साल 2011 सिनेमा जगत के लिए गोल्डन ईयर था। जहाँ डेल्ही-बेली, रॉकस्टार, द डर्टी पिक्चर जैसी बिलकुल हट के फिल्में सुपर-हिट हुई थीं वहीं जुलाई में 'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा' बिना किसी हो-हल्ले के रिलीज़ हुई और धीरे-धीरे पहले सिनेमा पर फिर लोगों के दिल में अपनी जगह बढ़ाती चली गयी।
फ़रहान जिसके चेहरे पर मुस्कान है, नज़र फ़्लर्टी है पर दिल सूना है
इस फिल्म को जब मैंने पहली बार देखा तो लगा, हाँ ठीक है ट्रेवलिंग को, स्पेशली स्पेन टूरिज़्म को प्रोमोट करने के लिए ज़ोया-अख़्तर ने एक फिल्म बनाई है जो बुरी नहीं है, एक बार देखी जा सकती है। हल्की-फुल्की कॉमेडी है इसमें, ज़रा बहुत मैसेज भी हैं और कुछ अच्छे गाने हैं, बस! ऐसी ही लगती है ये फिल्म जब आप इसे पहली बारे देखते हैं। फिर आपको कुछ ऐसे दोस्त मिलते हैं जो इस फिल्म के बारे में चर्चा कर रहे होते हैं।
आप दोबारा इस फिल्म को देखते हैं, अब आपको ये फिल्म पिछली बार से थोड़ी और बेहतर लगती है। इसके मुख्य करैक्टर कबीर (अभय देओल), अर्जुन (ह्रितिक रोशन) और इमरान (फ़रहान अख़्तर) में से किसी एक से आप अपनी ज़िन्दगी रिलेट करने लगते हैं। पहली नज़र में ज़्यादातर लोगों को अपनी ज़िन्दगी फ़रहान के ज़्यादा पास लगती है। फ़रहान जिसके चेहरे पर मुस्कान है, नज़र फ़्लर्टी है पर दिल सूना है। अपने मन की बात सिर्फ अपने तक रखता है।
ज़िन्दगी के कॉलेज वाले दौर में इस फिल्म को देखकर हमें फ़रहान में अपना अक्स नज़र आता है। फिर ज़िन्दगी कैम्पस से बाहर निकलती नहीं है कि ये फिल्म एक बार फिर देखने का मन करता है, तब हमें हमारी कहानी ज़रा-बहुत अर्जुन के क़रीब लगती है। अर्जुन जो ख़ुश रहना भूल चुका है, अर्जुन जिसने ज़िन्दगी में पैसे की इतनी क़िल्लत देखी है, उसकी माँ ने इतनी मुसीबतें झेली हैं कि वो ज़िन्दगी के चालीस बरस तक सिर्फ पैसा कमाना चाहता है। इस पैसे की भाग-दौड़ में वो सबसे इतना आगे निकल गया है कि सारे रिश्ते उससे छूट गए हैं।
दूर गाँव से आकर शहरों में नौकरी करते वक़्त कई बार आपको भी कुछ ऐसा ही एहसास होता है न?
'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा' सिर्फ एक फिल्म नहीं है, ये लाइफ जर्नी है
फिर भी, एक लम्बे अरसे तक हम कबीर नामक करैक्टर को अपने दोस्तों में, जानकारों में तो देखते हैं मगर ख़ुद से रिलेट नहीं कर पाते। लेकिन वो मुकाम भी आता है कि जब हमें लगता है कि हमने ज़िन्दगी का कोई बहुत बड़ा फैसला बिना ख़ुद को राज़ी किए कबूल कर लिया है। कबूल भी क्या कर लिया गया, बस सबको भ्रम हो गया कि हम राज़ी हैं और किसी को बुरा न लग जाए इसलिए हमने कोई आपत्ति भी नहीं जताई। यही तो है कबीर, अपने दोस्तों के साथ मस्ती करता, बहुत बहुत पैसे वाला लेकिन ख़्वाहिशों के मामले में बिलकुल ग़रीब। एक स्पेन ट्रिप के अलावा कोई ख़्वाहिश ही नहीं बची है उसकी। वो स्पेन ट्रिप को ऐसे जी रहा है मानों सच में उसे दोबारा ज़िन्दगी नहीं मिलेगी।
आप जितनी बार इस फिल्म को देखते जाते हैं उतनी बार ये फिल्म पिछली बार से बेहतर, ख़ुद के ज़्यादा क़रीब और ख़ूबसूरती के नए पैमाने सिखाती नज़र आती है।
'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा' सिर्फ एक फिल्म नहीं है, ये लाइफ जर्नी है, जो कभी अच्छी, कहीं बहुत अच्छी और कभी थोड़ी कड़वी भी लग जाती है। पर क्या करें, ये ही तो लाइफ है।
इमरान जब अर्जुन से उसकी गर्लफ्रेंड के साथ चीट करने को लेकर माफ़ी मांगता है तब अर्जुन अपने दिल पर अंगूठा ठोकते हुए कहता है 'जब यहाँ से निकले न, तब कहना सॉरी'
ये एक छोटा सा डायलॉग बहुत कड़वी सच्चाई मुँह पर मार देता है। हम जब भी किसी से माफ़ी मांगते हैं तब क्या वाकई वो माफ़ी दिल से मांगी होती है? क्या अपनी गलतियों के लिए हम दिल से शर्मिन्दा होते हैं? ख़ैर ये दो लाइन का सवाल किसी एक लाइन के जवाब से संतुष्ट नहीं हो सकता है।
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें अकेले देखना बेहतर होता है। कुछ फिल्में परिवार के साथ देखने के लिए बनी होती हैं। कुछ को आप अपने पार्टनर के साथ ही देखना पसंद करते हो तो कुछ एक फिल्में दोस्तों के साथ ज़्यादा मज़ेदार लगती हैं। 'ज़िन्दगी न मिलेगी...' वो फिल्म है जिसे आपको सबके साथ एक-एक बार देखनी चाहिए। अकेले देखकर आप ख़ुद को बेहतर जान सकोगे, परिवार के साथ देखकर आप अपने परिवार की इम्पोर्टेंस बेहतर समझ सकेंगे। दोस्तों के साथ देखेंगे तो फिर भीगी आँखें लिए एक और ट्रिप करने का बहाना मिल जायेगा और पार्टनर के साथ देखते वक़्त आपको ये फिल्म 'सम्पूर्ण' होने का एहसास करवा जायेगी।
हो सकता है आपको इनमें से कुछ एक बातें अतिश्योक्ति लगें पर मेरा यकीन कीजिए, सीधी सी कहानी लिए स्पेन ट्रिप पर बुइक सुपर (Buick super car) के साथ चलती और साधारण सी लगती ये फिल्म आपको जीवन के हर मोड़ पर ज़िन्दगी का आइना बनी नज़र आयेगी।
ऊपर मैंने लिखा ही कि हम इस फिल्म को देख इमरान में खुद को देखते हैं या अर्जुन में, किसी-किसी को कबीर का करैक्टर भी ख़ुद सा लग सकता है पर ज़रा सोचिए कभी, इस फिल्म का सबसे इम्पोर्टेन्ट करैक्टर कौन है?
लैला! (कैटरीना कैफ)
वो लैला थी जो कहाँ से आई और कहाँ गयी इसका कोई ओर-छोर नहीं है पर उसने अर्जुन के शरीर में दोबारा से ज़िन्दगी फूंक दी। ख़ुद में किसी करैक्टर को ढूंढना अच्छा है पर कभी किसी की ज़िन्दगी में ऐसा करैक्टर बनने की कोशिश ज़रूर कीजिए जो उसे उसकी ज़िन्दगी वापस लौटा दे।
क्योंकि ये ज़िन्दगी एक ही है, ये दोबारा नहीं मिलती और अफ़सोस, ज़्यादातर लोग इतनी क़ीमती बात जबतक समझते हैं तब तक बूढ़े हो चुके होते हैं।
आज 9 जनवरी को इमरान यानी फ़रहान अख़्तर का जन्मदिन है और कल हमारे अर्जुन यानी ह्रितिक रोशन अपना बर्थडे मनायेंगे। दोनों को उनकी ख़ूबसूरत ज़िन्दगी के लिए और इस जन्मदिन के लिए बहुत बहुत बधाई। आप भी अपना वीकेंड अपनों संग एक ख़ूबसूरत फिल्म देखते हुए बिताइए।
'>सिद्धार्थ अरोड़ा 'सहर'