उम्र भी ले गये ब्याज में, वे शाह क्या की जे… शैलेन्द्र बर्थडे स्पेशल By Mayapuri 30 Aug 2022 | एडिट 30 Aug 2022 10:06 IST in बीते लम्हें New Update Follow Us शेयर दिसंबर और अगस्त का माह उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जिनका जरा भी फिल्मों से संबंध है. अगस्त में दो दिन खुशी के हैं, 15 अगस्त देश की आजादी का दिन, और 30 अगस्त शैलेंद्र जी का जन्मदिन. मायापुरी का अंक मेरे सामने है और अपने के ढेर सारे पत्र और दिमाग घूम जाता है. सन्ा 1957 मैं भी इन्हीं दिनों शैलेंद्र जी को एक प्रशंसक के नाते पत्र लिखा करता था, एक नहीं, कई ढेर-से पत्र लिखे, उत्तर आया. और एक कड़ी ’बनती गई. पत्रों द्वारा एक दूसरे के नजदीक आते गए, बिना परिचय के और मई 1957 में जब मैं शैलेंद्र जी से मिलने, पहली बार पार्वती-सदन पहुंचा तो शैलेंद्र जी स्वयं हैरान थे, कि उनका प्रशंसक इतनी छोटी उम्र का भी हो सकता है. यानी मेरे नाम और मेरे पत्रों को गलत फहमी के पहले शिकार-शैलेंद्र जी. अपने चहेते कवि को सामने देखकर, मैं चकित था. कुछ भी बोलने का साहस न हुआ. सागर विश्वविद्यालय में राजकपूर, नरगिस, शंकर, जय- किशन, लता मंगेशकर, मुकेश और शैलेंद्र और हसरत मौजूद. जहां उनके चाहने वालों को भीड़ उमड़ पड़ी इस पहली भेंट के बाद यह सिलसिला जारी रहा, पत्रों का और मिलने का उनके गीत दिन-व-दिन लोकप्रिय होते गए, मैं दीवानों की तरह उन्हें सुनता, और सुनकर एक आत्मीय मित्र के नाते उस गीत की प्रशंसा एवं आलोचना करना अपना अधिकार समभता था. सिर्फ मैं ही नहीं हजारों लोग शैलेंद्र जी के प्रशंसक हैं. शैलेंद्र जी दिन-प्रति-दिन अपने गीतों की तरह लोकप्रियता के आकांश पर छाते गए. ‘हर गीत हिट होने की गारंटी. लेकिन उनके गीतों में सरलता और आम आदमी का दर्द भी शामिल था, ‘मेरा नाम राजू घराना अनाम, बहती है गंगा जहां मेरा धाम.” (फिल्म “जिस देश में गंगा बहती है”) यह सादगी, सरलता सिर्फ शैलेंद्र जी के गीतों में मिल सकती थी, आम आदमी के दर्द का एहसास इन गीतों से हो सकता है ‘रात दिन हर घड़ी एक सवाल रोटियां कम हैं क्यूं, क्यूं! है अकाल क्यूं दुनिया में कमी है. ये चोरी किसने की है कहां है सारा माल फिल्म (छोटी बहन) अथवा, जिंदगी की यह चिता, में जिंदा जल रहा हैं हाय, सांस को ये आग ये तीर चीरते हैं आर-पार, मुुझ्ाको यह नरक न चाहिए, मुझको फूल, मुझको गीत, मुझको प्रीत चाहिए, मुझ्ाकों चाहिए बहार. (फिल्म ‘आवारा) इसके अलावा शैलेंद्र जी के गीतों में जीवन का दर्शन भी. नन्हें-मुन्ने बच्चे तेरी मुटठी में क्या है, मुटठी में है तकवीर हमारी- हमने किस्मत को बस में किया है. फिल्म (बूट पालिश) आज यह लिखते हुए एक सांवला चेहरा आंखों के सामने उभर आता है. मृदुल मुस्कान, आंखों में आस्था की झील और एक अदुभुत आकर्षण बार-बार 555 सिगरेट के लगातार कश, सादगी पूर्ण सफेद पैंट कमीज या कुर्ता-पायजामा. शंकर-जयकिशन, दादा .बर्मन, सलिल चैधरी, चित्रगुप्त, एस. एन. त्रिपाठी आदि सभी संगीतकारों के साथ, एक से एक भावपूर्ण गीत लिखने वाले गीतकार शैलेंद्र की गहराई को छूना आज भी किसी भी गीतकार को छू पाना असंभव है. उन दिनों मैं और आज के सुप्रसिद्ध गीतकार इंदीवर अक्सर उनके साथ बैठ कर उन से गीतों के बारे चर्चा किया करते थे. चर्चा के दौरान कभी कोई निर्माता आ जाता, कभी फोटोग्राफर, कभी कोई कवि मित्र या कभी लाइटमैन और इन सबकी चुपके से आर्थिक मदद करके बड़ी सादगी से चुपचाप बैठे रहना शैलेंद्र जी की विशेष अदा थी. “धन्यवाद” स्वीकार करना उनके लिए असंभव ही था. उन्हें बोझ-सा लगता था. गीतों के लिए अक्सर शंकर जी से उनकी छेड़-छाड़ आज भी याद आती है, तो शंकर जी की आंखें छलछला जाती हैं, आज भी फेमस स्टुडियो में स्थित शंकर जी का ‘म्यूजिक रूम’, लगता है कुछ सूनापन है. कहीं कोई एकाध सुर बेसुरा निकल रहा है, आज भी वह कोना जहां बैठकर शैलेंद्र जी गीत लिखते थे, वहां से आज भी साहित्यिक सुगंध भटक रही है. “न्यू वेव” की फिल्मों की आज जो चर्चा है, सही अर्थों में, मैं समझता हूं कि ‘जागते रहो’ के बाद, पहली बार एक साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने की बात शैलेंद्र जी के दिमाग में आई. फिल्म बनी तो पर्दे पर मानो एक कविता उभर आई. ‘तीसरी कसम’ के निर्माण के दौरान “ज्वैल-थीफ’ भी बन रही थी. शैलेंद्र जी जैसे सीधे और सहृदय के लिए फिल्म निर्माण एक सजा साबित हुई. अपने चेहरे सामने आए पराये तो पराये थे. परेशानी का सिलसिला जो आरंभ हुआ, उसका अंत बहुत बुरा हुआ. ‘तीसरी कसम’ की यूनिट बीना आए और शैलेंद्र जी ने मेरा परिचय राजकपूर से करवाया. लगातार बीस दिनों तक आउट डोर शूटिंग चलती रही और इस दौरान दोस्तों के अभिनेताओं के, अभिनेत्रियों के, फायनेंसर, डिस्ट्रीब्यूटस सभी के चेहरे उजागर हो गए, लेकिन एक कवि ने ठान ली थी कि बिना किसी समझोते के एक फिल्म बनेगी. और शैलेंद्र जी इस समझौते से टूट गए, लेकिन झुके नहीं. अपने सिद्धांतों से समझौता करना उन्होंने सीखा ही नहीं था. उन्होंने अपने जिंदादिल दोस्तों से बेहतर-बेरहम मौत से समझोता करना बेहतर समझा. इस दौरान मुकेश जी के साथ ‘तीसरी कसम’ के गीतों पर चर्चा और वे गीत, जो फिल्म में नहीं आया! “रैना घिरी अंधियारो’... को बड़े प्यार से शैलेंद्र ने लिखा, निर्देशक का अपना एक मुखौटा. और अंत में ‘तीसरी कसम” की दिल्ली रिलीज के वक्त शैलेंद्र जी के नाम वारंट. दिल्ली के ‘इम्पीरियल होटल’ में मुकेश जी के चेहरे से उड़ता हुआ रंग, भाग दौड़-यानी एक-एक पल के लिए मानो होड़ लगी हो. जनता की अस्वोकृति और फायनेंसर्स का लगातार दबाव, सूर्योदय से, मैं समझता हूं, सूर्योदय तक हर सांस को घुटन, हर पल के दर्द का मात्र रहस्य था-शराब. लोगों का उक्त कथन गलत है कि शैलेंद्र जी को शराब ने मारा. शैलेंद्र जी की मौत के जिम्मेदार हैं-हम, आप, वे जो उनके चारों ओर, उन्हे घेघरे रहते थे. शैलेंद्र जी चाहते तो उनकी अपनी आर्थिक कठिनाईयों का हल राज साहब से कर सकते थे, लेकिन नहीं, एक कवि का आत्म- स्वाभिमान आत्म-सम्मान, जिसने शैलेंद्र जी कों कभी किसी भी सतह पर झुकने नहीं दिया. लोकप्रियता के आकाश पर छाने के बावजूद इतनो सरलता, सौम्यता किसी भी इंसान में मिलना असंभव है. “रिमझिम, नाम जरूर था उनके बंगले का, लेकिन लगा वह शोलों में झुलस रहा है. हमदर्दी के बहाने, शैलेंद्र जी को शराब पीना, उनके साथ दोस्तों की आदत नहीं, हक हो गया था. शैलेंद्र जी के यार दोस्तों, दुनियां से जो कुछ दुःख भोगें अपनी जुबान से नहीं, कभी-कभी अपनी कलम से कह कर खुद ही तसल्ली कर ली, तभी तो हम उनके गीतों में आम आदमी को तस्वीर देखते हैं. दुुआ कर गमें दिल खुदा से दुआ कर जो बिजली चमकती है उनके महल पर तो कर ले तसल्ली मेरा घर जलाकर (अनारकली”) और सचमुच “उनका घर जला कर” ही लोगों को तसल्ली मिली. शैलेंद्र जी ने यह भी कहा था चल चल रे मुसाफिर चल तू उस दुनिया से चल, जहां उजड़े न सिंगार किसी का फैले ने काजल.” एक और गीत यह अंधों को नगरी है, आंखों पे भ्रम को जाली पर सब के सब हैं शिकारी क्या सोच के ओ मेरे हिरना’ तू इस दुनिया में आया. (अमानत) फिर आया वह 14 दिसंबर 1966 का दिन आर. के. स्टुडियो दुल्हन की तरह सजा था. राजकपूर के जन्म दिन की शाम की दावत के लिए. तभी खबर आई शैलेंद्र नहीं रहा.” डोली आने से पहले ही शाम को दुल्हन की मांग का सिंदूर मिट चुका था. कहकहे आंसुओं मैं ढल गए और दावत के फूल अर्थी पर. अर्थी पर चढ़े फूल मुरझाये नहीं, आज भी उनकी महक हमें मिलती है शैलो शेलेन्द्र के गीतों से. बही सादगी और वही सूफीयाना अंदाज उसी तरह की हंसी, वही सांवला-सा चेहरा. एक आत्मविश्वास के साथ कि जो ज्योति शैलेन्द्र जी जला गए हैं, उसका प्रकाश जर-जर तक आगे और बहुत आगें तक पहुंचता रहे. और आज मुझे याद आता है, कि जब गांधी जी को जालिम गौडसंे ने गोली मार दी थी, तब एक विदेशी अखबार ने अंगेजी में लिखा था,‘ज्यादा अच्छा होना बहुत बुरा है, एक आखरी बात और- शैलेंद्र जो जाते-जाते कह गये थे- हम तो जाते अपने गाँव अपनी राम राम राम सबको राम राम!.. #Shailendra #lyricist Shailendra हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article