भारतीय सिनेमा में जब भी दिग्गज दिग्दर्शकों की बात आती है, बेहतरीन डायरेक्टर्स की लिस्ट बनती है, सम्मोहित कर लेने वाले फिल्ममेकर्स का नाम लिया जाता है, तब यश चोपड़ा जी उस लिस्ट में शीर्ष पाँच में होते हैं।
अपने भाई बलदेव राज चोपड़ा यानी बीआर चोपड़ा के भाई के बारे में जब कोई पहली मर्तबा सुनता है तो लगता है कि इसके लिए फिल्मों में आना कितना आसान रहा होगा। पर हकीकत इससे कहीं अलग है।
यश चोपड़ा के भाई बीआर चोपड़ा फिल्मों में एक सफल निर्देशक और निर्माता के रूप में मौजूद थे पर यहाँ तक पहुँचने के लिए उन्हें पहले फिल्मी जर्नलिस्ट बनना पड़ा था। यश चोपड़ा के लिए भी उनके पिता यही चाहते थे कि ये पहले इंजिनियर बने, लन्दन से पढ़ के आए और फिर फिल्म में कैमराटेक पर काम करे। लेकिन यश चोपड़ा के दिल में तो एक ही बात थी, मुझे निर्देशक बनना है।
जब वह अपने भाई के पास लंदन जाने से पहले पासपोर्ट बनवाने के बहाने पहुँचे, तो उन्होंने अपने भाई को साफ़ बता दिया कि वो फिल्मों में आना चाहते हैं। बीआर चोपड़ा ने उन्हें साफ बता दिया कि यहाँ काम करना इतना आसान नहीं है, तुम्हें पहले सीखना होगा, इसलिए जाओ आईएस जौहर के यहाँ एसिस्टेंट बन जाओ।
लेकिन यश चोपड़ा तो बस अपने भाई के साथ ही फिल्मी सेट पर रहना चाहते थे। उनके पास पूँजी के नाम पर अपनी माँ का आशीर्वाद और दो-दो रुपये के करारे सौ नोट थे। यानी दो सौ रुपए थे।
इसके बाद दो साल तक वह अपने भाई के अपरेंटिस के तौर पर कभी हीरोइन्स के कपड़े पहुँचा देते थे तो कभी उनको घर पर डायलॉग्स सुनाने पहुँच जाते थे।
ऐसे ही एक रोज़ मीनाकुमारी की एक फिल्म थी, यश चोपड़ा भी मीना कुमारी की ही तरह शायरी लिखा करते थे, सो जल्द ही दोनों की दोस्ती भी हो गयी।
मीना कुमारी ने एक रोज़ अकड़ के बी-आर चोपड़ा को टोक दिया, “अरे आप अकेले ही हीरो नहीं हो, यश को क्यों नहीं कास्ट कर लेते हो?”
यह बात सुन यश चोपड़ा और बीआर चोपड़ा, दोनों शॉक हो गये। पर यश चोपड़ा ने एक बार भी हीरो बनने की चाहत नहीं दिखाई।
ऐसा ही किस्सा उस दौर की लीडिंग हीरोइन नर्गिस के साथ भी हुआ। नर्गिस और मोतीलाल जी एक फिल्म कर रहे थे, उसमें हीरो का बहुत छोटा सा रोल था, तब मोतीलाल ने भी सलाह दी कि अपने भाई को ही हीरो ले लो न, इतना हैंडसम दिखता है।
इस वाकया को बताते हुए यश चोपड़ा जी कुछ यूँ हँसते थे कि “उन दिनों की बात है कि मैं पंजाब से आया, गबरू जवान, और तब तो मेरे बाल भी थे”
पर हिम्मत की बात ये भी है कि अपने ही भाई के प्रोडक्शन हाउस में काम करने के बावजूद, डायरेक्शन में दूर-दूर तक कोई सपोर्ट मिलता न दिखने के बावजूद, यश चोपड़ा ने हर बड़ी हीरोइन के साथ काम करने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें सिर्फ और सिर्फ डायरेक्शन करना था।
आख़िर मुंबई आने के कई साल बाद उनकी मनोकामना पूरी हुई और बलदेव राज चोपड़ा के प्रोडक्शन में ही उन्होंने अपनी पहली फिल्म धूल के फूल बनाई जो ख़ासी पसंद की गयी।
इसके बाद उन्होंने धर्मपुत्र बनाई, जिसके लिए उन्हें नेशनल अवार्ड से नवाज़ा गया। वहीं उनकी बनाई फिल्म वक़्त वो पहली फिल्म थी जिसमें 20 साल बाद भाइयों के मिलने का सिलसिला शुरु हुआ था।
1973 से अपने प्रोडक्शन हाउस, यशराज फिल्म्स में उन्होंने एक से बढ़कर एक, दाग, जोशीला, दीवार, कभी-कभी, त्रिशूल, काला पत्थर, सिलसिला, लम्हे, डर आदि सब ब्लाकबस्टर फ़िल्में बनाई। उनके बाद उनके बेटे आदित्य चोपड़ा ने भी डायरेक्शन में ही हाथ आजमाया और दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, मुहब्बतें, साथिया जैसी सदाबहार फिल्मों का निर्माण किया।
यश चोपड़ा जी हमें सिखा गये कि ज़िन्दगी में जो करना है, उसको लेकर लक्ष्य बिल्कुल साफ़ होना चाहिए। वो कहते थे “मेरी आँख अर्जुन की आँख जैसी है, मुझे मछली भी नहीं दिखाई देती, मुझे सिर्फ मछली की आँख दिखाई देती है”
ऐसे महान फिल्मकार को मायापुरी मैगज़ीन की तरफ से हम उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य पर उन्हें श्रद्धांजली देते हैं व यह यकीन रखते हैं कि फिल्मेकिंग का कोई भी दौर आ जाए, यश चोपड़ा जी की फ़िल्में कभी पुरानी नहीं होंगी।
- सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’