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-
शा
न्तिस्वरुप
त्रिपाठी
आर्मी
बैकग्राउंड
में
पली
बढ़ी
और
राष्ट्रीय
नाट्य
विद्यालय
की
छात्रा
रही
मीता
व
शि
ष्ठ
ने
1989
में
यश
चोपड़ा
निर्दे
शि
त
फिल्म
‘‘
चांदनी
’’
से
बॉलीवुड
में
कदम
रखा
था।
पिछले
31
वर्ष
के
अपने
कैरियर
में
उन्होने
कई
मुकाम
हासिल
किए
हैं
।
मीता
व
शि
ष्ठ
ने
थिएटर
,
टीवी
,
फिल्मों
और
वेब
सीरीज
हर
जगह
अपने
अभिनय
का
डंका
बजाया।
तो
वहीं
उन्होंने
‘
यश
राज
फिल्मस
’
की
फिल्म
‘‘
लागा
चुनरी
में
दाग
’
में
थीम
सांग
को
शु
भा
मुद्गल
के
साथ
गाया।
इसके
अलावा
वह
‘
मन
के
मंजीरे
’
एलबम
के
लिए
भी
गा
चुकी
हैं।
इसके
वीडियो
में
अभिनय
भी
किया
था।
उन्होने
मणि
कौल
,
सुभाष
घई
,
गोविंद
निहलानी
,
कुमार
साहनी
जैसे
दिग्गज
निर्दे
श
कों
के
साथ
‘
दृष्टि
’
,‘‘
द्रोहकाल
’’
, ‘‘
गुलाम
’’
, ‘‘
ताल
’’
,‘‘
फिर
मिलेंगें
’
, ‘
अंतहीन
’
, ‘
गंगूबाई
’
जैसी
कई
सफलतम
फिल्में
की।
अपने
नाटक
‘‘
लाल
डेड
’’
पर
एक
सीरियल
का
निर्माण
व
निर्दे
श
न
किया।
अपनी
संस्था
‘
मंडला
’
के
तहत
उन्होने
रिमांड
होम
में
रह
रही
लड़कियों
को
चार
वर्ष
तक
कला
की
शि
क्षा
दी।
कई
लघु
फिल्मों
का
निर्माण
व
निर्दे
श
न
किया।
इंग्लैंड
सहित
कई
देशों
में
अभिनय
के
वर्कशॉप
किए।
इन
दिनों
वह
गजेंद्र
एस
श्रोत्रिय
निर्दे
शि
त
फिल्म
‘‘
कसाई
’’
को
लेकर
चर्चा
में
हैं
,
जिसमें
उन्होने
लीड
किरदार
निभाया
है।
/mayapuri/media/post_attachments/c0d78f897b7c2b787845cfe119dfe388997f9828aaec4d3fa976513345d7e04f.jpg)
प्रस्तुत
है
मीता
व
शि
ष्ठ
से
हुई
एक्सक्लूसिब
बातचीत
के
अं
श
.
फिल्म
‘‘
कसाई
क्या
है।
इस
फिल्म
से
जुड़ने
की
क्या
वजह
रही
?
मैं
हमे
शा
चुनिंदा
फिल्में
ही
करती
हूं
।
फिल्म
‘
कसाई
’
भी
एक
खास
फिल्म
है।
यह
फिल्म
राजस्थान
के
लेखक
चरण
सिंह
पथिक
की
लिखी
हुई
है।
उनका
लेखन
बहुत
सुन्दर
है।
चरण
सिंह
पथिक
को
आधुनिक
प्रेमचंद
की
संज्ञा
दी
जा
सकती
है।
सच
कहूँ
तो
जब
फिल्म
के
निर्दे
श
क
गजेंद्र
एस
श्रोत्रिय
जी
ने
मेरे
पास
यह
पटकथा
भेजी
थी
,
तो
मैने
तीन
माह
तक
इसे
पढ़ा
ही
नहीं।
उन्होंने
मुझे
कई
बार
याद
दिलाया।
पर
मैं
उन्हे
जानती
नही
थी।
फिर
उन्होने
मुझे
अपनी
पहली
राजस्थानी
फिल्म
‘‘
भोभर
’
देखने
के
लिए
भेजी।
मैंने
फिल्म
देखी
और
मैंने
मना
कर
दिया।
मैंने
उनसे
साफ
साफ
कह
दिया
कि
फिल्म
देखकर
मेरी
समझ
में
आ
गया
कि
आपका
लेखन
व
संवाद
उत्कृष्ट
हैं
।
मगर
तकनीकी
स्तर
पर
आपका
काम
सही
नही
है।
तकनीकी
रूप
से
कमजोर
लोगों
के
साथ
काम
नहीं
कर
सकती।
तब
उन्होंने
इस
बात
को
माना
और
कहा
कि
इस
बार
वह
बेहतरीन
तकनीकी
टीम
ले
रहे
हैं
।
/mayapuri/media/post_attachments/cc53e3c24afc36b03c91999d68022640c2a8d89fbde6198fe3b60c91dfc1a85f.jpg)
उन्होने
बताया
कि
कैमरामैन
वगैरह
एफटीआई
से
हैं।
इसके
अलावा
इस
फिल्म
से
जुड़े
कुछ
कलाकार
,
जो
कि
मेरे
परिचित
हैं
,
उन्होंने
भी
फोन
करके
कहा
कि
मैं
पटकथा
पढ़
लूं।
इसमें
मेरा
किरदार
बहुत
स
श
क्त
और
अच्छा
है।
तब
मैने
पटकथा
पढ़ी।
मुझे
स्किप्ट
अच्छी
लगी।
मेरा
इसमे
लीड
किरदार
है।
यह
कहानी
सत्य
घटनाक्रम
पर
है।
यह
कहानी
उस
मां
की
पीड़ा
की
है
,
जिसकी
आँखों
के
सामने
उसके
पति
गलती
से
,
मगर
गुस्से
में
उसके
18
वर्षीय
बेटे
सूरज
की
हत्या
कर
देते
हैं।
यह
सरपंच
के
चुनाव
का
वक्त
है।
सूरज
का
प्रेम
विरोधी
पक्ष
की
लड़की
से
है।
अब
यह
मां
बेहाल
है।
उसे
लगता
है
कि
उसके
ससुर
व
उसके
पति
ने
कैसे
उसके
जवान
बेटे
को
मार
डाला।
उपर
से
ससुर
व
पति
उसे
कई
तरह
के
दबाव
में
रखते
हैं।
उसे
कुछ
करने
या
कहने
नहीं
देते।
काफी
रोचक
किरदार
है।
जबकि
मां
बार
बार
अपने
बेटे
को
पति
के
गुस्से
बचाती
रहती
है।
उसे
वह
अपने
भाई
के
यहां
भी
भेजती
है
,
पर
बेटा
अपने
मामा
के
यहां
नही
जाता
और
एक
दिन
आधी
रात
में
बीमार
अवस्था
में
वह
वापस
आता
है
,
तो
गुस्से
में
उसका
पिता
ही
उसे
पीटकर
मार
डालता
है।
यह
मां
अपनी
तरफ
से
लड़ने
की
कोषिष
भी
करती
है।
/mayapuri/media/post_attachments/6424dc8a23e045d76f51227f994bef3ae1f7339eb7e042d3b059b76c0f4a0387.jpg)
तो
यह
एक
रोचक
कहानी
है।
मेरे
लिए
एक
कलाकार
के
तौर
पर
चुनौती
यह
थी
कि
मैं
कहीं
इसे
रोने
धोने
वाली
माँ
न
बना
दॅूं।
तो
मेरे
लिए
चुनौती
थी
कि
उसके
दर्द
व
शो
क
को
आत्मा
में
उतार
दूं।
उसका
पूरा
श
रीर
चलता
फिरता
बेजान
,
करुण
रस
से
भरा
हुआ
होना
चाहिए
था।
दुःख
इतना
अपार
है
कि
उसके
आंसू
नही
निकलते
,
मगर
उसका
दुःख
इतना
महीन
हो
जाए
कि
उसकी
सांसों
में
भी
बस
जाए।जिससे
रोने
या
आंसू
बहाने
की
जरुरत
ही
न
पड़े।
फिल्म
‘‘
कसाई
के
अपने
किरदार
को
लेकर
क्या
कहेंगी
?
मैंने
इसमें
राजस्थानी
ग्रामीण
परिवार
की
बहू
गुलाबी
का
किरदार
निभाया
है
,
जिसके
ससुर
गांव
के
सरपंच
हैं।
जबकि
पति
लखन
बहुत
गुस्सैल
व
अधीर
किस्म
का
इंसान
है।
पूरा
परिवार
पितृसत्तात्मक
सोच
वाला
है।
इसलिए
हर
मसले
पर
गुलाबी
को
दबाकर
रखा
जाता
है।
मगर
वह
अपनी
बात
कहने
से
पीछे
नहीं
हटती।
पति
द्वारा
बेटे
की
हत्या
किए
जाने
के
बाद
वह
बेटे
को
न्याय
दिलाने
की
आवाज
उठाती
है।
वह
छिपकर
पुलिस
में
भी
शि
कायत
दर्ज
कराती
है।
मगर
ससुर
पुलिस
को
पैसा
देकर
मुंह
बंद
कर
देते
हैं।
इतना
ही
नही
गुलाबी
को
दबाने
के
लिए
उसके
दुःख
को
समझने
की
बजाय
उसका
पति
उसके
साथ
बलात्कार
करता
है
,
तो
वह
चुप
नही
रहती।
उसके
अंदर
जो
श
है।
वह
बेटे
को
न्याय
दिलाना
चाहती
है
,
तो
वहीं
वह
बेटे
की
प्रेमिका
से
भी
मिलती
है।
तो
गुलाबी
के
चरित्र
के
माध्यम
से
इस
बात
का
रेखांकन
है
कि
एक
औरत
किस
तरह
से
यातनाएं
झेलती
है।
और
किस
तरह
वह
हर
बार
सही
बात
के
लिए
लड़ती
है।उसे
अपनी
जान
की
भी
परवाह
नही
रहती।
अंततः
एक
इंतहां
पर
पहुँच
कर
वह
अपने
पति
व
ससुर
का
भांडा
पूरे
गांव
के
सामने
फोड़
देती
है।
यह
रोने
धोने
वाली
या
छाती
पीटने
वाली
माँ
नहीं
है।
फिल्म
के
निर्दे
श
क
गजेंद्र
एस
श्रोत्रिय
के
संग
काम
करने
के
अनुभव
क्या
रहे
?
निर्दे
श
क
गजेंद्र
एस
श्रोत्रिय
इस
बात
को
समझकर
चल
रहे
थे
कि
उन्होने
अपनी
फिल्म
में
सभी
मंजे
हुए
कलाका
रों
को
चुना
है
,
तो
इन्हे
परफार्म
करने
के
लिए
पूरी
छूट
दी
जानी
चाहिए।
तो
उनके
साथ
काम
करने
के
अनुभव
अच्छे
रहे।
वास्तव
में
एक
निर्दे
श
क
को
सभी
किरदारों
के
साथ
साथ
पूरी
फिल्म
को
ध्यान
में
रखना
होता
है
,
पर
पटकथा
को
पढ़ने
व
अपने
किरदार
को
समझने
के
बाद
मेरे
लिए
अपने
किरदार
के
साथ
न्याय
करने
की
चुनौती
थी
,
जिसे
करने
में
उन्होने
मुझे
पूरी
छूट
दी।
टीम
अच्छी
थी।
हमने
पथिक
जी
के
घर
में
ही
शू
टिंग
की।
इस
किरदार
को
निभाने
के
लिए
आपके
पास
कोई
रिफ्रेंस
प्वांइंट
था
?
ऐसा
नही
है।
एक
मुकाम
के
बाद
हम
कलाकार
के
तौर
पर
रिफ्रेंस
प्वाइंट
पटकथा
और
अपने
जीवन
के
अनुभवो
से
लेते
हैं।
निजी
जीवन
में
जब
हम
किसी
से
मिलते
हैं
,
उससे
बातें
करते
हैं
,
तो
वह
सब
हमारे
‘
सब
कां
शि
यस
माइंड
’
में
जमा
हो
रहता
है
,
जो
कि
किसी
किरदार
को
निभाते
समय
काम
आता
है।
पर
एक
चीज
को
कलात्मक
तरीके
से
पे
श
करने
के
लिए
जरुर
सोचना
पड़ता
है।
मसलन
-
पति
द्वारा
गुलाबी
के
बलात्कार
का
सीन
है
।
तो
वह
पति
पत्नी
हैं।
मगर
कई
बार
पत्नी
की
इच्छा
न
होने
पर
जब
पति
उसके
साथ
जबरदस्ती
सेक्स
संबंध
बनाता
है
,
तो
उसे
बलात्कार
ही
कहा
जाएगा
,
मगर
इस
बलात्कार
में
वह
बेहाल
हो
जाए
,
ऐसा
नही
हो
सकता।
वह
उसके
खिलाफ
शि
कायत
करने
नहीं
जाएगी
कि
मेरे
पति
ने
मेरे
साथ
यौन
संबंध
बनाए
,
क्योंकि
पति
पत्नी
के
बीच
यौन
संबंध
बनते
रहते
हैं।
मगर
उसका
प्रतिकार
जबरदस्त
है।
वह
पति
के
गुप्तांग
पर
चोट
पहुंचाते
हुए
कहती
है
, ‘‘
मेरे
बेटे
का
बाप
तो
बन
न
सका
,
मेरा
मरद
बनने
की
को
शिश
भी
मत
करना
.
मर्दानंगी
मत
जताओ।
’’
फिल्म
‘‘
कसाई
’’
में
पितृसत्तात्मक
सोच
व
राजनीति
पर
भी
बात
की
गयी
है।
इन
पर
आपकी
क्या
राय
है
?
मेरी
परवरि
श
पितृसत्तात्मक
सोच
के
साथ
नहीं
हुई
है।
फिल्म
के
अंदर
मेरा
गुलाबी
का
किरदार
इस
तरह
की
सोच
की
खिलाफत
करती
रहती
है।
पर
मुझे
लगता
है
कि
इस
फिल्म
में
मां
यानी
कि
मेरे
किरदार
को
थोड़ा
और
बढ़ाया
जाना
चाहिए
था।
पितृसत्तात्मक
सोच
की
खिलाफलत
के
ही
चलते
वह
पुलिस
में
शि
कायत
दर्ज
कराती
है।
जब
पुलिस
इंस्पेक्टर
जांच
करने
घर
आता
है
,
तो
खिड़की
से
गुलाबी
और
उसकी
देवरानी
कस्तूरी
देखती
रहती
है
कि
अब
पुलिस
क्या
करेगी
?
उस
वक्त
कुछ
अच्छे
सीन
फिल्माए
गए
थे
कि
गुलाबी
के
अंदर
जो
हलचल
मची
हुई
है
कि
उसने
जो
छिपकर
कदम
उठाया
है
,
उसका
क्या
होगा
?
यह
विनम्र
सीन
फिल्माए
गए
थे
,
पर
बाद
में
एडीटिंग
टेबल
पर
कैंची
चला
दी
गयी।
जबकि
मैने
निर्दे
श
क
से
कहा
था
कि
मां
और
इन
औरतों
के
दृश्य
पर
ध्यान
देना
चाहिए
अन्यथा
आधे
से
ज्यादा
फिल्म
तो
सिर्फ
राजनीति
पर
ही
है।
मेरी
राय
में
फिल्म
तो
गुलाबी
यानी
कि
मां
के
बलबूते
पर
है
,
ऐसे
में
मां
के
दृष्यों
पर
कैंची
नहीं
चलानी
चाहिए
थी।
पुलिस
द्वारा
घूस
लेने
के
दृष्य
को
छोटा
किया
जाना
चाहिए
था।
राजनीति
को
लेकर
क्या
सोच
है
?
मेरा
मानना
है
कि
राजनीति
ऐसी
होनी
चाहिए
,
जो
किसी
तरह
से
दे
श
या
समाज
की
आत्मा
का
उत्थान
करे।
हम
आज
भी
महात्मा
गांधी
या
लाल
बहादुर
शा
स्त्री
को
याद
करते
हैं
।
उन्होने
भी
राजनीति
की
,
पर
उनका
मकसद
पूरे
दे
श
के
हर
इंसान
का
उत्थान
करना
था।
आप
पूरे
इतिहास
पर
गौर
करें
,
तो
आपको
राजाओं
के
नाम
याद
नहीं
रहेंगें
,
कवियों
,
लेखक
,
संगीतकारो
के
नाम
याद
रहते
हैं।
कालीदास
400
बीसी
के
है
,
पर
लोगों
को
उनका
नाम
याद
है।
मेरा
मानना
है
कि
समाज
का
,
लोगों
का
,
दे
श
का
डीएनए
कलाओं
में
है।
राजनीति
और
राजनीतिज्ञांे
को
समझना
चाहिए
कि
यदि
वह
कला
,
संगीत
,
कविता
,
कहानी
,
लोक
साहित्य
,
शि
क्षा
,
पेंटिंग्स
आदि
को
बढ़ाने
का
काम
करते
हैं
,
तो
इससे
समाज
व
दे
श
का
उत्थान
होगा।
फिर
इनके
साथ
आपका
नाम
जुड़ेगा
और
लोग
आपको
महान
कलाओं
के
साथ
याद
रखेंगें।
मगर
आप
अलग
राह
पकड़ेंगे
,
तो
कोई
याद
नहीं
रखेगा।
इतिहास
भी
भूल
जाएगा।
देखिए
,
इंसान
का
सबसे
पहला
संकेत
तो
कला
के
प्रति
था।
राजनीति
,
राजा
महाराजा
तो
बाद
में
आए।इंसान
ने
अपने
इंसान
होने
को
कला
के
माध्यम
से
ही
जाहिर
किया
था।
अगर
आपको
जीवन
जीने
के
लिए
षुद्ध
अन्न
,
हवा
और
पानी
चाहिए
,
तो
आत्मा
के
लिए
कला
,
साहित्य
,
संगीत
,
शि
क्षा
,
पेटिंग्स
भी
चाहिएं
हर
राजनीति
का
मकसद
इन
चीजों
को
बढ़ाने
का
ही
होना
चाहिए।
तभी
आप
एक
देष
की
आत्मा
को
उठा
सकेंगें
वरना
हम
सभी
विखर
सा
जाएंगें।
हमारा
इतिहास
मटैरिय
लिस्टिक
नहीं
है।
जबकि
पूरे
विष्व
को
उठाने
की
सामग्री
भारत
दे
श
के
पास
है।
यह
ताकत
हमारी
सोच
,
हमारी
कलाओ
,
हमारे
साहित्य
,
हमारे
संगीत
,
हस्तकलाओं
,
लोकगीत
संगीत
में
है।
पर
इसे
पूरी
तरह
से
समझने
की
जरुरत
है।
वैसे
भी
नास्त्रोदम
ने
कहा
है
कि
भविष्य
में
पूरे
विष्व
का
नेतृत्व
भारत
ही
करेगा।
वैसे
मुझे
राजनीति
की
ज्यादा
समझ
नही
है।
मैं
कलाकार
हूँ
।
कला
के
बारे
में
ही
सोचती
रहती
हूं
।
इसके
अलावा
क्या
कर
रही
हैं
?
एक
फिल्म
‘‘
मिस्टर
पानवाला
’’
की
है।
फिर
वेब
सीरीज
‘
क्रिमिनल
जस्टिस
’
का
सीजन
दो
आने
वाला
है।
‘‘
योर
आनर
’’
का
दूसरा
सीजन
आने
वाला
है।
फिल्म
‘‘
मिस्टर
पानवाला
को
लेकर
क्या
कहेंगी
?
यह
बनकर
तैयार
है।
कब
रिलीज
होगी
,
पता
नही।
पर
इसमें
भी
मेरा
किरदार
बहुत
प्यारा
है।
लखनऊ
की
बड़ी
प्यारी
सी
साधारण
औरत
का
किरदार
है।
हंसमुख
है।उसे
जीवन
में
कुछ
नहीं
चाहिए।
उसका
पानवाला
पति
है
और
एक
बेटा
है।
गाती
है।
संगीत
से
भी
जुड़ी
हुई
है।
इसमें
मेरे
पति
के
किरदार
में
यषपाल
षर्मा
हैं।
आपने
टीवी
सीरियल
भी
किए
है।
आज
टीवी
क्या
स्थिति
नजर
आ
रही
है
?
जब
मैंने
एकता
कपूर
के
कहने
पर
सीरियल
‘‘
कहानी
घर
घर
की
’’
में
काम
किया
था
,
तो
शुरू
शुरू
में
मुझे
लगा
कि
मैं
यह
क्या
कर
रही
हूं
।
लेकिन
मैंने
अपने
कृष्णा
के
किरदार
में
अपनी
तरफ
से
कुछ
चीजें
पिरोयी
,
तो
किरदार
भी
हिट
हुआ
और
पहली
बार
टीआरपी
भी
अचानक
बढ़ी
थी।
इसके
पीछे
एकता
कपूर
का
भी
हाथ
था।
उन्होने
मुझे
पूरी
खुली
छूट
दी
थी।
मैंने
कुछ
एकता
कपूर
के
इ
शा
रों
को
भी
अमल
में
लाने
की
कोशिश
की
थी।
पर
मेरे
लिए
कैमरामैन
मेरे
अनुसार
ही
कैमरा
सेट
अप
करता
था।
मेरी
परफार्मेंस
के
हिसाब
से
कैमरामैन
फ्रेम
बनाता
था।
इससे
कैमरामैन
खु
श
थे
कि
उनके
लिए
कृष्णा
का
किरदार
रचनात्मक
दृष्टि
से
बेहतर
हो
गया
था।
मगर
होता
यह
है
कि
ज्यादा
धन
कमाने
के
चक्कर
में
रचनात्मकता
की
अनदेखी
कर
दी
जाती
है।
यदि
एकता
कपूर
चाहती
,
तो
जितना
पैसा
वह
कमाना
चाहती
थी
,
उससे
थोड़ा
कम
कमाने
का
प्रयास
करती
,
तो
उनके
सीरियल
गुणवत्ता
वाले
बनते
,
क्लासिक
बनते
,
लोग
उन्हे
लंबे
समय
तक
याद
रखते।
अच्छे
कलाका
रों
को
रिप्लेस
मत
करो।
2014
में
मैंने
उनके
लिए
सीरियल
‘‘
जोधा
अकबर
’’
किया
था
,
उसकी
शूटिंग
करना
मेरे
लिए
बहुत
बड़ा
सिरदर्द
था।
2007
से
2014
तक
तो
माहौल
बहुत
अजीब
सा
हो
गया
था।
मैं
बड़ी
निरा
श
हुई
कि
आमदनी
हो
रही
है
,
मगर
रचनात्मकता
और
सकून
खो
चुका
है।
मेरी
राय
में
टीवी
सीरियल
के
निर्माता
व
निर्दे
श
क
का
बड़प्पन
इसी
में
है
कि
वह
कमायी
करें
,
लेकिन
कलाकार
व
तकनी
शि
यन
की
आत्मा
को
न
निचोड़
दें।
उसे
आप
खिलने
दें।
जहां
से
1986
में
टीवी
सीरियल
षुरू
हुआ
था
,
उस
तरह
की
रचनात्मकता
को
अब
वेब
सीरीज
ने
उठा
ली
है
,
पर
यह
भी
कब
तक
काम
रहेंगें
,
पता
नही।
मुझे
दूरदर्शन
काफी
समय
तक
पसंद
रहा।
क्योंकि
दूरदर्शन
पर
अच्छी
साहित्यिक
कहानी
को
कहने
का
अवसर
मिल
रहा
था।
मसलन
-
उषा
प्रियंवदा
की
कहानी
पर
‘
पचपन
खम्भे
लाल
दीवारे
’
।
इन
दिनों
कलाकार
लंबी
लंबा
रेस
का
घोडा
कम
बन
पा
रहे
हैं
?
जी
हां
!
इसकी
वजह
यह
है
कि
हमने
अभिनय
को
आसान
बना
दिया
है।
हम
भूल
गए
कि
अभिनय
एक
क्राफ्ट
है।
इसका
भी
अपना
एक
विज्ञान
है।
पर
हो
यह
रहा
है
कि
सुंदर
चेहरा
है
,
जिम
जाकर
बॉडी
बना
लो
और
अभिनय
करने
लग
जाओ।
ऐसे
में
कलाकार
ने
कुछ
सीखा
नहीं
होता
है
,
वह
हमे
शा
निर्दे
श
क
पर
निर्भर
होता
है।
इसी
वजह
से
आगे
चलकर
उनके
अंदर
निरा
शा
घर
करने
लगती
है।
और
वह
जल्द
बाहर
हो
जाते
है
कलाकार
के
तौर
पर
आपके
अंदर
इतनी
क्षमता
होनी
चाहिए
कि
एक
निर्दे
श
क
ही
नहीं
दस
निर्दे
श
क
भी
न
समझ
पाएं
कि
आप
अगला
क्या
करने
वाले
हैं।
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