोक ली। बात करनी है आपसे, सुभाष जी ने आपको बताया? दिलीप साहब हैरान, भृकुटि तन गई, इस तरह राह नहीं रोकते, कहाँ से है आप? मैं सकपकाई, मायापुरी पत्रिका से। मायापुरी का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर अपनेपन का एक स्वीट सा भाव उभरा, उन्होंने बड़े बजाज जी (मायापुरी के फाउंडर श्री ए पी बजाज जी) और मायापुरी के सिनियरमोस्ट जर्नलिस्ट जौहर जी के बारे में पूछा और फिर मुझसे कहा, मेरे बारे में कितना जानती हैं आप? इसका जवाब मैं नहीं दे पाई तो गम्भीर लहजे में बोले, पहले होमवर्क कर के आइये फिर बात करेंगे। अगले सप्ताह मैं फिर जब उनसे मिलने गई तो काफी कुछ तैयार थी, मैं समय से पहले पहुँच गई। उस दिन भी अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं के कुछ पत्रकार उनका समय लेने के लिए बेचैन बैठे थे लेकिन मैं ये देखकर आंनदित और हैरान हो गई कि उन्होंने किसी हेल्पर से कहला भेजा कि सिर्फ मायापुरी को छोड़कर बाकी सबको कह दें कि बात नहीं हो पाएगी। आखिर दो शॉट के बीच जब उनसे बातचीत करने का मौका मिला तो मैं अपने आप को बेहद प्राउड महसूस कर रही थी।
जिस दिलीप साहब की सख्त, गम्भीर धीमी आवाज से घबरा रही थी वो आवाज मुलायम और बच्चों की तरह मासूम, नटखट सा लगा। वे सेट पर सबके साथ उस दिन हँस बोल रहे थे, मजाक भी कर रहे थे। यहां तक कि एक हेल्पर बॉय के हाथों उसके घर की बनी कोई मिठाई या पकौड़े (याद नहीं आ रहा) भी खाई। सेट पर कहीं से एक तिलचट्टा दिखा तो भगदड़ मच गई, तब हँसते हुए वे बोले थे, मैं भी अपने घर पर एक दिन स्प्रे लेकर इसके पीछे पड़ गया था और दौड़ा दौड़ा कर भगाया था। बातचीत के बीच मैंने पूछा था, आपने जो भी फिल्में की, जो भी चरित्र निभाए वो इतिहास बन गए, आपको अभिनय सम्राट माना जाता है, आपको अभिनय का इंस्टिट्यूशन कहा जाता है, मिडास टच के धनी एक्टर हैं आप, ये सब कैसे कर पाएं? दिलीप साहब ने ठहर कर जवाब दिया था, मैंने तो हर बार सिर्फ अपने चरित्र को दिल से निभाया। सभी एक्टर जो अभिनय के मैदान मे। आते हैं वे ऐसा ही करते होंगे। पर जो महत्वपूर्ण बात है वो है एक अच्छी कहानी, एक चुनौतीपूर्ण रोल, बेहतरीन स्क्रीनप्ले और विषय वस्तु का स्ट्रॉन्ग होना। अगर कंटेंट में दम हो तो एक्टर स्ट्रॉन्ग एक्टिंग कर पाता है। और सबके ऊपर है तकदीर। मेरे तकदीर ने मेरा बहुत साथ दिया।
मैनें पूछा था, क्या आपने बचपन में कभी सोचा था कि आप इतने महान कलाकार बन जाएंगे और सिनेमा जगत का हर एक्टर आपकी तरह एक्टिंग करने की कोशिश करेंगे लेकिन कभी दिलीप कुमार नहीं बन पाएंगे? वे मुस्कुरा कर बोले, वो तो मैं आज भी नहीं सोचता। सभी एक्टर, कलीग जो फिल्म इंडस्ट्री में आएं हैं वे अपने अपने तरीके से बेस्ट करने की कोशिश कर रहें हैं। कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं होता। ना मैंने किसी को कुछ दिया है ना किसी ने कुछ लिया है। मेरी तरह कोई भी एक्टर बन सकता है। कड़ी मेहनत जरूर लगती है। मैंने कभी नहीं सोचा था बचपन में कि मैं फिल्मों में एक्टिंग करूँगा। खिलाड़ी बनना चाहता था। ऊपर वाले की बड़ी मेहरबानी है कि उन्होने मुझे एक्टर दिलीप कुमार बना दिया। सब कुछ उनके कारण हुआ।
ईश्वर के अलावा और किसे आप श्रेय देतें हैं अपनी सफलता का? दोबारा सोचकर वे बोले थे, अपने कर्मों को। मैनें अपने कर्मक्षेत्र में कभी कोई बेईमानी नहीं कि, कोई बुरा काम नहीं किया। कभी छल कपट नहीं की। बातचीत के बीच शॉट फिर से शुरू हो गया और जब वे वापस लौटे तो मैंने उन्हें कहा था कि अगर वे थक गए हैं तो अगले दिन वापस आऊं, मेरा घर नटराज स्टूडियो और सेठ स्टूडियो के पास ही है। लेकिन वे बोले, नहीं काम पूरा कर के जाइये, वक्त की अपनी कीमत होती है।
मैनें उन्हें पूछा था कि देविका रानी ने उनका असली नाम मोहम्मद यूसुफ खान से बदलकर दिलीप कुमार रखा था, अगर वे चाहते तो यूसुफ ही रहने देतें? जैसे आज के समय में सलमान सलमान ही रहा, आमिर, आमिर ही रहा और शाहरुख, शाहरुख ही रहा। इस पर वे बोले थे, उन दिनों नाम बदलने का बहुत चलन था। मेरे बाद आये हुए कितने कलाकारों का (जीतेन्द्र, राजेश खन्ना, संजीव कुमार) नाम बदला गया। मेरे जमाने में कुमार का बहुत चलन था लेकिन सच बताऊँ तो मैं इसलिए नाम बदलने पर राजी हो गया था क्योंकि मेरे फादर लाला गुलाम सरवर अली साहब को मेरे फिल्मों में काम करना पसंद नहीं आना था, और उनके गुस्से से बचने के लिए मैं फिल्मों में नाम बदल कर काम करने पर राजी हो गया ताकि फादर पहचान ना लें। दरअसल दिलीप साहब को दो नाम में से एक चुनने को कहा गया, एक दिलीप कुमार और दूसरा बासु देव, और उन्होंने दिलीप कुमार नाम चुन लिया। ये भी मैंने सुना था कि ट्रेजडी रोल्स में सुपर हिट होने के कारण सारे फिल्म मेकर्स उनसे सिर्फ और सिर्फ दुखद भूमिकाएं कराने लगे थे, जिसके कारण उनको वास्तविक जीवन में भी उदासी ने ऐसा जकड़ लिया था कि डॉक्टर की जरूरत पड़ गई थी, वे सारा दिन दुखी, उदास और परेशान, तनावग्रस्त रहने लगे थे, तब जाकर डॉक्टर ने बहुत सीरियसली आगाह किया कि उन्हें दुखदर्द वाली फिल्में छोड़नी होगी। आखिर उन्होंने ऐसा ही किया , जितने ट्रेजडी फिल्में साइन की थी सबके साइनिंग अमाउंट लौटा दिए वरना फिल्म इतिहास में और भी कितने देवदास, बाबुल, मुगल ए आजम, दीदार, दाग, टाइप की फिल्में अंकित हो जाती। इस विषय पर बात उठी थी तो एक पॉजिटिव नोट पर वे बोले थे, ष्ऊपर वाला जो करता है वो अच्छा ही होता है, अगर डॉक्टर ने आगाह ना किया होता तो मैं सिर्फ दुख दर्द वाले रोल में ही फंस कर रह जाता। फिर मैं नए नए जोनर कैसे एक्सप्लोर कर पाता, कैसे आन, कोहिनूर, राम और श्याम गोपी, आजाद, जैसी फिल्में कर पाता।
बातचीत आज के नायकों की उठी तो उन्होंने शाहरुख खान की तारीफ की लेकिन ये भी कहा कि सभी अच्छे हैं, अनिल कपुर, जैकी श्रॉफ, गोविंदा सभी बेस्ट आर्टिस्ट है। (उन दिनों ये सभी चोटि के स्टार थे) वे बोले, दरअसल अपनी भूमिका को पेनिट्रेट करके उसमें समा जाने पर यू कांट गो रॉन्ग। रोल में डूबना पड़ता है, सब्सटेंस को थामना होता है, शैडोज को नहीं। मैंने उनसे नवोदित एक्टर्स के लिए कोई संदेश देने को कहा तो वे बोले, सफलता के लिए नए एक्टर्स को अपने काम की गहराई परख लेना चाहिए।
दिलीप साहब ने बातचीत के बीच मेरे बारे में भी पूछा कि कॉलेज के कौन से ईयर में पढ़ रही हैं? पिताजी क्या काम करते हैं। मायापुरी पत्रिका कितने साल की हो गयी है। बातचीत में टॉपिक लट्टू की तरह घूम रहे थे। मैंने उनसे पूछा था आपको अपने पुश्तैनी घर और वहां के माहौल की याद आती है? इस प्रश्न पर दिलीप साहब बहुत देर तक खामोश रहें। फिर बोले थे, किस्सा खवानी बाजार, पेशावर। एकड़ के एकड़ फलों से भरे ऑर्चर्ड में बचपन बीता। बड़ा सा मकान जो घर था एक विशाल परिवार का। सारा दिन घर की स्त्रियां पर्दे के पीछे आपस में बातें करते हुए काम काज करती, घर में रोज तरह तरह के पकवानों की खुशबू उड़ती रहती, हम बच्चों की किलकारियों के साथ, स्त्रियों के हँसने बोलने की आवाज से हवेलीनुमा हमारा घर गमगमाता रहता। शाम को घर के सारे मर्द इकट्ठा होकर चाय नाश्ता करते थे। मेरी आदत थी कि मैं नजरे बचा कर बाहर खेलने निकल जाता था दूर दूर तक। इससे परेशान मेरी ग्रैंडमदर मुझे बाहर भूतों का डर दिखाती और मैं उनके दुपट्टे में दुबक जाता था। वो दुपट्टे की महक आज भी गले तक भरी हुई है। जरा ऊपर आ जाये तो छलक जाए। जब मैनें उन्हें बताया कि वे एक बेहतरीन गायक भी हैं, ये मैं जानती हूं, तो वे बोले थे, होम वर्क करने को बोला था, जन्म कुंडली निकालने को नहीं।, खैर , हाँ मैं गाता था, अपनी मौज में, अपनी तरंग में। हां एक फिल्म में अपनी आवाज में गाया तो था, सेमि क्लासिकल।ष् दिलीप साहब कहीं खो गए थे बोलते बोलते। आवाज इतनी धीमी हो गई थी कि सब कुछ एक सपना सा लग रहा था। वो एक्टर जिसे मेरी नानी बहुत पसंद करती थी, मेरी माँ उनकी फिल्में देखते हुए बड़ी हुई थी और एक मैं जिनके लिए दिलीप साहब खुद एक इंस्टिट्यूशन थे, वो मेरे सामने थे। कभी बच्चों की तरह हंस पड़ते, कभी डांट देते कि ये उम्र पढ़ाई लिखाई की है, आप स्टूडेंट जीवन एन्जॉय कीजिये। स्टार्स के पीछे दौड़ना बन्द करें। दिलीप जी से बातें उस दिन भी पूरी नहीं हुई थी लेकिन यकीन था कि वो आखरी मुलाकात नहीं है। और हां, वो आखरी मुलाकात नहीं थी।
आखरी अलविदा तो अब हो रही है यूसुफ खान साहब, द फर्स्ट टॉप स्टार खान ऑफ बॉलीवुड। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें और उन्हें जन्नत नसीब हो।