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बचपन में हम बच्चों को डराने के लिए कालेपानी की सज़ा का नाम देकर धमकाया जाता था। कोई मुसीबत में फँसा हो तो कहता था मानों कालेपानी की सज़ा मिल गयी हो।
आख़िर क्या है ये कालापानी? कैसी सज़ा होती थी कालेपानी की? बीते मंगलवार 26 अक्टूबर को बॉलीवुड क्वीन कंगना रनौत कालेपानी की सेल्युलर जेल में वीर सावरकर को श्रद्धांजली देने के लिए उनकी कोठरी में गयी थी। यहाँ जाकर कंगना थोड़ी इमोशनल भी हो गयीं और वो काफी देर तक किसी से बिना कुछ बोले ध्यान लगाकर बैठ गयीं।
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मगर आख़िर क्या थी कालेपानी की जेल? क्यों वीर सावरकर को इस जेल में डाल दिया गया था?
इस जेल के बारे में जानने से पहले वीर सावरकर के बारे में संक्षिप्त में जानना बहुत ज़रूरी है।
सावरकर ने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक पुस्तक लन्दन में ही गहन अध्ययन कर के लिखा था। वो एक लाइब्रेरी का एक्सेस पाने में कामयाब रहे थे और उन्होंने एक के बाद एक दस्तावेजों का अध्ययन कर के ये साबित किया कि वो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था, कोई साधारण सिपाही विरोध नहीं। महारानी लक्ष्मीबाई से लेकर पेशवा नाना तक को इतिहास में अमर बनाने का श्रेय सावरकर को भी जाता है, जिन्होंने उन महापुरुषों के बलिदानों के बारे में जनता को अवगत कराया। उनकी किताब को भगत सिंह सहित कई क्रन्तिकारी पढ़ते ही नहीं थे बल्कि उसका अनुवाद भी करते थे।
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वीर सावरकर एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जो महात्मा गांधी जी की तरह जनता को संबोधित कर उर्जायुक्त करने की क़ाबलियत रखते थे। एक सच्चे लीडर थे। वह हिन्दू थे और हिंदुत्व के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को राज़ी रहते थे। उनके ऊपर 3 अंग्रेज़ी अफसरों की हत्या प्लान करने का इल्जाम था।
इसके साथ ही अंग्रेज़ी हुकूमत को वीर सावरकर के आक्रामक रवैये से घबराहट होने लगी थी। पर वह उन्हें फांसी भी नहीं दे सकते थे क्योंकि अगर फांसी देते तो जन आन्दोलन अंग्रेज़ी सरकार पर बहुत भारी पड़ता। इसलिए बहुत से क्रांतिकारियों की तरह सावरकर को भी कैद करके आज के अंडमान निकोबार यानी कालापानी सेल्युलर जेल में भेज दिया गया।
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उन्हें सैल्यूलर जेल की तीसरी मंजिल की छोटी-सी कोठरी में रखा गया था। उन्हें कोठरी के कोने में पानी वाला घड़ा और लोहे का गिलास मिला था। कैद में सावरकर के हाथों में हथकड़ियां और पैरों में बेड़ियां जकड़ी रहती थीं। माना जाता है कि वीर सावरकर जब कैद में थे तो उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को भी वहीं कैद में डाला गया था। वीर सावरकर को यह पता ही नहीं था कि इसी जेल में उनके भाई भी हैं।
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वीर सावरकर की किताब कालापानी के मुताबिक इस जेल में स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। क्रांतिकारियों को यहाँ नारियल की छाल कूटने के लिए दी जाती थी। नारियल छिलवाया जाता था। फिर उसका तेल निकालने के लिए कोल्हू में बैल की तरह जोत कर पूरे-पूरे दिन आधे कपड़ों में तेल निकालने के लिए कहा जाता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमि व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थी। उन्हें बस जीने के लिए खाना दिया जाता था। लेकिन टारगेट के हिसाब से तेल न निकाल पाने पर उन्हें खाना नहीं दिया जाता था।
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इन सेल्स में धूप भी नहीं आती थी, ज़्यादातर समय अँधेरा ही रहता था और बाहर निकलने पर सिर्फ और सिर्फ गाढ़ा समुन्द्र दिखाई देता था। इसीलिए इस जेल को कालेपानी की सज़ा कहते थे।
दस साल एक दिन के भी आराम के बिना यातनाएं सहने के बाद स्थिति ये आ गई कि सावरकर को आत्महत्या करने की इच्छा होने लगी। इतनी भयंकर यातनाएँ दी जातीं और वहाँ से निकलने का कोई मार्ग भी नहीं दिखता था, भविष्य अंधकारमय लगता था। वो सोचते रहते थे कि वो फिर देश के किसी काम आ पाएँगे भी या नहीं। एक बार कोल्हू पेरते-पेरते उन्हें चक्कर आ गया और फिर उन्हें आत्महत्या का ख्याल आया। सावरकर लिखते हैं कि उनके मन और बुद्धि में उस दौरान तीव्र संघर्ष चल रहा था और बुद्धि इसमें हारती हुई दिख रही थी।
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सावरकर काफी देर तक उस खिड़की को देखते रहते, जहाँ से लटक कर पहले भी कैदियों ने आत्महत्या की थी। कई दिनों तक सोचने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि अगर मरना ही है तो एक ऐसा कार्य कर के मरें, जिससे लगे कि वो सैनिक हैं। सोच-विचार के बाद उन्होंने न सिर्फ अपने बल्कि कई अन्य कैदियों के मन से भी आत्महत्या का ख्याल निकालने में सफलता पाई। वहाँ उन्होंने कोल्हू पर ही संगठन का काम शुरू किया, बंदियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया, उन्हें देशप्रेम सिखाया। अंग्रेज उन्हें बाकी बंदियों से दूर रखना चाहते थे। उन्हें बाद में रस्सी बाँटने का काम दे दिया गया था।
वहाँ अंडमान में कई राजबंदी भी रहा करते थे। सावरकर उनसे जब पहली बार मिले तब उन सबका परिचय लिया। उसी समय उन्होंने उन सभी से कहा था कि देखना, एक दिन जब भारत आज़ाद होगा तो इसी जेल में हम सबके पुतले लगे होंगे।
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फिर वो समय आ गया जब वीर सावरकर ने अंग्रेज़ी हुकूमत से माफ़ी माँगी और जेल से निकलने की गुहार लगाई। उन्हें पचास साल कठिन दंड देने की सज़ा हुई थी, वह जानते थे कि यहाँ पड़े-पड़े मरने से तो वो देश के किसी काम नहीं आ पायेंगे। कहते हैं कि सावरकर जिस तरह से वहाँ घबराने का ड्रामा करते थे, वो असल में उनकी अंग्रेजों के खिलाफ बड़ी योजना थी ताकि वह जेल से बाहर निकलकर एक बार फिर सक्रिय हो सकें। और हुआ भी यही, जब वह जेल से बाहर आए तो कुछ समय के आराम के बाद उन्होंने फिर अपना आन्दोलन शुरु कर दिया।
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उस रोज़ बाकी राजबंदियों से सावरकर ने कहा था “आज भले ही पूरे विश्व में हमारा अपमान हो रहा हो लेकिन देखना, एक दिन यही जगह एक तीर्थस्थल बन जाएगा और लोग कहेंगे कि देखों यहाँ हिन्दुस्तानी कैदी रहा करते थे। ऐसा ही होगा। ऐसा होना चाहिए।”
और अब उसी तीर्थस्थल सरीखे सेल को देखने के लिए बॉलीवुड क्वीन कंगना रनौत जा पहुँची थी और इमोशनल हो गयी थीं।
इतिहास में ऐसे बहुत से क्रांतिकारी थे जिनके योगदान को या तो इस देश की युवा पीढ़ी ने भुला दिया, या उनका मज़ाक बना दिया।
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- सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’
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