कहानी एक प्रवासी मज़दूर की बेटी की जिसने ऑक्सफेम की मदद से असमानता का सामना करते हुए सफलता हासिल की
'समाज में एक मज़दूर की सन्तान अक्सर मज़दूरी ही करती है' हेमलता कन्सोटिआ
हेमलता कन्सोटिआ को इस बात का एहसास बहुत पहले हो गया था कि समाज में एक मज़दूर की सन्तान अक्सर मज़दूरी ही करती है. पर उनके मन में एक अटल विश्वास था की एक दिन गरीबी, असमानता और भेदभाव के दायरे से मुक्ति पा कर वो एक नए भविष्य का निर्माण करेंगी. हेमलता के दादा एक श्रम ठेकेदार थे और पिता राजस्थान में रहने वाले एक मज़दूर. हेमलता ने बचपन से ही कहानियां सुनी थी की किस तरह गरीब श्रमिकों को कम वेतन दिया जाता है, उन्हें कर्ज़े में डुबो कर ज़बरन वसूली की जाती है और उनका शोषण किया जाता है .
उनके अपने परिवार को इस तरह गरीबी ने घेरा की बच्चों की पढ़ाई बंद हो गयी और भविष्य में सिर्फ मज़दूरी का ही रास्ता बचा रह गया. हेमलता कान के गलत इलाज के कारण आंशिक विकलांगता का शिकार भी हो गयी. पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी . वे कहती हैं, 'आर्थिक और शारीरिक तकलीफों के कारण मैं स्वयं को परिवार पर बोझ समझने लगी थी और मेरे घर वाले बस मेरी शादी कर देना चाहते थे.'
फिर भी हेमलता ने बीड़ा उठाया आर्थिक, सामाजिक, और शारीरिक चुनौतियों को हराने का और अपने पिता जैसे प्रवासी मज़दूरों की मदद में जुट गयीं. सिर्फ चौदह बरस की उम्र में वे एक समाज सेविका बनीं और 1949 में मज़दूर निर्माण आंदोलन में भाग लिया ताकि दिल्ली में रहने वाले श्रमिकों की मदद की जा सके. ये आंदोलन चला रहे थे निर्मला सुंदरम और सुभाष भटनागर और इस संघर्ष के कारण सरकार ने 'भवन और अन्य सन्निर्माण कर्मकार कल्याण उपकर अधिनियम' जारी किया 1949 में.
इस आंदोलन में काम करने के अलावा हेमलता ने गणतंत्र दिवस की परेड में हिस्सा लिया एक राष्ट्रीय कैडेट के रूप में , दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर (MA) डिग्री हासिल की, स्माइल फाउंडेशन से जुड़ कर समाज सेवा की और निर्माण श्रमिकों के बच्चों को भी पढ़ाया.
'दया और दान से समाज नहीं बदलता' हेमलता कन्सोटिआ
एक श्रमिक के बच्चे की अकस्मात् मृत्यु ने उन्हें लगभग तोड़ दिया पर उन्होंने और भी दृढ़ निश्चय किया की वे इन परिस्थितियों से लड़ती रहेंगी। वे राजस्थान लौटीं और तीन से चार साल तक वहां के निर्माण श्रमिकों के साथ काम करके निर्माण श्रमिक संगठन एवं राजस्थान निर्माण मज़दूर पंचायत संगठन का निर्माण किया ताकि श्रमिक अपने मूल अधिकार जान सकें.
वे 2008 में राजस्थान से दिल्ली वापस आयीं और मदद देने के साथ साथ जागरूकता फ़ैलाने का भी कार्य करने लगी. उनका कहना है, 'दया और दान से समाज नहीं बदलता। सरकार की भी ज़िम्मेदारी है की वह अपने नागरिकों को शिक्षित करे और हमारी ज़िम्मेदारी है की हम सरकार को सचेत करते रहे.' शिक्षा का मुद्दा उनके दिल के बहुत करीब है क्योंकि उन्होंने शिक्षित होने के लिए बहुत संघर्ष किया है. आज जहाँ भी शिक्षा अधिकार अधिनियम की चर्चा होती है, उनका नाम लिया जाता है!
उन्होंने एक गैर सरकारी संस्थान Labour Education Development Society (LEDS) की स्थापना की और जातीय भेदभाव के खिलाफ तथा दलितों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी। उन्होंने मैला ढोने और नालियां साफ़ करने की प्रथा में छुपे जातिवाद का खुल कर विरोध किया और लगातार वाल्मीकि समुदाय के बच्चों को शिक्षित करने के लिए प्रयासरत रहीं.
तिरतालिस वर्षीया हेमलता अपने बल पर अकेली ही ज़िन्दगी जी रही हैं और पूरी तरह से समर्पित हैं उस लड़ाई को जो उन्होंने बहुत साल पहले सामाजिक असमानताओं के खिलाफ छेड़ी थी. इस रास्ते में उन्हें कटाक्ष सहने पड़े, एक पुरुषप्रधान समाज से भी जूझना पड़ा पर वे आगे बढ़ती गयीं.
LEDS अब हिस्सा बन चुका है RTE (अनिवर्षाय शिक्षा) forum एवं सफाई कर्मचारी आंदोलन का. ऑक्सफेम ने हेमलता एवं LEDS के साथ काम किया है जातीय भेदभाव के खिलाफ और शिक्षा तथा समान अधिकारों के संचार के लिए. आज हेमलता दुनिया भर में जानी जाती हैं एक जुझारू महिला के रूप में जिसने सैंकड़ो को आगे बढ़ने और जीतने की प्रेरणा दी.
Oxfam का अभियान #IndiaWithoutDiscrimination एक न्यायसंगत और समानता से परिपूर्ण समाज की कल्पना करता है और हेमलता जैसे लोग इस संघर्ष की मशाल को उठाये , आगे का मार्ग रोशन कर रहे हैं.