-सुलेना मजुमदार अरोरा
'ग़ालिब के अनुसार दर्द का हद से गुज़रना ही है दवा हो जाना , इस एहसास को चरितार्थ करते हुए, हर बार की तरह, फिल्म मेकर विवेक अग्निहोत्री ने फिर एक बार दिल के कोने में सुप्त पड़ी सुलगती राख में से एक चिंगारी को चुन लिया और उन कश्मीरी हिन्दुओं/पंडितों के दिल में छुपे दबे दर्द को रेखांकित करते हुए फिल्म 'कश्मीर फाइल्स' के जरिए उनकी पीड़ा पर मरहम लगाया और उनके तड़प, उनके प्रश्नों, उनके प्रति हुए अन्याय को एक क्लोजर दिया जो नब्बे की दशक में आघात, अलगाव के चलते अपना सब कुछ छोड़ कर पलायन की विभीषिका से रुबरु हुए थे।
पूरी बॉलीवुड हैरान है, एक छोटे पैमाने पर बनी फिल्म ने ऐसा क्या कयामत ढा दिया कि नेता, राजनेता, मंत्री, प्रधानमन्त्री, पक्ष, विपक्ष सबके बीच बस इसी फिल्म की चर्चा है, कोई इस फिल्म की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए इसे टैक्स फ्री कर रहे हैं तो कोई इस फिल्म को बैन करने की गुहार लगा रहे हैं। विवाद जितना बढ़ रहा है उतने ही अलग अलग खेमे बनते जा रहे हैं और फिल्म उतनी ही लोकप्रिय होती जा रही है। फिल्म के कई मार्मिक दृश्यों के साथ, य़ह भी दिखाया गया है कि युवा कश्मीरी हिंदुओं और उनकी संस्कृति के बीच चल रहे मनमुटाव के बीच एक समुदाय वो भी है जो अभी भी सच्चाई और सुलह के लिए जूझ रहा है। फिल्म अद्भुत है, रोंगटे खड़े कर देने वाली है, इसलिए यह आकर्षण का केंद्र भी बनी हुई है और विवादों का केंद्र भी। कमाल की बात तो यह है कि इस फिल्म में वो कुछ भी नहीं है जो बॉक्स ऑफिस में चांदी बरसाने के लिए अक्सर आजमाया जाता है। ना इसमें कोई सुपरस्टार है ना कोई, ना दर्शकों को आकर्षित करने के लिए कोई आइटम डांस, ना कोई वल्ग़र दृश्य, यानी यह फिल्म तो किसी हिसाब से बॉक्स ऑफिस पर कमाने के लिए बनाया ही नहीं गया तो फिर बॉक्स ऑफिस हिट बनने का सवाल ही नहीं उठना चाहिए था लेकिन इन सबके बावजूद यह जादू कैसे हो गया?
इस प्रश्न पर सिनेमा हॉल से रोते बिलखते दर्शकों का उत्तर मिलता है कि 'कश्मीर फाइल्स' का मुख्य आकर्षण है फिल्म की कहानी और दर्शकों पर इसका गहरा प्रभाव। फिल्म भले ही कल्पित हो लेकिन जिन घटनाओं पर यह आधारित है वो हाल के कश्मीर इतिहास का अंग है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। क्या कश्मीरी हिन्दुओं का कश्मीर से कूच कर जाना सत्य नहीं है? क्या वे लोग अपनी मर्जी से, काम की तलाश में या किसी प्राकृतिक विभीषिका के कारण अपना घर बार, अपनी जमीन अपना इतिहास, अपनी संस्कृति छोड़ कर गए थे? ऐसा करने के लिए वे तभी बाध्य हुए होंगे जब उन्हें या तो कश्मीर छोड़ने, या अपना धर्म बदलने या मौत को गले लगाने के लिए कहा गया होगा और यह फिल्म इसी त्रासदी को उजागर करती है जो 1989 से 1995 के दौरान घटी। दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ जब लाखों लोग अपने ही स्वतंत्र देश में शरणार्थी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हुए। बताया गया कि इन वर्षों में कश्मीरी हिंदू पंडितों के साथ बर्बरता की हद हो गई, क्रूर हत्याएँ, हिंसा, बलात्कार से जूझते वे लोग आज भी उस त्रासदी को भूल नहीं पाएं। और यही वजह है कि जब किसी फिल्म मेकर ने इस ढ़की छुपी सच्चई को फिल्म के रूप में बनाने की हिम्मत की तो उनकी जयजयकार होने लगी। अब स्तिथि यह है कि जो इस फिल्म के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं और इसे बैन करने की गुहार कर रहे हैं उनके बारे में यह कहा जाने लगा है कि जरूर या तो वे इतिहास के इस भयानक अपराधों के हिमायती रहे होंगे या इसे रोक पाने में अपनी अक्षमता को छुपाना चाह रहे होंगे। लेकिन यहां यह कहना भी गलत नहीं होगा कि उस दौर में बॉर्डर पार से आए कुछ आतंकवादी संगठनों ने जो आतंक मचाया उसके लिए देश के सभी मुसलमानों पर सवाल कभी नहीं उठना चाहिए, भला क्यों कोई देशवासी, चाहे वह मुस्लमान हो या हिंदु, बाहर से आए लुटेरों का साथ देंगे।
विपक्ष के कई लोग तो अब सवाल य़ह भी उठा रहे हैं कि जब इतना सब सामने दिख रहा है तो जयजयकार करने वाले क्या कदम उठा रहे हैं उन विस्थापितों की पुनर्वास, पुनर्स्थापना के लिए? पावर में है तो इतिहास खंगालकर जो जानकारी मिली उसपर कुछ एक्शन लिया जाने की बात भी होनी चाहिए। कुछ विपक्षी इस बात पर भी उंगली उठा रहे हैं कि इस देश में जब कश्मीरी हिन्दुओं की त्रासदी को सामने लाने की किसी ने साहस किया है तो और भी इस तरह की मर्मांतक घटनाओं को भी सामने लाया जाना चाहिए, पीड़ित चाहे किसी भी धर्म का क्यों ना हो, हिंसा तो हिंसा ही है और अपराध तो अपराध ही है। खैर वाद विवाद, या फिर फिल्म मेकिंग के प्रत्येक पहलू पर छींटाकशी और छोटी मोटी खामियों पर नुक्ताचीनी करके कोई भी, इस फिल्म को अपनी बात स्पष्ट रूप में दुनिया के सामने रखने से रोक नहीं पाएगा क्योंकि उस त्रासदी के भुक्तभोगी आज भी जीवित हैं, साक्षी आज भी सामने है और सच्चाई मुखर है। अब जब सबकुछ सामने है तो देर किस बात की। पीड़ितों की पीड़ाओं को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम कौन उठाने को तैयार है। रोने, रुलाने से उपर उठकर अब उन पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम लगाने का समय आ गया है। साथी हाथ बढ़ाना।