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Movie Review: हम दो हमारे दो के साथ ही नहीं, पूरे खानदान के साथ बैठकर देख सकते हैं यह फिल्म

Movie Review: हम दो हमारे दो के साथ ही नहीं, पूरे खानदान के साथ बैठकर देख सकते हैं यह फिल्म
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बड़े बुज़ुर्ग कह गए हैं कि जो चीज़ सहज उपलब्ध होती है इंसान उसकी कद्र नहीं करता। वहीं जो चीज़ तरस के मिलती है, जिसके लिए मशक्कत करनी पड़ती है, उसकी वैल्यू भी ज़्यादा होती है।

कहानी चंडीगढ़ आउटर पर प्रेमी दा ढाबा से शुरु होती है। यहाँ एक बच्चा, बालप्रेमी (सार्थक शर्मा) बहुत होशियार है। ढाबा मालिक प्रेमी उर्फ पुरुषोत्तम मिश्रा (परेश रावल) ढाबे पर आई एक फैमिली की महिला पर फिदा है लेकिन कहने से डरता और 'जीता था जिसके लिए' टाइप गाने बजाता है। वो महिला दीप्ति कश्यप (रत्ना पाठक) उस बच्चे को समझाती है कि वो जो चाहे अपना नाम रख सकता है।

बच्चा उसके जाने के बाद फैमिली बनाने के लिए लालायित हो जाता है। सीन चेंज, बच्चा बड़ा होकर सुपर कमांडो ध्रुव से इंस्पायर होकर ध्रुव (राजकुमार राव) बन गया। अब वो एंटरप्रेनौर है। वर्चुअल वर्ल्ड एप बनाता है। इसी एप की लॉन्च पार्टी में उसे फ्रीलान्स जर्नलिस्ट आन्या (कृति सेनन) मिलती है और दोनों को ट्विस्टी अंदाज़ में प्यार हो जाता है। लेकिन आन्या सिर्फ उसी लड़के से शादी करना चाहती है जिसकी अपनी फैमिली हो, और घर में एक कुत्ता भी हो। इसके पीछे की वजह भी वाजिब बताई है।

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अब बिन माँ-बाप का ध्रुव अपने दोस्त शंटी (अपारशक्ति खुराना) की मदद से दीप्ति और पुरुषोत्तम को अपना माँ-पा बनाकर ले आता है। यहाँ से ह्यूमर का डबल डोज़ शुरु होता है।

डायरेक्टर अभिषेक जैन की फीचर फिल्मिंग में यह पहली कमर्शियल और बड़ी फिल्म हो सकती है। पर वह सांवरिया के समय से संजय लीला भंसाली को असिस्ट कर रहे थे। इसलिए फिल्म देखने पर आपको हैरानी हो कि ये पहली फिल्म वाला डायरेक्शन तो नहीं लग रहा, तो हैरान मत होइयेगा। अभिषेक ने फिल्म को फ्रेम बाई फ्रेम बहुत सुंदर और बहुत एंगेजिंग रखा है। फिल्म की ग्रिप कहीं भी टूटने नहीं दी है।

ग्रिप के लिए स्क्रीनप्ले की तारीफ करनी भी ज़रूरी है। प्रशांत झा ने भरसक कोशिश की है कि कहानी लॉजिकल लगे। उन्हें कहीं कुछ भी क्लीशे नहीं होने दिया है।  डायलॉग्स की बात करूं तो पंच लाइन्स बहुत हैं, पर कोई भी ओवर नहीं लगती। हाँ, अंत थोड़ा और बेहतर लिख सकते थे।

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डायलॉग – “हमारी मजबूरी थी जो हमने शराब पी
क्यों क्या मजबूरी थी
मजबूरी ये थी कि हमें शराब अच्छी लगती है”

हर बच्चे को अपना नाम, अपना काम और अपनी दारु चुनने का हक़ होना चाहिए

राजकुमार राव अच्छे एक्टर हैं और अपने टिपिकल रोल में नज़र आए हैं। कुछ नया न करते हुए भी वह जमे हैं।

कृति सेनन एक्टिंग में एक लेवल और ऊपर उठ गई हैं। मीमी का ग्राफ उन्होंने गिरने नहीं दिया।

परेश रावल की एक्टिंग की तारीफ करना सूरज को दीया दिखाना है। ऐसा लग रहा था कि उन्हें छुट्टा छोड़ दिया है कि सर ये करैक्टर है, इसको आप समझ ही चुके हैं, अब आगे जो अच्छा लगता है वो आप कीजिए। और परेश रावल ने कर दिखाया है। उनकी कॉमिक टाइमिंग, उनके विटी डायलॉग्स फिल्म में फूहड़ कॉमेडी नहीं, हाई लेवल ह्यूमर लाते हैं।

यही बात रत्ना पाठक के लिए भी कही जा सकती है। इमोशनल सीन्स हों या एंग्री मोमेंट, रत्ना पाठक पूरी फिल्म पर भारी हैं।

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मनुऋषि चड्ढा के तो कहने ही क्या, उन्हें देखकर कभी लगा ही नहीं कि वो एक्टिंग कर रहे हैं।

अपारशक्ति खुराना ख़ुद को रिपीट कर रहे हैं। पर फिल्म की डिमांड के हिसाब से जमे हैं।

यही हाल सानंद वर्मा का है। वो वही भाभीजी के आई-लाइक इट वाले करैक्टर में अटके हुए हैं।

इनके इतर, प्राची शाह पांड्या और मेज़ेल व्यास की एक्टिंग भी बहुत अच्छी है. ख़ासकर मेज़ेल व्यास को मिला एक सीन, उनकी बेहतरीन एक्टिंग स्किल्स को

फिल्म का म्यूजिक भी फिल्म पर सूट करता है। बहुत समय बाद एक फिल्म के पाँच गाने एक ही संगीतकार टीम सचिन-जिगर के जिम्मे थे। मास्टर सलीम की आवाज़ में दम गुटकूं नामक ट्रेडिशनल गीत अच्छा बना है। रेखा भारद्वाज की आवाज़ में वेधा सजेया भी अच्छा गाना है। गीत शैलेन्द्र सिंह सोढ़ी ने लिखे हैं।

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फिल्म की एडिटिंग अच्छी हुई है। दो घंटे में फिल्म की पूरी कहानी फटाफट खत्म कर दी है, अंत में थोड़ी फुटेज और दे सकते थे।

कुलमिलाकर बहुत समय बाद यह एक फिल्म आई है जो पूरी फैमिली के साथ बैठकर, फैमिली की वैल्यू को देखकर, हँसते-खेलते देखी जा सकती है।

रेटिंग – 8/10*

सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’

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