देखा है मैंने गर्दिश में सितारों को
- शरद राय
पीछे मुड़कर देखने का कभी समय ही नहीं मिला। पिछले दिनों एक फिल्म संस्था ने मुझे सम्मानित करने के लिए एक प्रारूप बनाया तो मैंने उनको मना कर दिया। उनका सोचना था कि शरद राय यानी-मैं बॉलीवुड का एक ब्रांड नेम हूं, मुझे अवार्ड देंगे तो कई सितारे उनके फंक्शन में आने से मना नहीं करेंगे।लेकिन, मैं जो बॉलीवुड को बहुत अंदर- बाहर से जानता हूं इसलिए मना किया कि उन सितारों को लिवाने के लिए मुझे ही मेहनत करना पड़ेगा, उनका कृतज्ञ होना पड़ेगा, स्टेज पर मुझसे ज्यादा वे सम्मानित होंगे, मुझे उनको छापते होने के वावजूद हमेशा कृतज्ञता ज्ञापन करते रहना होगा! आखिर में यही सोचा, इस अवार्ड से भला बिना इनका अवार्ड लिए रहना! और, इसी सोच के चलते इस साल का मिलने वाला 'हिंदी फिल्म जर्नलिस्ट' का और भी 3 अवार्ड मैंने लेने से मना किया है। यही फिल्मी दुनिया का असली सच है।सोचिए, जब मुझे ऐसा सोचना पड़ रहा है तब स्टारों की हालत क्या होती होगी।
पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कल की ही तो बात है जब शुरुवात लिया था। सिर्फ 22 साल का था, फिल्म देखने का शौक नशा सा बन गया था।भारतीय नौ सेना (नेवल डाकयार्ड) में सर्विस की शुरुवात के दिन थे।कभी बेस में तो कभी पानी की जहाज पर ड्यूटी के लिए जाना होता था। बॉयलर शूट की जेब मे कागज का एक टुकड़ा और कलम इसलिए रखता था कि पिछले दिनों जो फिल्म देखकर आया था उसके बारे में कुछ न कुछ लिखने की आदत थी। 'आज', 'दैनिक जागरण', 'दैनिक भास्कर', 'अमर उजाला', 'अमृत प्रभात', 'ट्रिब्यून', 'देश बंधु', 'पंजाब केसरी'... आदि कई दैनिक अखबार थे जिनमें मैं फिल्म के लेख लिखकर भेजता था और वे मुझे छापते थे। तब मैं अपना नाम शारदा राय ''सोनी' लिखता था। सोनी- मैं तखल्लुस के रूप में लिखता था।तब मुझे पता नही था 'सोनी' का मतलब क्या होता है। मैं भट्ट ब्राह्मण हूं लेकिन लिखने-पढ़ने की दुनिया के लोग मुझे 'सोनी' बुलाया करते थे।इसीतरह का ही एक कंट्राडिक्शन शायद तब यह भी रहा कि संपादक लोग मुझे लड़की(शारदा) समझकर छापते रहे हों। जोभी था, मैं खूब छपता था और मुझे बहनजी/श्रीमती जी लिखकर खूब चिट्ठियां आने लगी थी। कोई कोई तो मुझे मदत करने की इच्छा भी जाहिर करता था।तब इस मृग मरीचिका से निकलने के लिए मैंने नौकरी छोड़ा और नाम शारदा राय 'सोनी' से बदलकर (गज़ट कराकर) ''शरद राय'' बना, एक नीट एन्ड क्लिन फिल्म पत्रकार की शुरुवात हुई थी- 1983 से।उसके पहले एंटरटेनमेंट पेज भी लिखता था, क्राइम भी लिखता था और कहानियां भी लिखता था (बाद में उन कहानियों पर दो-तीन फिल्में भी बनी)।देखते देखते 40 साल कब पार हो गए पता ही नहीं चला!
बेशक फिल्म पत्रकार का जीवन मृगमरीच का जीवन है।हर दिन नया जज्बा, हर दिन नया अपॉइंटमेंट, नई मुलाकातें... और हर दिन नए -पुराने सपने देखने वालों से मिलना, उनकी प्लानिंग, तारीफें और उड़ते आसमान की उनकी परी-कल्पना सुनना। सचमुच 'परी' (ग्लैमरस लड़की) कल्पना ही इस सिनेमा लाइन का एक और कटु सच है। मुझे शुरुवात में टाइम्स ऑफ इंडिया की फिल्म पत्रिका 'माधुरी' में छपने का मौका मिला था फिर 'मूवी जगत' हिंदी की बेख़ौफ़ लिखने वाली पत्रिका मिली- जहां बिना डरे कुछ भी लिखता था।फिर 'फिल्मसिटी' का गॉसिप पेज और हिंदी 'सामना' में संजय निरुपम जी (जो आजकल पॉलिटिशियन हैं तब संपादक थे) ने मुझे खूब काम करने की छूट दिया।फिर जुड़ा 'मायापुरी' से जो फिल्म वालों की रामायण जैसी पत्रिका थी और आज भी है। लोगों की नजर में और खुद अपने नज़रिए में मैं स्टार रहा हूं।हमेशा उत्साह से भरा रहा। आज भी जीवन की आपाधापी वही है, वैसी ही है। यहां लिखने से जुड़ा एक संस्मरण है। स्व.स्मिता पाटिल एक ऐसी तारिका थी जो मुझे बहुत मानती थी।साउथ की एक फिल्म 'पेट प्यार और पॉप' नाम से रिमेक हो रही थी।इस सेट पर स्मिता का लिया हुआ मेरा एक इंटरव्यू , एक ही टॉपिक पर 28 अखबारों में छपा था। जो स्मिता के और मेरे जीवन का एक रिकॉर्ड रहा है। ऐसा ही एक वाक्या रवीना टण्डन के साथ का है। उनके पिता स्व. रवि टंडन साहब (मशहूर फिल्म निर्माता- निर्देशक) को मैं अक्सर शाम को मिलने जाता था। उनके घर जुहू में दूसरे फिल्म वालों से मिलने के बाद जब मैं रवि जी के बंगले निप्पोन में जाता, वो अपना पैग लिए बैठे होते थे। मैं ड्रिंक नहीं करता था।रवीना तब फिल्मों में नही आई थी।मुझे देखकर कहती-'शरद भाई को मैं अपने हाथ की बनाई चाय पिलाऊंगी।' उनके घर जाते रहने का सिलसिला बहुत समय तक चला था। मैं गॉसिप लिखने का एक्सपर्ट था, लेकिन कभी बादमे जब रवीना फिल्मों में आयी, उसके लिए कभी खराब नही लिखा। छोटी बहन का भाव आज भी रवीना के लिए मेरे मन मे है।
मेरी फिल्म पत्रकारिता की यात्रा में हर दिन एक नई तैयारी और अनुभव के रूप में रहा है। जिनमे सुप्रीमो दिलीप कुमार द्वारा खार के जीमखाना(मुम्बई) में 3 घंटे अपॉइंटमेंट के वावजूद बैठकर वापस लौटना कष्टप्रद अनुभव के रूप में है।साहब बैठा दिए थे पर बात करें, इसके लिए उनका मूड नही था। यह टाइम था जब मैं उनको मुम्बई एयरपोर्ट पर मेरे अंकल कस्टम ऑफिसर लाल साहब के साथ मिलकर टाइम मांगा था... कुछ समय बाद कि बात थी जब दिलीप साहब हैदराबाद की अस्मा रहमान के साथ निकाह (दूसरा विवाह) कर लेने की चर्चा में थे।
जूही चावला मुझे तब भी बहुत अच्छी लगती थी जब वह अपनी पहली फिल्म 'कयामत से कयामत तक'' में शुरुवात ली थी और आज भी बहुत अच्छी लगती हैं। मेरे मित्र इज़हार हुसैन फिल्म के निर्देशक मंसूर खान के साथ Q se Q tk में सहायक थे। वे जूही को बहुत पसंद करते थे। जूही की मां ताज होटल से जुड़ी थी और होटल के दिये गए बड़े से घर में कफ परेड(कोलाबा) में उनका परिवार रहता था। इज़हार भाई मुझे कितनी दोपहरिया जूही के यहां लेकर जाते थे।हम घंटों बैठकर हंसते - बातें करते थे। हमने कई फिल्म निर्माताओं से जूही की तारीफ किया था कि वे जूही को अपनी फिल्म में हीरोइन लें। फिर जूही स्टार बन गयी। इज़हार हुसैन लेखक अली रज़ा के भाई और स्व. अभिनेत्री निम्मी जी के देवर हैं।इज़हार ने जूही को लेकर एक फिल्म बनाना चाहा तो स्टार बनगई जूही ने मना कर दिया।इज़हार एकदम दूर हो गए जूही से। मुझे दुख हुआ था क्योंकि उनके कहने पर ही मैंने जूही का किसी हिंदी पत्रिका में पहला इंटरव्यू छापा था। जूही की वो चंचल हंसी स्टारडम के साथ खोती गयी थी।
मेरी पत्रकारिता के पिछले उड़ते पन्नों में कई सितारों के नाम हैं जिनका पहला इंटरव्यू मैंने किया है। जैकी श्रॉफ, मोहनीश बहल, मीनाक्षी शेषाद्री, मनोज कुमार के भाई राजीवऔर बेटे कुणाल गोश्वामी, मीनाक्षी शेषाद्री और भी कुछ नाम हैं जो स्टार नहीं बन सके। नूतन जी याद आती हैं जिनके पीआरओ ब्रजेश दुबे भी कुछ दिनों के लिए थे।नूतन जी ने कहा था- 'इसके(मोहनीश) लिए कहीं बात चलाओ न! मैं किसी से नहीं कह सकती।' वह बहुत खुद्दार महिला थी। उनदिनों अपने नेवल अफसर पति से दुखी भी रहा करती थी। और ऐसा ही कुछ 'रामायण' धारावाहिक के राम अरुण गोविल की पत्नी लेखा गोविल ने कहा था 'रामायण' खत्म होने के बाद। अरुण गोविल भगवान बनकर बैठ गए थे घर मे। उनकी भयानक पॉपुलोरिटी थी किंतु भगवान को काम कौन देता? लेखा ने मुझे और मेरे साथ उनके घर गए राजशेखर (जाम्बुवंत) से कहा था-'अरुण के लिए कहीं काम के लिए बात चलाओ न! घर मे बैठकर पागल हो रहा है।'' वरिष्ठ अभिनेता जानकी दास मुझे फ़िल्म लेखक बनने का प्रस्ताव दिए- ''एक आइडिया है, तुम मेरे साथ बैठकर लिखो, दोनो का नाम लेखक में जाएगा।' फिल्म टीसी दीवान की थी- 'यादों की कसम'। इस फ़िल्म (ज़ीनत अमान-मिथुन चक्रोबर्ती) के लिए मैं जानकी कुटीर में 24 दिन, बिना चाय-नास्ते के अकेले बैठकर पूरी फिल्म लिख डाला था। फिल्म आयी तो स्टोरी लेखक के रूप में सिर्फ जानकी दास का नाम था, दूसरी क्रेडिट में औरों के नाम दिए हुए थे।फिल्म लेखन से जुड़े कई रोचक किस्से हैं। यकीन करेंगे-मेरी ही कहीं छपी हुई कहानी को एक निर्माता ने मुझे ही अपना बोलकर सुनाया है।एक नाम बड़े स्टार की फिल्म कम्पनी का भी है।
मैं बीते दो सालों में जब कोरोना से पूरा बॉलीवुड ख़ौफ़ज़दा था, घर मे बैठकर मंथन करने का समय पाया। मेरी भागदौड़ की जिंदगी को अपना अतीत कुरेदने के लिए कुछ समय मिला। राज बब्बर मुझसे कैसे गॉशिप लिखवाए थे। कैसे मैं सचिन से उनके ही संगीता अपार्टमेंट के घर मे लड़ पड़ा था, कैसे श्री देवी अपने शुरुवात के दिनों में बहुत दिनों तक होटल सिरॉक में रहती थी, जब लिफ्ट में छेड़छाड़ हुआ था, इसे लिखने पर मुझपर और पत्रिका 'फिल्मसिटी' पर मानहानि का केस बना था। कैसे मनोज कुमार के पिताजी की मृत्यु पर उनके आत्म- हत्या करने की कोशिशों को लिखने पर मनोज कुमार ने मुझे उपेक्षित किया था और कैसे परवीन बॉबी अपने डिप्रेशन के दिनों में अमिताभ को कोसती थी। कैसे गुलशन ग्रोवर मुझे गोलीबार नाका- सांताक्रुज के घर पर अक्सर छोड़ते थे। कैसे तीन बत्ती की चाल में रहने के दिनों में जैकी श्रॉफ ने मेरा एक घंटे हैंगिंग गार्डन की बेंच पर बैठकर इंतेज़ार किया था और कैसे मीनाक्षी शेषाद्री की मां मुझसे तगादा किया करती थी जब मैं मीनाक्षी की 'मिस इंडिया' वाली उनकी ईकलौती फ़ोटो गुमा दिया था। तब, हर फिन एक नई जिंदगी जीता था मैं। आज सोचकर रोमांच होता है। तब सितारे इतनी सुरक्षा की बंदिशों में बंधे नहीं होते थे जिस तरह आज हैं। आज तो प्रेस- कोरम है, रिलीज के समय सामूहिक वार्ता है। आदमी इतना अ-सुरक्षित कभी नही था। नेट के जाल में उलझे आजके नए सितारे क्या जाने कभी सिनेमा का व्यवहार-काल भी था। आज सबकुछ बीते दिनों की बात जैसा है। मध्य वर्गीय जीवन जीनेवाला पत्रकार भी कभी स्टार समझता था खुद को। मैं उसी कड़ी की एक इकाई हूं।देखा है मैंने गर्दिश में सितारों को
- शरद राय
पीछे मुड़कर देखने का कभी समय ही नहीं मिला। पिछले दिनों एक फिल्म संस्था ने मुझे सम्मानित करने के लिए एक प्रारूप बनाया तो मैंने उनको मना कर दिया। उनका सोचना था कि शरद राय यानी-मैं बॉलीवुड का एक ब्रांड नेम हूं, मुझे अवार्ड देंगे तो कई सितारे उनके फंक्शन में आने से मना नहीं करेंगे।लेकिन, मैं जो बॉलीवुड को बहुत अंदर- बाहर से जानता हूं इसलिए मना किया कि उन सितारों को लिवाने के लिए मुझे ही मेहनत करना पड़ेगा, उनका कृतज्ञ होना पड़ेगा, स्टेज पर मुझसे ज्यादा वे सम्मानित होंगे, मुझे उनको छापते होने के वावजूद हमेशा कृतज्ञता ज्ञापन करते रहना होगा! आखिर में यही सोचा, इस अवार्ड से भला बिना इनका अवार्ड लिए रहना! और, इसी सोच के चलते इस साल का मिलने वाला 'हिंदी फिल्म जर्नलिस्ट' का और भी 3 अवार्ड मैंने लेने से मना किया है। यही फिल्मी दुनिया का असली सच है।सोचिए, जब मुझे ऐसा सोचना पड़ रहा है तब स्टारों की हालत क्या होती होगी।
पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कल की ही तो बात है जब शुरुवात लिया था। सिर्फ 22 साल का था, फिल्म देखने का शौक नशा सा बन गया था।भारतीय नौ सेना (नेवल डाकयार्ड) में सर्विस की शुरुवात के दिन थे।कभी बेस में तो कभी पानी की जहाज पर ड्यूटी के लिए जाना होता था। बॉयलर शूट की जेब मे कागज का एक टुकड़ा और कलम इसलिए रखता था कि पिछले दिनों जो फिल्म देखकर आया था उसके बारे में कुछ न कुछ लिखने की आदत थी। 'आज', 'दैनिक जागरण', 'दैनिक भास्कर', 'अमर उजाला', 'अमृत प्रभात', 'ट्रिब्यून', 'देश बंधु', 'पंजाब केसरी'... आदि कई दैनिक अखबार थे जिनमें मैं फिल्म के लेख लिखकर भेजता था और वे मुझे छापते थे। तब मैं अपना नाम शारदा राय ''सोनी' लिखता था। सोनी- मैं तखल्लुस के रूप में लिखता था।तब मुझे पता नही था 'सोनी' का मतलब क्या होता है। मैं भट्ट ब्राह्मण हूं लेकिन लिखने-पढ़ने की दुनिया के लोग मुझे 'सोनी' बुलाया करते थे।इसीतरह का ही एक कंट्राडिक्शन शायद तब यह भी रहा कि संपादक लोग मुझे लड़की(शारदा) समझकर छापते रहे हों। जोभी था, मैं खूब छपता था और मुझे बहनजी/श्रीमती जी लिखकर खूब चिट्ठियां आने लगी थी। कोई कोई तो मुझे मदत करने की इच्छा भी जाहिर करता था।तब इस मृग मरीचिका से निकलने के लिए मैंने नौकरी छोड़ा और नाम शारदा राय 'सोनी' से बदलकर (गज़ट कराकर) ''शरद राय'' बना, एक नीट एन्ड क्लिन फिल्म पत्रकार की शुरुवात हुई थी- 1983 से।उसके पहले एंटरटेनमेंट पेज भी लिखता था, क्राइम भी लिखता था और कहानियां भी लिखता था (बाद में उन कहानियों पर दो-तीन फिल्में भी बनी)।देखते देखते 40 साल कब पार हो गए पता ही नहीं चला!
बेशक फिल्म पत्रकार का जीवन मृगमरीच का जीवन है।हर दिन नया जज्बा, हर दिन नया अपॉइंटमेंट, नई मुलाकातें... और हर दिन नए -पुराने सपने देखने वालों से मिलना, उनकी प्लानिंग, तारीफें और उड़ते आसमान की उनकी परी-कल्पना सुनना। सचमुच 'परी' (ग्लैमरस लड़की) कल्पना ही इस सिनेमा लाइन का एक और कटु सच है। मुझे शुरुवात में टाइम्स ऑफ इंडिया की फिल्म पत्रिका 'माधुरी' में छपने का मौका मिला था फिर 'मूवी जगत' हिंदी की बेख़ौफ़ लिखने वाली पत्रिका मिली- जहां बिना डरे कुछ भी लिखता था।फिर 'फिल्मसिटी' का गॉसिप पेज और हिंदी 'सामना' में संजय निरुपम जी (जो आजकल पॉलिटिशियन हैं तब संपादक थे) ने मुझे खूब काम करने की छूट दिया।फिर जुड़ा 'मायापुरी' से जो फिल्म वालों की रामायण जैसी पत्रिका थी और आज भी है। लोगों की नजर में और खुद अपने नज़रिए में मैं स्टार रहा हूं।हमेशा उत्साह से भरा रहा। आज भी जीवन की आपाधापी वही है, वैसी ही है। यहां लिखने से जुड़ा एक संस्मरण है। स्व.स्मिता पाटिल एक ऐसी तारिका थी जो मुझे बहुत मानती थी।साउथ की एक फिल्म 'पेट प्यार और पॉप' नाम से रिमेक हो रही थी।इस सेट पर स्मिता का लिया हुआ मेरा एक इंटरव्यू , एक ही टॉपिक पर 28 अखबारों में छपा था। जो स्मिता के और मेरे जीवन का एक रिकॉर्ड रहा है। ऐसा ही एक वाक्या रवीना टण्डन के साथ का है। उनके पिता स्व. रवि टंडन साहब (मशहूर फिल्म निर्माता- निर्देशक) को मैं अक्सर शाम को मिलने जाता था। उनके घर जुहू में दूसरे फिल्म वालों से मिलने के बाद जब मैं रवि जी के बंगले निप्पोन में जाता, वो अपना पैग लिए बैठे होते थे। मैं ड्रिंक नहीं करता था।रवीना तब फिल्मों में नही आई थी।मुझे देखकर कहती-'शरद भाई को मैं अपने हाथ की बनाई चाय पिलाऊंगी।' उनके घर जाते रहने का सिलसिला बहुत समय तक चला था। मैं गॉसिप लिखने का एक्सपर्ट था, लेकिन कभी बादमे जब रवीना फिल्मों में आयी, उसके लिए कभी खराब नही लिखा। छोटी बहन का भाव आज भी रवीना के लिए मेरे मन मे है।
मेरी फिल्म पत्रकारिता की यात्रा में हर दिन एक नई तैयारी और अनुभव के रूप में रहा है। जिनमे सुप्रीमो दिलीप कुमार द्वारा खार के जीमखाना(मुम्बई) में 3 घंटे अपॉइंटमेंट के वावजूद बैठकर वापस लौटना कष्टप्रद अनुभव के रूप में है।साहब बैठा दिए थे पर बात करें, इसके लिए उनका मूड नही था। यह टाइम था जब मैं उनको मुम्बई एयरपोर्ट पर मेरे अंकल कस्टम ऑफिसर लाल साहब के साथ मिलकर टाइम मांगा था... कुछ समय बाद कि बात थी जब दिलीप साहब हैदराबाद की अस्मा रहमान के साथ निकाह (दूसरा विवाह) कर लेने की चर्चा में थे।
जूही चावला मुझे तब भी बहुत अच्छी लगती थी जब वह अपनी पहली फिल्म 'कयामत से कयामत तक'' में शुरुवात ली थी और आज भी बहुत अच्छी लगती हैं। मेरे मित्र इज़हार हुसैन फिल्म के निर्देशक मंसूर खान के साथ Q se Q tk में सहायक थे। वे जूही को बहुत पसंद करते थे। जूही की मां ताज होटल से जुड़ी थी और होटल के दिये गए बड़े से घर में कफ परेड(कोलाबा) में उनका परिवार रहता था। इज़हार भाई मुझे कितनी दोपहरिया जूही के यहां लेकर जाते थे।हम घंटों बैठकर हंसते - बातें करते थे। हमने कई फिल्म निर्माताओं से जूही की तारीफ किया था कि वे जूही को अपनी फिल्म में हीरोइन लें। फिर जूही स्टार बन गयी। इज़हार हुसैन लेखक अली रज़ा के भाई और स्व. अभिनेत्री निम्मी जी के देवर हैं।इज़हार ने जूही को लेकर एक फिल्म बनाना चाहा तो स्टार बनगई जूही ने मना कर दिया।इज़हार एकदम दूर हो गए जूही से। मुझे दुख हुआ था क्योंकि उनके कहने पर ही मैंने जूही का किसी हिंदी पत्रिका में पहला इंटरव्यू छापा था। जूही की वो चंचल हंसी स्टारडम के साथ खोती गयी थी।
मेरी पत्रकारिता के पिछले उड़ते पन्नों में कई सितारों के नाम हैं जिनका पहला इंटरव्यू मैंने किया है। जैकी श्रॉफ, मोहनीश बहल, मीनाक्षी शेषाद्री, मनोज कुमार के भाई राजीवऔर बेटे कुणाल गोश्वामी, मीनाक्षी शेषाद्री और भी कुछ नाम हैं जो स्टार नहीं बन सके। नूतन जी याद आती हैं जिनके पीआरओ ब्रजेश दुबे भी कुछ दिनों के लिए थे।नूतन जी ने कहा था- 'इसके(मोहनीश) लिए कहीं बात चलाओ न! मैं किसी से नहीं कह सकती।' वह बहुत खुद्दार महिला थी। उनदिनों अपने नेवल अफसर पति से दुखी भी रहा करती थी। और ऐसा ही कुछ 'रामायण' धारावाहिक के राम अरुण गोविल की पत्नी लेखा गोविल ने कहा था 'रामायण' खत्म होने के बाद। अरुण गोविल भगवान बनकर बैठ गए थे घर मे। उनकी भयानक पॉपुलोरिटी थी किंतु भगवान को काम कौन देता? लेखा ने मुझे और मेरे साथ उनके घर गए राजशेखर (जाम्बुवंत) से कहा था-'अरुण के लिए कहीं काम के लिए बात चलाओ न! घर मे बैठकर पागल हो रहा है।'' वरिष्ठ अभिनेता जानकी दास मुझे फ़िल्म लेखक बनने का प्रस्ताव दिए- ''एक आइडिया है, तुम मेरे साथ बैठकर लिखो, दोनो का नाम लेखक में जाएगा।' फिल्म टीसी दीवान की थी- 'यादों की कसम'। इस फ़िल्म (ज़ीनत अमान-मिथुन चक्रोबर्ती) के लिए मैं जानकी कुटीर में 24 दिन, बिना चाय-नास्ते के अकेले बैठकर पूरी फिल्म लिख डाला था। फिल्म आयी तो स्टोरी लेखक के रूप में सिर्फ जानकी दास का नाम था, दूसरी क्रेडिट में औरों के नाम दिए हुए थे।फिल्म लेखन से जुड़े कई रोचक किस्से हैं। यकीन करेंगे-मेरी ही कहीं छपी हुई कहानी को एक निर्माता ने मुझे ही अपना बोलकर सुनाया है।एक नाम बड़े स्टार की फिल्म कम्पनी का भी है।
मैं बीते दो सालों में जब कोरोना से पूरा बॉलीवुड ख़ौफ़ज़दा था, घर मे बैठकर मंथन करने का समय पाया। मेरी भागदौड़ की जिंदगी को अपना अतीत कुरेदने के लिए कुछ समय मिला। राज बब्बर मुझसे कैसे गॉशिप लिखवाए थे। कैसे मैं सचिन से उनके ही संगीता अपार्टमेंट के घर मे लड़ पड़ा था, कैसे श्री देवी अपने शुरुवात के दिनों में बहुत दिनों तक होटल सिरॉक में रहती थी, जब लिफ्ट में छेड़छाड़ हुआ था, इसे लिखने पर मुझपर और पत्रिका 'फिल्मसिटी' पर मानहानि का केस बना था। कैसे मनोज कुमार के पिताजी की मृत्यु पर उनके आत्म- हत्या करने की कोशिशों को लिखने पर मनोज कुमार ने मुझे उपेक्षित किया था और कैसे परवीन बॉबी अपने डिप्रेशन के दिनों में अमिताभ को कोसती थी। कैसे गुलशन ग्रोवर मुझे गोलीबार नाका- सांताक्रुज के घर पर अक्सर छोड़ते थे। कैसे तीन बत्ती की चाल में रहने के दिनों में जैकी श्रॉफ ने मेरा एक घंटे हैंगिंग गार्डन की बेंच पर बैठकर इंतेज़ार किया था और कैसे मीनाक्षी शेषाद्री की मां मुझसे तगादा किया करती थी जब मैं मीनाक्षी की 'मिस इंडिया' वाली उनकी ईकलौती फ़ोटो गुमा दिया था। तब, हर फिन एक नई जिंदगी जीता था मैं। आज सोचकर रोमांच होता है। तब सितारे इतनी सुरक्षा की बंदिशों में बंधे नहीं होते थे जिस तरह आज हैं। आज तो प्रेस- कोरम है, रिलीज के समय सामूहिक वार्ता है। आदमी इतना अ-सुरक्षित कभी नही था। नेट के जाल में उलझे आजके नए सितारे क्या जाने कभी सिनेमा का व्यवहार-काल भी था। आज सबकुछ बीते दिनों की बात जैसा है। मध्य वर्गीय जीवन जीनेवाला पत्रकार भी कभी स्टार समझता था खुद को। मैं उसी कड़ी की एक इकाई हूं।