दादासाहेब फाल्के के जन्म दिन पर उन्हें श्रद्धांजलि

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दादासाहेब फाल्के के जन्म दिन पर उन्हें श्रद्धांजलि

दादासाहेब फाल्के भारत में फिल्मो के प्रथम निर्माता और निर्देशक थे जिन्होंने भारत में फिल्मो की शुरुवात कर भारतीय सस्कृति को पुरे देश के लोगो तक पहुचाया है। भारत सरकार ने उनकी याद में दादा साहेब फाल्के पुरुस्कार शुरू कर सदैव को भारतीय सिनेमा के जंनक के रूप में अमर कर दिया। दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक के निकट त्र्यम्बकेश्वर नामक तीर्थ स्थल पर एक ब्राह्मण मराठी परिवार में हुआ था। दादा साहेब  से थे जिनका वास्तविक नाम धुंडीराज गोविंद फालके था, धुंडीराज गोविंद फालके के पिता नासिक के जाने माने विद्वान थे।

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1885 में जब वो पन्द्रह साल के हुए तब उन्होंने बम्बई के जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट में दाखिला लिया जो उस समय कला का बड़ा शिक्षा केंद्र था वहां पेंटिंग सीखने के बाद फाल्के ने बडौदा के मशहूर महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी के कला भवन में दाखिला लिया जहा से उन्होंने चित्रकला के साथ साथ फोटोग्राफी और स्थापत्य कला की भी पढ़ाई  कि। दादा साहेब फाल्के की दो शादियां हुई थी। पहली पत्नी से इन्हे 9  बच्चे थे जो प्लेग की बीमारी की वजह से मरे गए। उनकी दूसरी पत्नी भी एक भारतीय नारी का बड़ा उद्धरण थी जिन्होंने उनका हर कदम पैर साथ दिया।

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1910 में जब उनकी उम्र 40 वर्ष की हो गयी थी तब उन्होंने फिल्म बनाने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने कई अंग्रेजी फिल्मे देखी और उन फिल्मो में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों की विस्तृत जानकारी ली। उनको फिल्म बनाने के उपकरण और मशीने लाने के लिए इंग्लॅण्ड जाना था लेकिन उनके पास उतने पैसे नही थे। इसलिए उन्होंने लन्दन जाने के लिए कुछ पैसे उधार लिया और कुछ पैसे बीमा पालिसी से निकाले । जिसके बाद वो फरवरी 1912 को पुरी तैयारी के साथ लन्दन के लिए रवाना हो गये ।वहां फाल्के साहब इंग्लैंड के उस समय के जाने माने फिल्म निर्माता सेसिल हेपवार्थ नामक व्यक्ति से मिले।

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हेपवार्थ उनको अपने स्टूडियो में लेकर गये और फिल्मो के उपकरणों के बारे में जानकारी दी। अब दो महीने तक इंग्लैंड रहने के बाद दादा साहब फाल्के फिल्म बानाने के कुछ उपकरणों के साथ भारत लौट आये ।1912 में उन्होंने सबसे पहले अपने परिवार के सदस्यों पर एक शार्ट फिल्म बनाई ताकि वो उपकरणों को टेस्ट कर सके । अब आगे फिल्म निर्माण के लिए वापस काफी पैसो की जरूरत थी क्योंकि उनके सारे पैसे तो उपकरणों को खरीदने में लग गये थे । इस कठिन घड़ी में उनकी दुसरी पत्नी ने उनकी सहायता की और अपने गहने गिरवी रखकर फाल्के साहब को पैसे दिए।

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दादा साहब फाल्के की कठोर मेहनत की बदौलत 13 मई 1913 को उनकी फिल्म “राजा हरीशचन्द्र ” बनकर तैयार हो गयी और दर्शको के समक्ष आ गयी।दादा साहेब फाल्के ने सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र के जीवन पर फिल्म बनाने का विचार किया और फिर उन्होंने फिल्म के लिए कलाकारों का चयन करना शुरू किया ।फिर काफी मशकत के बाद राजा हरीशचंद के पात्र का चुनाव तो हो गया लेकिन महारानी तारामती के पात्र को चुनने में समस्या आ रही थी क्योंकि उन दिनों कोई भी औरत फिल्म में काम करने को तैयार नही थी सो फाल्के साहब के दिमाग में एक योजना आयी और उन्होंने सालुके नाम के लड़के को जो तारामती की भूमिका दे दी जो उस समय बम्बई के होटल में रसोइया था। तब दादा साहेब फाल्के ने स्टूडियो निर्माण , पटकथा , फोटोग्राफी ,निर्माता और निर्देशन सभी काम स्वयं को ही करने पड़े थे, अंततः दादा साहब फाल्के की कठोर मेहनत की बदौलत फिल्म “राजा हरीशचन्द्र ” बनकर तैयार हो गयी और 13 मई 1913 को उनकी यह फिल्म दर्शको के सामने आ गयी।

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पहली बार हिंदी फिल्म को देखकर दर्शको में काफी उत्साह रहा और 23 दिन तक लगातार यह फिल्म टाकीज में चली जो उस समय के लिए बहुत बड़ी बात थी । इस तरह फाल्के ने अपनी पहली ही सफल फिल्म का निर्माण पूरा किया । तब अपनी पहली फिल्म की सफलता से उत्साहित होकर कुछ सालों बाद ही फिर एक पौराणिक कथा पर आधारित फिल्म “मोहिनी-भस्मासुर ” नामक फिल्म बनाई वो भी काफी सफल रही।

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1917 में दादा साहब फाल्के दादासाहेब फाल्के ने हिंदुस्तान फिल्म नामक कम्पनी की स्थापना की जो 1932 तक सक्रिय रही थी  इस दौरान इस बैनर तले उन्होंने कई फिल्मो का निर्माण किया जिसमे से अधिकतर फिल्मे पौराणिक कथाओ पर आधारित थी। हिंदुस्तान फिल्मस के बैनर तले प्रमुख फिल्मे लंका दहन  (1917) , श्री कृष्ण जन्म (1918) , कालिया मर्दन (1919) , बुद्धदेव (1923) और सेतु बंधन (1932) थी तब समय के साथ फाल्के बोलती फिल्मो के साथ नही चल सके और 1932 में उन्होंने अपनी अंतिम मूक फिल्म सेतुबंध बनाई इसी के साथ मूक फिल्मो का युग भी खत्म हो गया था और बोलती फिल्मो का प्रचलन शुरू हो गया 1937 में दादा साहेब फाल्के ने गंगावतारम नामक बोलती फिल्म बनाई जो हिंदी और मराठी दोनों भाषाओ में बनी।

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अपनी आखरी फिल्म गंगावतारम के बाद दादासाहेब फाल्के का स्वास्थ्य बिगड़ना शुरू हो गया था। तब  उन्होंने फिल्मो से अवकाश ले लिया और अपने अंतिम समय गिनने लगे। उस समय फिल्म उद्योग में नये निर्माताओ ने दादा साहब फाल्के को काम भी नही दिया क्योंकि वो पुराने विचारो के थे और फिर 16 फरवरी 1944 को हिंदी फिल्मो के जनक दादा साहब फाल्के इस दुनिया से विदा हो गये।

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