“मैं जब पहली बार अमृतसर गया तो पता चला कि जलियाँवाला बाग़ गोल्डन टेम्पल के पहले ही, रास्ते में पड़ता है। मैं जब वहाँ पहुँचा, अन्दर घुसा और दीवारों पर बने उन गोलियों के निशानों को देखा तो मैं वहाँ 1919 में हुआ दर्दनाक नरसंहार कैसा हुआ होगा, ये सोचकर ही सहम गया”
कुछ ऐसा ही एक प्रेस कांफेरेंस के दौरान सरदार उधम के डायरेक्टर शूजित सरकार ने कहा, जब उनसे पूछा गया कि आपको ये फिल्म बनाने की प्रेरणा कहाँ से मिली।
फिल्म की कहानी 1931 से शुरु होती है जब शेर सिंह उर्फ उधम सिंह, (विकी कौशल) को लाहौर जेल से रिहा किया जाता है। यहाँ से उधम सिंह की इंग्लैंड पहुँचने और 1940 में माइकल ओ’डायर के क़त्ल होने तक का सफ़र दिखाया है।
अगर आप शहीद सरदार उधम सिंह के बारे में पढ़ चुके हैं या राज बब्बर की फिल्म शहीद उधम सिंह देख चुके हैं तो इस फैक्ट से वाकिफ होंगे कि उधम सिंह जी की यात्रा बिना किसी मिलावट के, किसी ट्विस्ट के भी बहुत हैरतअंगेज़ थी। लेकिन सरदार उधम के राइटर रितेश शाह और शुभेंदु भट्टाचार्या ने इसे थ्रिलर की बजाए ड्रामा ट्रीटमेंट दिया है।
पौने तीन घंटे की इस फिल्म में पहला एक घंटा बहुत सुस्त और बहुत भटका हुआ है। शुरुआती 57 मिनट्स के बीच कई बार आप फिल्म बंद कर सकते हो, लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करते हो तो आगे के पौने दो घंटे की फिल्म में आपकी पलक भी नहीं झपकेगी।
शूजित सरकार पिंक, मद्रास कैफ़े, अक्टूबर जैसी सीरियस और डार्क फिल्म्स बनाने में माहिर हैं। लेकिन विकी डोनर, पीकू, गुलाबो सिताबो आदि लाइट हार्ट कॉमिक फिल्म्स भी वह बनाते आए हैं। पर इस बार शूजित को हिस्टोरिकल इंसिडेंट पर फिल्म बनानी थी। ये मुश्किल सौदा था जिसे शूजित सरकार ने गिरते-पड़ते और फिर दौड़ते पूरा कर लिया है।
फिल्म का पहला घंटा जितना डिसअपोइन्ट करता है, बाकी बची फिल्म और ख़ासकर क्लाइमेक्स उतना ही दिल को छू जाता है। जलियाँवाला बाग़ पर बहुत सी पंजाबी फिल्में बनी हैं, बहुत डॉक्यूमेंट्री देखने को मिलती है पर जो नरसंहार शूजित ने शूट किया है, ऐसा अबतक कोई न कर सका।
एक्टिंग के मामले में विकी कौशल ने एक नया माइलस्टोन छू लिया है। अपनी स्किल को वह एक अलग लेवल पर ले गये हैं। विकी कौशल को चाहिए कि आने वाले समय में अपनी एक्टिंग स्किल्स को ऐसे ही सही डायरेक्शन में लगायें। जलियाँवाला बाग़ में उनका घायलों को बार-बार ठेले पर ले जाना, रौंगटे खड़े करने वाला सीक्वेंस है।
अमोल पराशर अच्छे एक्टर हैं पर कर्टसी राइटर्स एंड डायरेक्टर, शहीद ए आज़म भगत सिंह जैसे लार्जर देन लाइफ करैक्टर के साथ जस्टिस नहीं कर पाए हैं।
माइकल ओ डायर बने शौन स्कॉट बहुत जमे हैं। स्टेफन होगन भी बहुत ज़बरदस्त डिटेक्टिव बने हैं।
छोटे से रोल में डायलॉग राइटर रितेश शाह भी खानापूर्ती करते नज़र आए हैं पर फैक्ट ये है कि इस फिल्म में विकी कौशल के सिवा किसी के लिए स्पेस ही नहीं है और विकी कौशल कम से कम अपनी तरफ से तो शिकायत का कोई मौका नहीं देते हैं।
फिल्म का कैमरावर्क बहुत अच्छा है। अविक मुखोपाध्याय ने फिल्म शुरु से अंत तक डार्क रखी है। आर्ट डायरेक्शन भी लाजवाब है। बारीकियों पर बहुत काम किया गया है।
शांतनु मोइत्रा का म्यूजिक बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करता, यहाँ बेहतरी की गुंजाइश थी। क्रांतिकारियों पर बनी फिल्म, वो भी पंजाब के क्रांतिकारी; म्यूजिक ज़बरदस्त होना चाहिए था।
चंद्रशेखर प्रजापति की एडिटिंग बहुत औसत है। यहाँ शूजित सरकार भी बराबर के दोषी हैं। ढाई घंटे से भी अधिक लेंथ की फिल्म, जिसमें कोई गाना भी नहीं है, कोई वॉर क्राई नहीं है, तिसपर उलझी हुई एडिटिंग फिल्म को कई जगह बोझिल बनाती है।
अंत में, सरदार उधम एक अच्छी फिल्म है जो और बेहतर हो सकती थी लेकिन इसमें सबकी परफोर्मेंसेस बहुत बेहतरीन है लेकिन रीयलिस्टिक सिनेमा बनाने वालों को ये बात समझ लेनी चाहिए कि दो सरदार, वो भी पंजाब के अन्दर, वो भी जब उनके आसपास कोई न हो; कभी हिन्दी में बात नहीं करते, वो कर ही नहीं सकते।
कुछ एक कमियां होने के बावजूद मैं कहूँगा कि यह फिल्म सबको देखनी चाहिए, हर बच्चे बूढ़े जवान को इस फिल्म से गुज़रना चाहिए और समझने की कोशिश करनी चाहिए कि आज़ादी, जिसे हम साल में सिर्फ एक दिन त्यौहार की तरह मानते हैं; वो बहुत मशक्कत के बाद मिली है।
रेटिंग – 7.5/10*
सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’