-संजीव मेहरा
हिंदी सिनेमा के जाने माने अभिनेता कृष्ण निरंजन सिंह जिन्हें के एन सिंह के नाम से भी जाना जाता है.के.एन. सिंह का जन्म 1 सितंबर 1908 को देहरादून में हुआ था.एक पूर्व राजकुमार और 'प्रमुख क्रिमिनल वकील' पिता चंडी प्रताप सिंह अपने पुत्र के.एन सिंह को अपने नक़्शे क़दम पर चलाकर सफल वकील बनाना चाहते थे पर वो एक खिलाड़ी थे जो सेना में जाने का सपना देखा करते थे.अपनी ऊर्जा को खेलों की ओर मोड़ते हुए, के.एन. सिंह ने 'भाला फेंक' और 'शॉटपुट' में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया.उन्हें 1936 के बर्लिन ओलंपिक्स' में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया पर हालात ने उन्हें अपनी बीमार बहन के लिए कलकत्ता जाने के लिए मजबूर कर किया.परिणाम? उनका सपना,सपना ही राह गया. यहीं उनकी मुलाक़ात अपने पारिवारिक मित्र पृथ्वीराज कपूर से हुई, जिन्होंने उन्हें निर्देशक देबकी बोस से मिलवाया. देबकी बोस ने उन्हें अपनी फिल्म सुनहरा संसार (1936) में पहली भूमिका की पेशकश की,जो एक डॉक्टर की थी. फ़िल्म 'बागवान (1938) की रिलीज़ तक सिंह को सीमित सफलता मिली. फ़िल्म 'बागबान' एक गोल्डन जुबली हिट थी, जिसने सिंह साहब को उस युग के प्रमुख खलनायकों में से एक के रूप में स्थापित कर किया.
1940 और 1950 के दशक के दौरान, सिंह उस दौर की कई प्रतिष्ठित फिल्मों में दिखाई दिए, जिनमें सिकंदर (1941), ज्वार भाटा (1944) (दिलीप कुमार की पहली फिल्म), हुमायूं (1945), आवारा (1951), जाल (1952), सीआईडी शामिल हैं.(1956), हावड़ा ब्रिज (1958), चलती का नाम गाड़ी (1958), आम्रपाली (1966) और एन इवनिंग इन पेरिस (1967).
खलनायक की पारम्परिक ग़ुस्सेल भूमिकाओं की बजाय उन्होंने ज़्यादतर 'सफ़ेद कॉलर सज्जन खलनायक' की भूमिकाऐं निभाईं जो एक बेहतरीन सूट और मुँह में पाइप, लगाए एक 'कॉम-एन्ड -क्वाइट डायलॉग डिलीवरी' करता है.उनकी सौम्य शैली,सुरीली आवाज़ और खतरनाक आंखें पर्दे पर ख़ौफ़ बन गईं .उनके शब्दों में 'ऑन स्क्रीन मैं बुरा आदमी था,ऑफ-स्क्रीन भी लोगों में एक बुरे आदमी की ही इमेज थी.एक दिन शूटिंग से वापस आते हुए, मुझे एक लिफाफा मेरे दोस्त द्वारा दिए गए पते पर देना पड़ा. मैंने दरवाजे की घंटी दबाई और, पर्दे की ओट से, मैं एक महिला को दरवाज़ा खोलने की जल्दी में देख सकता था. दरवाज़ा खोलने पर जब उसने मुझे अपने सामने देखा,तो वह डर से चिल्लाई और दरवाजा खुला छोड़कर अंदर भाग गई.'
एक अभिनेता के रूप में के एन सिंह की सीखने की प्यास कभी भी बुझी नहीं. उदाहरण के लिए, उन्होंने फ़िल्म 'इंस्पेक्टर' (1956) में एक 'घोड़ा गाड़ी चालक' की भूमिका के लिए तैयार होने के लिए गाड़ी सवारों की शैली और तौर-तरीकों का महीनों अध्ययन किया था. बाद के वर्षों में सिंह साहब ने 'झूठा कहीं का' (1970), हाथी मेरे साथी (1971) और मेरे जीवन साथी (1972) जैसी फ़िल्मों में अहम भूमिकाएँ निभाईं.उनकी अंतिम प्रमुख भूमिका 1973 की फ़िल्म 'लोफ़र' में थी. बढ़ते वर्षों के साथ, सिंह कम सक्रिय हो गए, खासकर 1970 के दशक के मध्य से. 1970 के दशक के उत्तरार्ध से उनकी कई भूमिकाएँ केवल 'कैमियो' के रूप में थीं.उनकी आखिरी उपस्थिति 'वो दिन आएगा' (1986) में थी.
के एन सिंह ने भूमिका भले ही हमेशा 'विलेन' की निभाई लेकिन उनकी सोच किसी 'हीरो' से कम नहीं थी. वो अपने ज़माने के बेहतरीन अभिनेता थे.एक इंटरव्यू के दौरान के एन सिंह से जब पूछा गया था कि आप आज के नए कलाकारों के बारे में क्या कहना चाहेंगे? इस सवाल के जवाब में के एन ने कहा, 'हमारे समय के जितने पुराने लोग थे, किसी ने भी फिकर नहीं की, कि कल क्या होगा? जो बच्चे 70 के दशक के बाद आये हैं,वो बहुत समझदार हैं. उन्होंने अपनी आगामी दो पीढ़ियों का भी इंतज़ाम कर लिया है. ये बात वाकई काबिल-ए तारीफ है।'
उन्होंने कई निर्माता-निर्देशकों के साथ काम किया और कई स्टूडियो से संबद्ध रहे.वे उसूल व समय के बहुत पक्के थे. राजकपूर से एक बार उनके मतभेद हुए तो फिर कभी उनकी फिल्मों में काम नहीं किया.
अपने 6 भाई-बहिनों में के.एन.सिंह सबसे बड़े थे. प्रवीण पॉल से शादी हुई,लेकिन कोई संतान न हुई.अतः उन्होंने अपने छोटे भाई विक्रम सिंह के पुत्र (पुष्कर) को गोद लिया. विक्रम सिंह पत्रिका ‘फिल्म फेयर‘ के कई वर्षों तक संपादक रहे व कई टीवी सीरियल के निर्माता भी.
आख़िरी दिनों में उन्हें दिखना बहुत बिल्कुल बंद हो गया था. के एन सिंह का निधन 31 जनवरी 2000 को मुंबई में हुआ.अपने अंतिम समय में उन्होंने अपने दोस्तों को और क़रीबियों को ख़ूब याद किया.लेकिन उनके अंतिम समय में उनके पास कोई भी नहीं था.
इस बेमिसाल कलाकार को उनकी 22वीं पुण्यतिथि हम अपने भावभीने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.