फ़िल्म पत्रकार- नवीन जैन
लगभग दो दशक पहले एक वरिष्ठ (अब स्वर्गीय) पत्रकार- लेखक ने बड़ी बात लिख दी थी। उन्होंने अपने स्वप्निल अंदाज़ में लिखा था कि अब मैं लता मंगेशकर ,और सुनील गावस्कर पर न लिखने के कारण कान पकड़ना चाहूँगा।कारण कि उक्त दोनों के लिए मेरे पास उपलब्ध दस -बारह डिक्शनरीज में न ,तो संज्ञा ,न विशेषण ,और न ही अलंकार बचा है। वे पत्रकार मूलतः इन्दौर के ही थे ,लेकिन दुनिया उनके लिखे पर कुर्बान जाती थी। फिर भी अपन ने सोचने की जुर्रत कर डाली कि चाँदनी में भीगकर क्या किसी का मन हरदम के लिए भर सकता है? हवाओं की ज़रा-सी गुनगुनाहट क्या किसी को हमेशा के लिए तृप्त कर सकती है ?सूरज की ज़रा-सी रोशनी क्या हरदम के लिए किसी में शक्ति या ऊर्जा का संचार कर सकती है ? और क्या किसी एकाध नाराज़ बच्चे को एक बार हँसा कर दिल अंतिम रूप से भर सकता है ?महसूस गहरे से हुआ कि फ़िर लता मंगेशकर पर बार- बार क्यों नहीं लिखा जाना चाहिए। यही लगातार की चर्चा उनके कण्ठ के नए- नए राज़ ,और जादू खोलती है ।थोड़ा सा ही वैसा ,जैसे हम रोज़ ब रोज़ गीता या रामचरितमानस मानस का हम पारायण किया करते हैं। मैं ,ठीक कह रहा हूँ न ? एक किस्सा सुनाता चलता हूँ।
कुछ वैज्ञानिकों ने डरते डरते तत्कालीन भारत सरकार से अपील की कि यूँ ,तो हम लताजी के चिरायु होने की कामना करते हैं ,लेकिन पेशागत मजबूरी के चलते अनुरोध करते हैं कि जब कभी लता मंगेशकरजी का निधन हो जाए ,उनकी मृत देह हमें सौप दी जाए। हम मुँह माँगी पूरी राशि अग्रिम अदा करने को तैयार हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इसी तरह के अमानवीय प्रयोग किए जाने के लिए कभी बदनाम भी हो जाया करता है। ये वैज्ञानिक दरअसल लताजी के कंठ का परीक्षण करने चाहते थे। सो,बात का ज़्यादा बतंगड़ नहीं बना। उक्त वैज्ञानिक लताजी के कंठ का गहन परीक्षण करना चाहते थे। वह दरअसल इन्दौर की एक तब नामालूम सी गली थी ,जिसका आज भी नाम है सिक्ख मोहल्ला। अब तो उस मोहल्ले की रातें सोने भी कम से कम जाती हैं ,क्योंकि एक से एक चाट ,और दूसरे शाकाहारी व्यंजन वहां मिलते हैं ।इन्दौरी मसखरे इन्हें के खाऊ ढिये कहते हैं ,लेकिन करीब 92 साल पहले की वह रात अनमनी ,गुमसुम ,और काफ़ी बुझी बुझी सी थी। सन था 1929। तारीख थी सेप्टेंबर 28,और दिन था शनिचर। उसी मोहल्ले में मास्टर दीनानाथ के घर रात में एक किलकारी गूँजी। वही किलकारी इन्दौर का नाम जग भर में जगमग करने के अथक सफ़र पर जो निकली तो आज ही चुप हुई। तब उसका नाम था हेमा, और उम्र बढ़ते बढ़ते हुईं बारह साल के आस पास। उपलब्ध संदर्भ कहते हैं कि हेमाजी तभी से स्थानीय मनोरम गंज में संगीतज्ञ नाना महाराज तराने कर से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेने जाया करती थी। सभी बहनों और एक भाई में सबसे बडी हेमा की गायिकी के बारे में पिता को पहले पहल कुछ मालूम नहीं था। वे, तो एक नाटक मंडली चलाते थे। एक बार वे महाराष्ट्र के शहर मनमाड में सौभ्र्द नाटक के मंचन के लिए गए।ऐन वक़्त पर पुरुष पात्र की तबीयत ख़राब होने से हेमा ,जो अब तक लता हो चुकी थी , को उनका रोल दिया गया। जल्दी ही आशा मीना उषा तथा भाई ह्र्दयनाथ का जन्म हुआ। तब तक यह परिवार मुंबई शिफ्ट हो चुका था।
जब मास्टर दीनानाथ नहीं रहे तो माई मंगेशकर ने एक शेरनी की भूमिका अदा की। दरअसल इस परिवार को मुंबई के ग्रांट रोड इलाके में रहने को एक ओटला ही मिला। तभी से मुंबई के बारे में जुमला चलने लगा कि यहां रोटला तो मिल जाता है खाने को लेकिन रहने को ओटला नही मिलता। माई मंगेशकर को बेटियों की इतनी चिंता रहती की वह अकेले ही रातभर ताश खेलकर या यूँ ही जगती रहती। बाद में एक चमत्कार हुआ। माई मंगेशकर ने एक गुंडे को अन्य गुंडों से बचा लिया ।उक्त गुंडा रातोरात ह्रदय परिवर्तित होकर पूरे परिवार की लंबे समय तक रातभर देखभाल करता रहा। कहते है सुरों को साधना पड़ता है वर्ना चाहे जितनी मीठी आवाज हो उसमें गायकी का नूर ,और जज़्बा पैदा नहीं होता। उम्र के 72 वे साल में लताजी को जब नियमों में परिवर्तन करके भारत रत्न से आभूषित किया गया तब भी उन्होंने एक प्रोग्राम में संचालक हरीश भिमानी को एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि यूँ तो मेरी उम्र 72 साल हो चुकी है लेकिन आप इसे उल्टे करके 27 भी कर सकते है। उन्होंने पहला फिल्मी गीत मराठी फिल्म गजा भाऊ में गाया था। अपने करियर में उन्होंने इतने गीत गाए की सही संख्या उन्हें ही मालूम नही रही होगी। और भाषाएं भी अनेक रही। इस दौरान उन्होंने प्यार तथा भक्ति के फूल खिलाये। अकेलेपन और उदासी में रेशमी यादों की रंगीन बुनावटें की। दुःख एवं कमजोर समय में जिंदगी के हरेभरे पन की सूचनाएं पहुँचाई, लेकिन कमाल यह रहा कि वे ताउम्र अविवाहित रहीं। अब यहां भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष राजसिंह डूंगरपुर और संगीतकार सी, रामचंद्र का जिक्र करने की अपनी हैसियत नहीं है, क्योंकि यह उनका नितांत निजी मामला था।हाँ, उनकी तन्हाई से उपजे दुख ने ही उन्हें शायद अंदर से इतना बड़ा बना दिया कि उनकी आवाज कहीं न कहीं हर गले की आवाज़ हो गई। लताजी खुद मानती थी कि शुरू शुरू में वे पाकिस्तान की मलिका ए तरन्नुम नूरजहाँ से प्रभावित थीं। एक बार नूरजहाँ की बेटी बीमार पड़ी। हालत सख्त थी। लताजी ने मुंबई से टेलीफोन पर उसे लोरी सुनाई।
धीरे धीरे बच्ची हंसने लगी। लताजी नूरजहाँ को आपा यानी बहन सम्बोधन देती थी। सालों पाकिस्तान के लोग कहते रहे कि भारत की जैसी दो ही चीजे हमारे पास नही है। एक, ताजमहल औऱ दो, लता मंगेशकर। पाकिस्तान के लोग तीन भारतीयों की ही दिल से इज्जत करते है। लता मंगेशकर, भारत रत्न सचिन तेंदुलकर औऱ सुनील गावस्कर।गज़ब संयोग है कि ये तीनो ही महाराष्ट्रीयन है।शुरू शुरू में लताजी के हिंदी उच्चारण मराठी टच लिए हुए थे। इस कमी को परिमार्जित करने के लिए उन्होंने पहले उर्दू की मुकम्मिल तालीम हासिल की। इसीलिए भारत मे रिलीज होने से पहले ही पाकिस्तान में उनके कैसेट औऱ सीडी तस्करी से चले जाते थे। लताजी ने ही कभी कहा था कि क्रिकेट भारत का धर्म बन चुका है और सचिन तेंदुलकर उसके भगवान। यदि लताजी की गजलों को सुनना हो और उसकी रेंज में पाताल में उतरना हो तो जगजीतसिंह की उनके साथ गाई ग़ज़लें सुनी जा सकती है या फिर संगीतकार मदनमोहन की बनाई एक से एक बंदिशें कानों का ज़ायका बदल देती है। काफी अफवाहें फैली कि छोटी सगी बहन आशा भोंसले के करियर को लताजी ने खासकर नुकसान पहुँचाया। दोनों में बातचीत तक नहीं होती थी। ऐसे ही सुमन कल्याणपुर के करियर को बीच मे समाप्त कर देने की उल्टी सुलटी बातें भी कही जाती रही, लेकिन यह भी सच है कि सुमन जी के जितने भी गाने हिट हुए वे लगभग सभी लताजी पर आए काम के अतिरिक्त बोझ के कारण सुमन जी को मिले। लताजी की आवाज़ में दूर दूर तक मंदिर ही मंदिर की घण्टियाँ गूंजती है, जबकि आशाजी की गायकी में ओ, पी, नैयर और आर,डी, बर्मन मयखाना और कभी मन्दिर भी लेकर आये। हर बड़ा आदमी कहीं न कहीं से झक्की होता ही है।
लताजी के लगभग 4 हजार मोहम्मद रफी के साथ आए लेकिन फीस की बात को लेकर लताजी ने एक बार ऐसा हंगामा खड़ा कर दिया कि मोहम्मद रफी जैसे शरीफ आदमी को भी उनसे सालों मुँह मोड़े रखना पड़ा।उनकी सबसे ज्यादा किशोर कुमार से पटती थी ,जो इन्दौर के ही कॉलेज में पढ़े थे ,और मस्ताने स्वभाव के कारण मज़ाक भी बड़ी तहजीब से किया करते थे। यदि कोई गड़बड़ हो जाती तो लताजी की डाँट भी खानी पड़ती ,लेकिन दोनों और अभिनय सम्राट दीलिप कुमार में भाई बहन जैसा पवित्र ,और पावन रिश्ता था। जब दीलिप साहब लताजी के बारे में कुछ भी बोलते ,तो लगता था शब्दों के माणक मोती किसी के लिए फूल बनकर रास्ते में स्वागत के लिए खड़े हों ।लंबे समय तक माना जाता रहा कि अमिताभ बच्च्न को लताजी पसंद नहीं करती थी ,लेकिन मुंबई के एक कार्यक्रम में दोनों ने साथ गाकर उक्त बात को ग़लत साबित कर दिया। जब अमिताभ को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया ,तब लताजी ने ही शायद सबसे पहले यह कहा था कि अमिताभ बच्चन को भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए ।यह भी संयोग ही है कि जिन कवि प्रदीप के लिखे गाने ऐ मेरे वतन के लोगों को गाकर पण्डित नेहरु सहित पूरे देश को लताजी ने रुला दिया था ,उन्हीं राष्ट्र कवि प्रदीप का आज ही के दिन (फरवरी 06) को जन्म दिन पड़ता है। जब इलाज के लिए प्रदीपजी के पास पैसे नहीं थे ,तब लताजी उनके मुंबई स्थित घर पर एक लाख रुपए की सहायता राशि भेंट करने लताजी गई थीं।
वे क्रिकेट की इतनी दीवानी थी कि दुनिया के हरेक छोटे बड़े स्टेडियम में उनके नाम से सीट रिजर्व रहती थी। वे राजनीति में अटलजी का सबसे अधिक सम्मान करती थीं और यदि अटलजी की चलती तो वे सर्वसम्मति से राष्ट्रपति भी नियुक्त हो सकती थी। अटलजी के निधन पर उन्होंने शोकांजली यह कहकर दी थी कि आज मन कहीं लग नही रहा है। बहुत अनमनी और उदास हूँ। उन्हें चाहने वाले ही नहीं , नहीं चाहने वाले आज यह कहने की दिलदारी तो रखते ही होंगे कि पिछले दो,तीन बार की तरह खुद लताजी सोशल मीडिया पर आकर एलानिया बस यह कह दे कि मैं स्वस्थ एवं प्रसन्न हूँ। सुनील गावस्कर ने एक बार कह दिया था कि वे नूरजहाँ को नहीं लता मंगेशकर को जानते है और उन्हें सदा इस बात का गर्व रहेगा कि लता मंगेशकर,सचिन तेंदुलकर,जयंत नार्लीकर,आशा भोंसले और वे खुद महाराष्ट्रीयन जमात से आते है। स्वर्ग से सूचना मिलने का कोई डाकखाना है नहीं, लेकिन कल्पना तो की ही जा सकती है कि स्वर्ग में लताजी के आगमन से चहुँओर हरदम के लिए जश्न का माहौल बन गया होगा। भले ही पृथ्वी पर यह शोक दिवस हो। लताजी आपकी गीत गंध हर पीढ़ी के नवजागरण की अनिवार्य जरूरत है। अपने गाने की तरह हरदम खुशबू देती रहें कि रहें या न रहें हम,महका करेंगें,