शरद राय
'मैं उन दिनों अमेरिका में था।पता चला एक इंडियन भाई एक डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहते थे कश्मीर पर, बहुत कम बजट में। मेरे एक मित्र के कहने पर मैं उनको मिला...बात समझ में नही आई। मैंने उनको समझाने का प्रयास किया क्यों न फीचर फिल्म बनाया जाए। वह कश्मीर पर फिल्म बनाना चाहते थे। मैंने खुद मे मंथन किया। भारत आकर मैं पल्लवी (पल्लवी जोशी ) से बात किया , वह भी सहमत हुई।लेकिन हम कश्मीर टॉपिक पर कोई भी, कैसी भी, फिल्म नही बनाना चाहते थे। उसपर बहुत सारी फिल्में आचुकी हैं।हम नया क्या देंगे? हमने तय किया कि हम कश्मीर से विस्थापित हुए उन लोगों से मिलकर बात करेंगे, उनका इंटरव्यू करेंगे।इस काम मे सुरेंद्र कौल जी ने हमारी मदत किया। हमने अपनी टीम के साथ करीब सात सौ विस्थापित कश्मीरियों का इंटरव्यू किया।हम जम्मू में उनके साथ, उनके कैम्पों में बैठकर बात किये। उनकी पुरी कहानी रेकॉर्ड किए। 4 साल से हम इस फिल्म के लिए शोध वर्क करते लगे रहे।
आज जो फिल्म ('द कश्मीर फाइल') दर्शकों के सामने है, पूरी प्रमाणिकता से बनाई गई फिल्म है। बल्कि बहुत से दृश्य डायलॉग तो उन विस्थापित लोगों के बताए हुए हैं जिनको हमने फिल्म में ज्यों का त्यों रखा है। हमने उनमे से कइयों को कहा था कि जो आपके अनुभव हैं, उनको लिखकर दीजिए। बहुतलोगों ने दिया। कई लोगों की लिखी बात को हमने फिल्माया है कुछ के तो लिखे हुए डायलॉग तक हमने इस फिल्म में रखा है।बस, उनकी बातों को ड्रामेटाइज भर करके दिखाया है। मैं फिल्म के बारे में आज की तारीख में कुछ नही कहूंगा क्योंकि जो कुछ है अच्छा बुरा अब दर्शकों के सामने आ चुका है। बेशक फिल्म बनाने और रिलीज करने की दिक्कतें जरूर बताना चाहूंगा।और, यहभी कहूंगा कि 'द कश्मीर फाइल्स' जैसी फिल्में बन जाया करती हैं।'
'जब कोई फिल्म बननी होती है तो उसके लिए समय लगता है, धैर्य रखना पड़ता है। एक एक चीज का विचार करना होता है। लेकिन हमने ईमानदारी से सच दिखाने की कोशिश किया। फिल्म बनने में फाइनेंसियल दिक्कत सामने आई लेकिन मुझे पार्टनर मिल गए। फिर कलाकारों का चयन, उनकी वहां के परिवेश के अनुरूप तैयारी ये सब बातें, लोकेशन की रैकी तमाम बातें होती हैं एक फिल्म बनाने में, इन सबको मैंने अपनी दूसरी फिल्मों के मुकाबले कश्मीर फ़ाइल में ज्यादा झेला है। कश्मीर की आज़ादी , जेएनयू के आंदोलन के दृश्य और उनके माध्यम से कश्मीर में बसने और रिसर्च करने वाले बौद्धिक समाज के पंडितों (ऋषी कश्यप- जिनके नाम पर कश्मीर का नाम पड़ा, अभिनव देव, उत्पल गुप्त, चरक, कालिदास,भामा, बटेश्वर, जयंत और शंकरा चार्य तक जो केरल से चलकर कश्मीर आए थे- जब आने जाने के साधन नही हुआ करते थे) इनके द्वारा कश्मीर के गौरव को बताना, उनके वहां जाकर अध्यन करने और उनके वहां बसने की बात समझना एक बड़ा काम था। जब हम लोगों से बातें करने उनके पास गए थे, बातचीत के दौरान हमे पता चला कि ये बातें कई पंडितों को पता तक नही थी।
लोग हम पर आरोप लगाते हैं कि वहां मुस्लिम भी तो थे, वे क्यों नही गए? हमसे ही यह बात क्यों पूछ रहे हैं।जब 'रोज़ा' बनी, जब 'फना' बनी, जब 'मिसन कश्मीर' और ऐसी बहुत सी फिल्में बनी तब क्यों सवाल नही उठाए गए उन निर्माताओं पर।सबने अपने अपने नज़रिए से दहसतगर्दी दिखाया था। 1990 के आसपास जो कुछ पंडितों के साथ हुआ उसपर मेरी नज़र गयी क्योंकि मैं यथार्थ को देखना पसंद करता हूँ। मेरी पिछली फिल्म 'तासकन्त फासिल्स' को भी लेकर आलोचना हुईथी। कश्मीर...भी उन्ही लोगों की आलोचना के घेरे में है।दर्शक समझते हैं कि मेरी फिल्म यथार्थ को दिखाती है जो घटित हुआ था। हिन्दू- मुस्लिम खेलना हमारा मकसद नही था और ना अगली फ़िल्म (वो भी एक फाइल्स ही रहेगी) में होगा। मैं सिर्फ एक बात उन आलोचकों से पूछना चाहूंगा कि क्या वे स्टीवन स्पिलवर्ग की किसी फिल्म को लेकर कभी सवाल करते हैं? या कभी ' सैंडलर्स लिस्ट' पर चर्चा किए? मणिरत्नम की फ़िल्म 'रोजा' या अशोक पंडित की फिल्म पर सवाल नही करते जो खुद वहां से हैं।''
''मैंने इसीलिए फिल्म रिलीज के समय अपनी फैमिली से कहा था कि हम इसे अमेरिका में चलाएंगे।कोरोना के बाद यहां फिल्म रिलीज को लेकर एक बड़ी उहापोह थी। थियेटरों में कोई देखने जाएगा इस फिल्म को मुश्किल था सोचना।तब आज के रिजल्ट की उम्मीद नही कर सकते थे। मैंने कहा इसको अमेरिका में लोग समझेंगे। जब हम वहां जाकर लोगों से बताए तो यकीन कीजिए 36 स्वयं सेवी ट्रस्ट की संस्थायें आगे आयी। सबको हमारा कांसेप्ट बहुत पसंद आया। जब फिल्म को इंडिया में लगाने की बात किए फिल्म की चर्चा इतनी हो चुकी थी कि हम दंग रह गए। पहले दिन ही बम्पर ओपनिंग और दूसरे दिन उससे अधिक और इसी तरह। हमने डरते डरते 450 थियएटरों पर लगाया था और फिर थियएटर बढ़ाते जाना पड़ा। विदेश से लोग यहां इंडिया में फिल्म देखने के लिए मेसेज कर रहे थे।लोग आपस मे एक दूसरे को फिल्म देखने के लिए मैसर्ज करने लगे टिकट भेजने लगे यह सब एक मिराइकल कि तरह ही ही है। बाकी कहानी आपके सामने है। लोग कह रहे हैं कि 'द कश्मीर फाइल्स' ने उजड़ रहे सिनेमा घरों को बसा दिया है। शायद ठीक ही कह रहे हैं।'