बंद होती सिनेमा घरों की धड़कनें-कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!- माधुरी राय

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By Mayapuri Desk
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बंद होती सिनेमा घरों की धड़कनें-कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!- माधुरी राय

क्या सिनेमा वापस अपने स्वर्णिम दिनों में लौट सकेगा? वहीं क्रेज सितारे वापस पाएंगे जो उनको पचास से नब्बे के दशक में हासिल था? ऐसा सोचना अब कोरी कल्पना ही होगा शायद! और शायद सन 2000 के बाद की पैदा हुई नई पिढ़ी इस बात पर यकीन भी नहीं करेगें कि तब सिनेमा हाल ‘छवि गृह’ या ‘रजतपट’ कहे जाते थे। फिल्में सिल्वर जुबली (25 सप्ताह), गोल्डेन जुबली (50 सप्ताह), प्लेटिनम जुबली (100 सप्ताह) चला करती थीं, बुकिंग विंडो (टिकट खिड़की) पर जबरदस्त भीड़ जुटती थी, बुकिंग विंडो तक पहुंचने के लिए लोग एक दूसरे पर चढ़ जाया करते थे ऐसे में कितनों के कपड़े फट जाते थे, टिकट प्राप्त करने के लिये लंबी लाइन में लगे लोग टिकट खिड़की के छोटे से छेद में एक साथ दो दो, तीन तीन हाथ घुसा दिया करते थे, फिर बन्द मुट्ठी में टिकट और बचे पैसे लेकर हाथ बाहर निकाल लेने पर किसी जंग जीतने जैसा ही महसूस करते थे। कितने ब्लैक मार्केटियर के घर का पूरा खर्च सिनेमा का टिकट बेंचकर चलता था!

तब सेटेलाइट चैनल और मोबाइल नहीं थे, मनोरंजन के लिये सिनेमा ही एक मात्र साधन था। उस दौर में फिल्मी सितारे देवताओं जैसे पूजे जाते थे। अपने प्रिय सितारों की एक झलक देखने के लिए देशभर से लोग मुम्बई पहुंचते थे। फिल्मी दुनिया और स्टार्स के सम्बन्ध में लोगबाग पत्र-पत्रिकाएं पढ़ कर ही जानकारियां हासिल कर पाते थे। माया नगरी, सितारों की दुनिया तब बेहद रहस्यमयी लगती थी और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा प्याज के छिलको की तरह जब धीरे-धीरे फिल्म इंडस्ट्री के कुछ रहस्य खुलते थे तो पाठकों को असीम आनन्द की प्राप्ति होती थी। तब सितारों को लेकर उड़ाए गए रयूमर्स और गॉसिप्स पर भी लोग विश्वास करते थे।

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जैसे-देव आनन्द पर सरकार ने ब्लैक कपड़े पहनने पर बैन लगा रखा था, क्योंकि ब्लैक कपडों में लड़कियां उन्हें देखकर घर, फ्लैट की बालकनियों और खिड़कियों से गिर जाया करती थीं। लड़कियां राजेश खन्ना की पूरी कार को चुम्बन लेकर लिपस्टिक से रंग डालती थीं... आदि अफवाहों पर लोग विश्वास करते थे। आज भी उस दौर के लोग उन अफवाहों पर विश्वास करते हैं। तब फिल्म जर्नलिस्ट्स की भी काफी बड़ी जिम्मेदारी हुआ करती थी और वही सितारों की इमेज बनाने सवांरने का महत्वपूर्ण कार्य करते थे। पत्रकारों के लिए पांच सितारा होटलों में पार्टियां दिए जाने का चलन था। हीरो, हीरोइन, निर्माता किसी न किसी बहाने पार्टी देते थे ताकि छप सकें। तब स्टार्स के पास ट्वीटर और सोशल नेटवर्किंग साइट्स नहीं था। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में तब भी ‘मायापुरी’ अव्वल थी, जो हर सप्ताह फिल्मी दुनिया की खबर घर-घर तक पहुंचाती थी।

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आज फिल्म स्टार्स टीवी और इंटरनेट के द्वारा आसानी से उपलब्ध हैं, इसीलिए अब उनके प्रति वो दीवानगी, वैसा क्रेज देखने को नहीं मिलता। उन दिनों पत्रकार कामयाब स्टार्स को कोई नया नाम देकर उनकी प्रसिद्धि में चार चांद लगा देते थे। जैसे राजकपूर को पत्रकारों ने ‘शोमैन’ की उपाधि से नवाजा था, राजकपूर बेहतरीन फिल्मो ‘आवारा’, ‘मेरा नाम जोकर’, श्री 420, अनाड़ी, बरसात आदि में अभिनय के लिए और कई फिल्मों के निर्माण एवं निर्देशन के लिए एक अलग पहचान बनाने में सफल हुए थे, इसके लिए पत्रकारों ने उन्हें उपनाम ‘शोमैन’ दिया था जो उनपर बहुत फबता और जँचता था।

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दिलीप कुमार ने देवदास, गंगा जमुना, आदमी, राम और श्याम, उड़न खटोला, मधुमती और कई सुपरहिट फिल्मों में उम्दा अभिनय करते हुवे प्रशंसकों और पत्रकारों का दिल जीत लिया था,उनकी फिल्में अधिकतर ट्रेजेडी हुआ करती थीं इसलिये पत्रकारों ने उन्हें ‘ट्रेजिडी किंग’ की उपाधि से अलंकरित किया था। इसी प्रकार मेरे घर के सामने, सी आई डी, बनारसी बाबू, प्रेम पुजारी, गाइड, ज्वेल थीफ, स्वामी दादा, जॉनी मेरा नाम, हरे रामा हरे कृष्णा आदि सुपरहिट फिल्मों के साथ देवआनंद अपनी सदाबहार जवानी के लिये जाने जाते थे, तो पत्रकारों ने उन्हें ‘एवरग्रीन’ की उपाधि दे दी थी, धर्मेंद ने शोले, जट यमला पगला दीवाना, धर्मवीर, रजिया सुल्तान आदि फिल्मों में बेहतरीन अदाकारी की थी और वे सुंदर कद, काठी के भी मालिक थे इसलिए पत्रकारों से उन्हें ‘हीमैन’ टाइटल मिला था, मनोज कुमार की अधिकतर फिल्मे जैसे क्रांति, पूरब पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान आदि देश भक्ति अथवा देश की समस्याओं पर आधारित थी इसीलिए पत्रकारों ने उनको ‘भारत कुमार’ बना दिया था, जितेंद्र को फिल्म ‘फर्ज’, ‘तोहफा’, ‘मास्टर जी’, सुहाग रात, विदाई, खून और पानी आदि में विशेष प्रकार के नृत्य में उछल कूद करते देख पत्रकारों ने उन्हें ‘जम्पिंग जैक’ बना दिया था।

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पत्रकारों ने शत्रुघ्न सिन्हा को विश्वनाथ, काली चरण, दोस्ताना, काला पत्थर जैसी अनेक फिल्मों में अकड़कर गुस्से में लंबे लम्बे सम्वाद बोलते देखा और शार्ट टेम्र्प से भरे अभिनय को पसन्द भी किया और उनको शॉटगन उपनाम दिया था। फिरोज खान को ‘चुनौती’, ‘खोटे सिक्के’, ‘काला सोना’, ‘कच्चे हीरे’, ‘अपराध’, ‘धर्मात्मा’,‘टार्जन इन इंडिया’, ‘कुरबानी’, जांबाज, यलगार आदि में घोड़ों, बेहतरीन गाड़ियों, लाजवाब ड्रेसेज, ट्रेंडी पिस्टल, यूनीक चाल और सम्वाद अदायगी को देखकर पत्रकारों ने उन्हें स्टाइल आइकॉन और काऊबॉय की उपाधि दी थी। राजेन्द्र कुमार ने आरजू, संगम, आनबान, हमराही, अमन, मदर इंडिया जैसी 2 दर्जन सिल्वर जुबली फिल्में दी तो पत्रकारों ने उनको जुबली कुमार बना दिया था।

राजेश खन्ना ने आनंद, आराधना, सफर, कटी पतंग, बंदिश, दुश्मन आदि कई सुपर हिट फिल्मों दी एवं उनके प्रति प्रशंसकों की दीवानंगी को देखकर पत्रकारों ने सुपरस्टार राजेश खन्ना लिखना आरम्भ किया था, यह सुपरस्टार टाइटल सर्वप्रथम राजेश खन्ना को ही मिला था। जंजीर, शोले, दीवार, त्रिशूल, मुक्कदर का सिकन्दर जैसी फिल्मों में अमिताभ बच्चन का उग्र रूप देखकर पत्रकारों ने उन्हें एंग्री यंग मैन की उपाधि दे दी थी। हालांकि नायिकाओं को उपनाम देने का रिवाज नहीं रहा है फिर भी कुछ अभिनेत्रियों को मीडिया ने उपनाम दिए थे, मीना कुमारी को ट्रेजेडी क्वीन, वैजयन्ती माला को डांसिंग क्वीन जैसे उपनामों से नवाजा गया था तो वहीं हेमा मालिनी को शोले, धर्मात्मा, सीता और गीता, ड्रीम गर्ल आदि सुपरहिट फिल्मों के कारण ड्रीम गर्ल टाइटल दिया गया था।

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इसी प्रकार श्रीदेवी को सदमा, लम्हें, मिस्टर इंडिया, नगीना आदि 2 दर्जन फिल्मों में उनके लाजवाब अभिनय को देखते हुवे पहली महिला सुपरस्टार का खिताब दिया गया था। अक्षय कुमार ने 1990 के दशक में अभिनय की दुनिया में कदम रखा तो वे शुरूआत में केवल एक्शन फिल्मों में अभिनय करते थे और जिसमें खिलाड़ी, मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी, सबसे बड़ा खिलाड़ी, खिलाड़ियों का खिलाड़ी, मिस्टर एंड मिसेज खिलाड़ी, इनमें से कुछ फिल्में हिट रही थीं तो उन्हें पत्रकारों ने खिलाड़ी कुमार बना दिया था। इसी प्रकार पत्रकारों ने गोविंदा को हीरो नम्बर वन, आमिर खान को मिस्टर परफेक्शनिस्ट, शाहरुख खान को किंग ऑफ रोमांस उपनाम दिए। लोगबाग सितारों को मीडिया द्वारा मिले उनके उपनामों से बखूबी पहचानते थे।

आज हम सभी फिल्मों के उस सुनहरे दौर को याद कर रोमांचित हो जाते हैं। काश की फिल्म इंडस्ट्री का वह दौर फिर से लौट आए!

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