मायापुरी अंक 13.1974
आज से ही नही आदिकाल से नारी पुरूष की कमजोरी रही है। और इस कमजोरी से ऋषि मुनी नही बचे तो भला वी.शांताराम की क्या हैसियत है? व्ही.शांताराम भी जब इस कमजोरी के शिकार हुए तो एक भूचाल सा आ गया था।
प्रभात कम्पनी की उस जमाने में बड़ी हवा थी। एक प्रभात ही ऐसी कम्पनी थी जो हुस्नों इश्क की महफिलों और अय्यासियों का केन्द्र नही बना था। वहां इसका जिक्र भी पाप समझा जाता था लोग प्रभात के साफ सुथरे वातावरण की चर्चा किया करते थे। क्योंकि वहां काम करने वालों को बड़ी इज्जत की दृष्टि से देखा जाता था। प्रभात की इस नेकनामी में उन लोगों का खून पसीना मिला हुआ था जो उसे मन्दिर की तरह पवित्र समझ कर काम करते थे। प्रभात को उन दिनों यह ऊंचा स्थान दिलाने वालों मैं वी.शाताराम का नाम सर्व प्रथम था। इसलिए ऐसे वातावरण में जब वी.शांताराम और जयश्री के रोमांस की हवा फैली तो प्रलय सा आ गया।
प्रभात के कर्ताधर्ता सेठ फतह लाल दामले सब कुछ सहन कर सकते थे किन्तु प्रभात की पवित्रता पर कोई धब्बा लगे यह वह बर्दाश्त नही कर सकते थे। उनकी मोहब्बत से प्रभाव के सिद्धांतों के खिलाफ थी। इससे सेठ फतह लाल के विश्वास को चोट लगी। उन्होंने शांताराम को बुलाकर साफ-साफ कह दिया
जयश्री से अगर कोई रुमानी संबंध है तो उसे तुरन्त खत्म कर दिया जाए।
इसमें ‘अगर’ का प्रश्न ही नही है। मैं जयश्री से प्रेम करता हू। वी.शांतराम ने बेझिझक अपनी मोहब्बत का इकरार करते हुए कहा। “लेकिन हम चाहते है कि स्टूडियो प्रतिष्ठता के लिए आप अपनी प्रेम कहानी यही खत्म कर दें” सेठ फतह लाल ने आदेशात्मक लहजे में कहा।
इस मंदिर में ही मैंने देवता को साक्षी मानकर अपने प्यार की सौगन्ध खाई है, और जिंदगी भर साथ निभाने के वादे किये है, क्योंकि मैं जिससे प्यार करता हूं वह मेरी जिन्दगी है,
स्टूडियो क्या है पत्थर की दीवारें और इन पत्थरों की दीवारों की खातिर मैं अपने दिल की दुनिया वीरान नही कर सकता मैं अपनी रुह और प्यार का सौदा इतने सस्ते दामों में कभी नही करूंगा” शान्ताराम ने दृढ़ता पूर्वक अपना निर्णय सुनाते हुए कहां जिस स्टूडियो को तुम पत्थर की चार दीवारी कहते हो वह तुम्हारी रोजी का साधन है। सेठ जी ने बड़े शांत और धीरज भरे स्वर में कहा।
और प्यार का आप अपमान कर रहे है वह मेरी जिन्दगी है शान्ताराम ने सहजता से कहा।
हम सब स्टूडियो को मन्दिर समझते है। कम से कम मन्दिर की पवित्रता का तो ख्याल किया होता। सेठ जी ने पैंतरा बदलकर कहा।
इस मन्दिर में ही मैंने देवता को साक्षी मानकर अपने प्यार की सौगन्ध खाई है। और जिन्दगी भर साथ निभाने के वादे किये है, क्योंकि मैं जिससे प्यार करता हूं वह मेरी जिन्दगी है, मेरी आत्मा है, मेरी कला है शान्ताराम ने भावुक होते हुए कहा। “बात इतनी बढ़ चुकी है मुझे पता न था। सेठजी ने चिन्तित होकर कहा। लेकिन इसके बावजूद तुम्हें दो में से एक बात पसन्द करनी होगी। उन्होनें गहरी खामोशी के पश्चात निर्णयात्मक स्वर में कहा।
जैसा आप कहें शान्ताराम ने आज्ञाकारक की तरह कहा।
नही फैसला तुम्हें अपने आप करना होगा। सेठजी ने कहा प्रमाण एक मन्दिर है और आज तक यहां किसी ने इश्क-प्रेम जैसा जलील काम नही किया। अब तुम्हें इस मन्दिर का त्याग करना होगा वरना इस भावना का बलिदान देना होगा जिसे तुम प्यार कहते हो।
तो समझिये, मैं मन्दिर को छोड़ चुका” शान्तारम ने बिना कुछ सोचे समझे अपना निर्णय सुनाते हुए कहा।
ऐसी शीघ्रता दिखाने की जरूरत नही तुम सोच-विचार करके जवाब दे सकते हो। सेठ फतहलाल ते नम्रता पूर्वक कहा।
मैं अपने फैसले पर पुन: दृष्टि डालने की बात सोच भी नही सकता। शान्ताराम ने कहा।
दोनों के इस फैसले पर प्रभात के शांत वतावरण में खलबली मच गई। उसी समय गजानन जगीरदार, बाबू राव पंढारकर आदि ने दोनों में संधि कराने के प्रत्यन किए किन्तु सब विफल रहे। दोनों में कोई भी अपना फैसला बदलने को तैयार न हुआ। आखिरकार शान्तारम ने प्रभात को छोड़कर अपना मन्दिर अलग बना लिया। जिसका नाम ‘राजकमल कला मन्दिर’ रखा। इस मन्दिर पल रहा है लेकिन अब वहां जयश्री की जगह संध्या विराजमान हो गई है।