किसी भी देश का सिनेमा उस देश की सभ्यता, संस्कृति व वैचारिक सोच का वाहक होता है। सिनेमा एक ऐसा सषक्त माध्यम है, जिसके माध्यम से कोई भी संदेश सहजता से करोड़ों लोगों तक पहुँचाया जा सकता है! इसी के चलते जब भारत गुलाम था और हमारे स्वतंत्रता सेनानी आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़़ रहे थे! तब लोगों को एकजुट करने के मकसद से फिल्मकारो ने सिनेमा का उपयोग करने का निर्णय लिया! लेकिन उस वक्त अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने के लिए लोगों को उकसाने और लोगों के अंदर देशभक्ति की लौ जगाने वाली फिल्म बनाकर उसका प्रदर्शन करना असंभव था। फिर भी कुछ लोगों ने सिनेमा के माध्यम से लोगों के बीच आपस में लड़ने की बजाय एक होने का संदेश पहुँचाने के लिए फिल्मों का निर्माण शुरू किया!
तभी 1931 में आरदेशीर ईरानी ने पहली फिल्म ‘आलम आरा’ बनायी थी! यॅूं तो यह कहानी एक राजा और उसकी दो रानियों नवबहार और दिलबहार की है! मगर इसमें एक संदेश उभरकर आता है कि, जब हम आपस में लड़ते हैं, तो किस तरह नुकसान होता है! ‘आलम आरा’ में अपरोक्ष रूप से अपने राज्य के प्रति प्रेम का संदेश था! इसी तरह उस वक्त के फिल्मकारों ने कई ऐतिहासिक,धार्मिक व सामाजिक फिल्मों का निर्माण कर अपरोक्ष रूप से लोगों को ‘एकजुट’ होने के साथ नैतिक मूल्यों के साथ जिंदगी जीने का संदेश देने का काम जारी रखा! इन फिल्मों की वजह से धीरे धीरे लोगों के अंदर परिवार, समाज व देश को लेकर एक अलग तरह की जागरूकता का संचार होने लगा था।लेकिन इन फिल्मकारों ने कभी भी अपनी फिल्मों में देशभक्ति को ‘तड़के’के रूप में उपयोग नही किया!
मगर यह हालात बॉलीवुड में सदैव नही रहे! 1950 के बाद बॉलीवुड में ‘देशभक्ति’ या ‘देशप्रेम’ को फिल्मकारो ने अपनी फिल्मों में सफलता के ‘तड़के’ के तौर पर ही उपयोग किया! मौजूदा समय की तो यही कटु सच्चाई है! एक वक्त वह था,जब फिल्में या इन फिल्मों के गाने लोगों के बीच देशभक्ति का जज्बा पैदा करने का पर्याय हुआ करते थे! जी हाॅ! आजादी से पहले 9 जनवरी 1943 को लेखक व निर्देषक ज्ञान मुखर्जी की फिल्म ‘किस्मत‘ प्रदर्षित हुई थी,जिसमें अषोक कुमार, मुमताज , कनुराय, मुबारक व कमला कुमारी जैसे कलाकारों ने अभिनय किया था! इसका गाना ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है‘ लोगों के बीच अंग्रेजों के विरोध का चेहरा बन गया था! यॅू तो फिल्म ‘किस्मत’ एक काॅनमैन’की कहानी थी,मगर फिल्मकार ज्ञान मुखर्जी ने अपनी फिल्म के इस गीत के माध्यम से सीधे हर भारतीय के अंदर देशप्रेम, देश के लिए कुछ करने की ललक जगाने का काम किया था।उस समय भारत की फिल्मों को ब्रिटिश सेंसर बोर्ड की मंजूरी के साथ ही रिलीज किया जाता था, ऐसे में ब्रिटिश अफसरों के कमजोर भाषायी ज्ञान के चलते किसी तरह इस फिल्म के गाने को मंजूरी मिल गई। गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन के कुछ महीनों बाद आयी यह फिल्म अपने इस गाने की वजह से अमर हो गई।
1940 से बॉलीवुड में जिस देशभक्ति की षुरूआत हुई थी,उसे बॉलीवुड ने आजादी के तीन साल बाद 1950 में त्याग दिया। इधर फिल्मों ने देशभक्ति का त्याग किया,उधर सड़क पर देशप्रेम व आजादी का जश्न मनाने वालों ने दूरी बना ली।फिल्मों के अलावा समाज में भी देशभक्ति को लेकर कोई बात नहीं हो रही थी! लेकिन 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया, जिसमें भारत को हार का सामना करना पड़ा। उसके बाद चेतन आनंद ने देशप्रेम प्रधान फिल्म ‘हकीकत’ का निर्माण किया, जिसे दर्षकों ने सिरे से ठुकरा दिया। पर मनोज कुमार की 1965 में आयी फिल्म ‘शहीद’ ने पुनः लोगों के अंदर देशभक्ति की लौ जगा दी! उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर षास्त्री ने मनोज कुमार से अपने नारे ‘जय जवान जय किसान’ पर फिल्म बनाने के लिए कहा। इससे मनोज कुमार को देश के लोगों के बीच देश प्रेम की भावना बढ़ाने की प्रेरणा मिली। फिर मनोज कुमार ने स्वयं फिल्म ‘उपकार’ की कहानी लिखी, फिल्म का निर्देषन किया और मुख्य भूमिका निभायी। फिल्म का निर्माण आर.एन .गोस्वामी ने किया था।1967 में प्रदर्षित फिल्म ‘उपकार’ को छह फिल्म फेअर और दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिले! ‘उपकार’ के बाद मनोज कुमार ने ‘पूरब और पष्चिम’,‘क्रांति’,‘रोटी कपड़ा और मकान’, जैसी कई देशभक्ति की फिल्मों का निर्माण अथवा निर्देषन अथवा उनमें अभिनय कर हर भारतीय के दिल में देशभक्ति की लो जगाते रहे।
बहुत कुछ बदल गयाः
आज के दौर में ‘किस्मत’ जैसी फिल्म अथवा ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है‘ जैसा गाना बनना असंभव सा हो गया है! इसकी मूल वजह बॉलीवुड के चेहरे पर लगा मुखौटा है। पहली बात तो आज फिल्में विषयों पर नहीं, बल्कि अभिनेताओं को केंद्र में रखकर बनाई जाती हैं! दूसरी बात फिल्म का निर्माण षुरू करने से पहले ही फिल्मकार उसकी सफलता के गणित पर माथापच्ची कर लेता है! बड़े कलाकारों के अभिनय से सजी फिल्में सफल भी हो जाती हैं, शायद इसीलिए निर्माता विषय की ओर अधिक ध्यान नहीं देते! तीसरी बात देश की सरकारें बदलने का असर भी सिनेमा पर पड़ता है। ऐसा महज भारत ही नही बल्कि पूरे विष्व में होता आ रहा है।पर भारत में बात बात पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलापने वाले ज्यादातर फिल्मकार सरकार के पिछलग्गू बनकर सरकार के विचारों के अनुरूप ही सिनेमा बनाते रहे है।चैथी बात भारतीय फिल्मकार सदैव ‘रिस्क’ लेने से बचता रहा है! फिर भी कुछ निर्माता व निर्देशक इस मुखौटे को उतारने में लगे हुए हैं! मगर उनका अंदाज निराला है।
यॅूं भी हमारे देश में बहुत कम देशभक्ति की फिल्में बनतीं है। जब बनती हैं तो एक बड़ा और प्रभावशाली इको सिस्टम उन्हें प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी बता कर नीचा दिखाने का प्रयास करता है।
देश भक्ति एक ऐसी भावना है,जो कब किसमें जाग जाए,कहा नही जा सकता।पर वतन पर अपनी जान न्योछावर करने वाले वीरों को लेकर जो फिल्में बनती हैं,उन्हें अमूमन देशभक्ति की फिल्में माना जाता है। हालांकि हर किसी के लिए देशभक्ति की परिभाषा अलग हो सकती है। इधर बॉलीवुड में भी देश भक्ति के मायने स्वतंत्रता सेनानियों तक ही सीमित नहीं रहे हैं,बल्कि और ज्यादा व्यापक हो चुके हैं।
उसी व्यापकता का उदाहरण है अक्षय कुमार की फिल्म ‘एअरलिफ्ट’ ,जिसकी कहानी देश की सीमा पर लड़ने वाले वीरों की नहीं है। और न ही देश की आजादी के लिए लड़ने वाले षहीदों की है। ‘एअरलिफ्ट’ का कथानक कुवैत में फंसे भारतीयों को सुरक्षित देश वापस लाने पर आधारित है।
वैसे कारगिल युद्ध के बाद बॉलीवुड में एक बार फिर देशभक्ति जागा था।और 2003 में निर्माता निर्देशक जे.पी. दत्ता ने भारत के कारगिल शिखर पर पुनः कब्जा करने के तुरंत बाद ‘‘एलओसीः कारगिल‘‘ का निर्माण किया! लेकिन वह राष्ट्रीय मनोदशा को पढ़ने में विफल रहे! इसे सफलता नसीब नही हुई।
बॉलीवुड में 1990 और 2000 के दशक के बीच देशभक्ति पर ‘बॉर्डर’,‘एलओसी’, ‘कारगिल’, ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ और द ‘राइजिंग ब्लड ऑफ मंगल पांडे’ सहित कई फिल्में बनीं! इन सभी की कहानी स्वतंत्रता सेनानियों और युद्ध पर आधारित थी! मगर लोग काफी उत्तेजित नहीं हुए और इनमें से अधिकांश फिल्मों के प्रति उदासीन रहे। वहीं पिछले कुछ वर्षों में ‘फना’, ‘न्यूयॉर्क’, ‘माई नेम इज खान’, ‘द वेडनेसडे’,‘हॉलीडे ए सोल्जर नेवर ऑफ ड्यूटी’,‘स्वदेश’ ‘रंग दे बसंती’,‘चक दे इंडिया’,‘स्पेशल 26’, ‘बेबी’,‘मैरी कॉम’और ‘घायल वंस अगेन’जैसी कई फिल्में आई,जिनके बाद कहा जाने लगा अब बॉलीवुड में देशभक्ति की फिल्मों की अवधारणा बदलकर ज्यादा व्यापक हो गई है।
माना कि ‘चक दे इंडिया’ और ‘राजी’जैसी फिल्मों ने देशभक्ति जगाने का काम किया,मगर विशुद्ध राष्ट्रवादी कथानक और सत्य घटना पर आधारित इन फिल्मों में फिल्मकार ने एक सोचे समझे मंतव्य से कथा के चरित्रों के मूल स्वरूप को बदल कर एक वर्ग विशेष के प्रति सहानुभूति जगाने का प्रयास ज्यादा करते हुए नजर आते है।
मौजूदा दौर में फिल्म निर्माताओं के लिए सामाजिक सरोकारों जैसे आतंकवाद सेक्स ट्रैफिकिंग धार्मिक अंधविश्वास और राजनीतिक भ्रष्टाचार जैसे विषयों को फिल्म में दर्शाना भी अब देश भक्ति है। फिल्म उद्योग के विशेषज्ञों की माने तो इससे उस बदलाव का साफ पता चलता है कि दर्शक अपने आसपास के सामाजिक विष को देखना चाहता है।
माना कि 2014 में सरकार बदलने के बाद से तमाम कलाकारों और फिल्म सर्जकों के अंदर ‘राष्ट्वाद’कुछ ज्यादा ही हिलोरे मार रहा है। परिणामतः एक बार फिर देशभक्ति व ‘राष्ट्रवादी‘ फिल्मों की बाढ़ सी आ गयी है।लेकिन इसके उत्साह का रंग निश्चित रूप से बदल गया है।1943 में प्रदर्षित फिल्म ‘किस्मत’ का गैर- सांप्रदायिक आह्वान ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों‘ और गत वर्ष की देशभक्ति वाली फिल्म ‘उरीः द सर्जिकल स्ट्राइक’ में काफी अंतर नजर आता है। ‘उरी’ में अहसास होता है कि अति राष्ट्रवादी जोश को ठॅंूसा गया है।यह फिल्मकार व कलाकार दोनों की कमजोरी है।मगर वर्तमान सरकार भी ‘अति राष्ट्वाद’को ही प्रधानता देती है। इतना ही नही मनोज कुमार की 1967 की फिल्म ‘उपकार’ अथवा 1970 की फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ में जो देशभक्ति थी,वह बदलकर 1997 की ‘बाॅर्डर’ में देशभक्ति से कहीं अधिक आदर्शवादी नैतिकता हो गयी थी।इतना ही नही पिछले छह सात वर्ष के दौरान अक्षय कुमार की देशभक्ति वाली फिल्मों में अलग रंग नजर आता है।
मेघना गुलजार निर्देषित फिल्म ‘राजी’ से वतन परस्ती का जो मुद्दा फिल्म में उभकर आया,वह उसके बाद ‘परमाणु’,‘मुल्क’,‘सत्यमेव जयते’,‘गोल्ड’, ‘विष्वरूप’ में और अधिक मुखर हुआ।उसके बाद ‘पलटन’, ‘केसरी’, ‘मणिकर्णिका’, ‘‘मिशन मंगल‘‘, ‘‘परमाणुः द स्टोरी ऑफ पोखरण‘‘, ‘‘राजी‘‘, ‘‘द गाजी अटैक‘‘ ,‘भारत’, ‘कलंक’,‘उरी’,‘बाटला हाउस’, ‘सत्यमेव जयते 2’,तान्हाजीःद अनसंग हीरो’,‘षेरषाह’जैसी देशभक्ति की बात करने वाली फिल्मों में से कुछ ने जलवा दिखाया। इन फिल्मांे में ब्रिटिष राज के दौर के साथ ही जंग ए आजादी की गूंूज सुनाई दी।अब इन फिल्मों की संख्या के बढ़ने की मूल वजह यह है कि अब दर्षक भी अपने देश की संस्कृति व वतन परस्ती वाली कहानियां देखना व सुनना चाहता है।वैसे भी वर्तमान केंद्र सरकार की सोच के चलते भी इन दिनों राष्ट्ीयता की बातें ज्यादा की जा रही है।कुछ फिल्में सीधे देश प्रेम व देशभक्ति की बात करती हैं,तो वहीं ‘सत्यमेव जयते’ व ‘मुल्क’ जैसी कुछ फिल्मों में यह बाते अपरोक्ष रूप से की गयी हैं।मगर कई फिल्में देखकर लगता है कि बॉलीवुड के लिए शुद्ध देशभक्ति एक रूढ़िवादी विचार है। अनूप जलोटा इस संदर्भ में कहते हैं-‘‘ऐसा कर वह सरकार की नजर में खुद को अच्छा साबित करना चाहते हैं। यानी कि सरकार की‘गुड बुक’में आने के लिए प्रयासरत हैं।’’
फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ‘उरीःद सर्जिकल स्ट्ाइक’ हो अथवा ‘केसरी’ हो अथवा ‘पलटन’ हो ‘षेरषाह’ हो, इन फिल्मों के माध्यम से देशवासियों ने देश की खातिर सरहद पर मर मिटने वाले शहीदों की शहादत का आखों देखा हाल देखा। बॉलीवुड की ‘हकीकत’ या ‘बाॅर्डर’ जैसी कई फिल्मों के माध्यम से देशवासियों ने देखा व अहसास किया कि आजादी की जंग कैसे लड़ी गई? जंग में जवानों को किन कठिनाइयों से होकर गुजरना पड़ा?
वैसे माना जाता है कि सिनेमा समाज व वास्तविक जीवन का प्रतिबिंब है। इस तर्ज पर देखें तो स्वतंत्रता के बाद सभी प्रकार की फिल्में बनाई गईं।संगीत के साथ रोमांस और पारिवारिक सामाजिकता ने 1960 के दशक की शुरुआत तक अच्छी तरह से काम किया। 70 के दशक के मध्य में, चलन स्थापना विरोधी फिल्मों का था। इसके बाद अनिश्चितता का दौर आया जब कोई नहीं जानता था कि क्या काम करेगा। केवल रोमांटिक संगीत बनाना ही सुरक्षित माना जाता था।अभी भी शुद्ध देश भक्ति भारतीय फिल्मों से गायब होती जा रही है।अब तो ज्यादातर फिल्मों में हमारे सुरक्षा बलों को अत्याचारी और आततायी बताया जाता है, पुलिस तंत्र को भ्रष्ट बताया जाता है। अब तो ऐसी फिल्में बन रहीं हैं जो कभी ढके छुपे तरीके से तो कभी खुलेआम देशद्रोही और समाज और परिवार तोड़क विचारों और कथाओं का प्रतिपादन करती प्रतीत होतीं हैं, अपराधी तत्वों का महिमा मंडन करती हैं।
फिल्मकार पश्चिम की तथाकथित कलात्मक फिल्मों से प्रेरणा लेते हुये ऐसी फिल्में बना रहे हैं जो आतंकवादी और अलगाववादियों की विचारधाराओं के प्रति अधिक संवेदना रखतीं हैं, भारत के आंतरिक सुरक्षा संस्थानों को नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। कभी कभी उनसे शत्रु देशों की आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली एजेंसियों के समतुल्य स्थापित करने के छद्म षड्यंत्रों की भनक भी मिलती है।
लेकिन पिछले छह सात वर्ष से बॉलीवुड राष्ट्वाद के पदचिन्हों पर चलते हुए देशभक्ति व देशप्रेम की बात करने लगा है।लेकिन इन फिल्मों में ‘किस्मत’या ‘उपकार’ वाली बात नजर नही आती।