-सुलेना मजुमदार अरोरा
मदर्स डे पर, टेलीप्ले 'माँ रिटायर होती है', 'चंदा है तू' और 'ऐ लड़की' हमें याद दिलाती है कि माताएं न केवल बच्चों को अपना सब कुछ दे सकती हैं बल्कि सहानुभूति, सम्मान और थोड़ी मदद की भी पात्र हैं हर मदर्स डे पर, इस बात को ध्यान में रखे बिना कि माताएं अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए क्या कुछ नहीं करती और बदले में उन्हें भी थोड़ा आराम और थोड़ा अपने लिए समय चाहिए, उनकी भी मानवीय सीमाएँ है, बस माताओं को महिमामंडित किया जाता है। ज़ी थिएटर के 'माँ रिटायर होती है', 'चंदा है तू' और 'ऐ लड़की' जैसे नाटकों में, आप ऐसी महिलाओं से मिलेंगे जो हमें याद दिलाती हैं कि माताएँ भी थक जाती हैं और उन्हें खाली प्रशंसा के बजाय देखभाल और समर्थन की भी जरूरत होती हैं। प्रस्तुत है माताओं को समर्पित चंद टेली प्लेज
ऐ लड़की:-- ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कृष्णा सोबती द्वारा लिखी गई यह कृति एक बूढ़ी, बीमार महिला और उसकी देखभाल करने वाली उसकी बेटी के बीच के रिश्ते के इर्द-गिर्द घूमती है। माँ अपनी जवानी, शादी, गर्भावस्था और अपने द्वारा बनाए गए अपने परिवार की पुरानी यादों से भरी है। जैसे-जैसे उसका जीवन समाप्त होता है, वह सोचती है कि क्या उसे अपने अस्तित्व को रेखांकित करने के लिए और अधिक कुछ करना चाहिए था। क्या वह सिर्फ एक पत्नी,माँ, दादी, एक बड़े वंश की पालन-पोषण करने वाली स्त्री से बढ़कर भी, अपने लिए कुछ खास हो सकती थी? वह कभी-कभी अपनी सिंगल बेटी को ताना मारती है कि कोई उसे अपनाता क्यों नहीं, लेकिन साथ ही, बेटी को अपनी दृष्टि से ओझल भी नहीं होने देती है। अपने जीवन को लेकर अफसोस और परस्पर विरोधी भावनाओं की लहरों के बीच, वह अंत में समझती है कि उसकी बेटी, जिसे वह 'ऐ लड़की' के रूप में तिरस्कार के साथ संदर्भित करती है, वह उसकी अपनी है और यह भी समझ जाती है कि वह खुद एक पत्नी और एक माँ के रूप में निभाई गई भूमिकाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी। .'ऐ लड़की' की लेखिका सोबती ने ये कहानी अपनी मां को श्रद्धांजलि के रूप में लिखी थी जो दर्शकों को याद दिलाता रहता है कि लोगों द्वारा महिलाओं से जिन जिम्मेदारियों को निभाने की अपेक्षा की जाती है, दरअसल वो एक ऐसी व्यक्ति हैं जो जीवन में अपना रास्ता खुद तय करने के योग्य हैं। रसिका अगाशे द्वारा निर्देशित, इस टेलीप्ले में सपना सैंड, भूमिका दुबे, मंजीत यादव भी हैं।
माँ रिटायर होती है:--यह मूल रूप से अशोक पटोले द्वारा मराठी में लिखी गई कहानी है। राजन तम्हाने द्वारा निर्देशित इस फिल्म में दिवंगत रीमा लागू सुधा की भूमिका में हैं, जो निस्वार्थ माँ, पत्नी और दादी हैं, जो अचानक एक दिन अपने घरेलू कर्तव्यों से 'सेवानिवृत्त' होने का मन बना लेती है। कई दशकों तक बिना शर्त, निःस्वार्थ भाव से अपने परिवार की सेवा करने के बाद, आखिरकार वह अपनी मर्जी से जीने का फैसला करके अकल्पनीय काम करती है। जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है, हमें पता चलता है कि सुधा एक लेखिका भी थीं, लेकिन उनकी यह क्षमता घरेलू ज़िम्मेदारियों के कारण छीन ली गई थी। यह नाटक इस बारे में सूक्ष्म टिप्पणी करता है कि कैसे महिलाओं को हल्के में लिया जाता है और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे दूसरों की खातिर अपनी खुशी का त्याग करें। यह कहानी यह भी दर्शाती है कि घर पर उनके द्वारा किए गए सभी अवैतनिक परिश्रम के लिए उन्हें कितना कम सम्मान दिया जाता है। नाटक का फिल्मांकन निर्देशक सुमन मुखोपाध्याय ने किया हैं और इसमें यतिन कार्येकर, सचिन देशपांडे, श्वेता मेहेंदले, संकेत फाटक, मानसी नाइक और रुतुजा नागवेकर भी हैं। आप 'मां रिटायर होती है', 8 मई को डिश और डी2एच रंगमंच एक्टिव और एयरटेल स्पॉटलाइट पर देख सकते हैं।
चंदा है तू:--इस नाटक को प्रसिद्ध नाटककार जयवंत दलवी द्वारा लिखा गया है। यह टेलीप्ले, माता पिता के समर्पण और बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारियों को लेकर एक मार्मिक ट्रिब्यूट के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसकी कहानी एक ऐसे पति पत्नी मिस्टर और मिसेज शुक्ला की है जो अपने सीमित संसाधनों, फाइनेंशियल जिम्मेदारियों और प्रोफेशनल दायित्वों के साथ एक शारीरिक रूप से अक्षम बच्चे को पालने में आने वाली कठिनाइयों को दर्शाता है। नाटक के नायक और नायिका मिस्टर एंड मिसेज शुक्ला, अपने दिवयांग बेटे 'बच्चू' की देखभाल करते हुए, अपनी मानसिक स्वास्थ्य को बरकरार रखने की कोशिश करते हैं, साथ ही वे अपने खर्चों को नियोजित करने के तरीके खोंजते रहते हैं। वे यह सुनिश्चित करने के लिए अपना समय बांटते हैं कि दोनों में से कम से कम एक पैरेंट, हमेशा घर पर हों लेकिन दिवयांग बच्चा अक्सर माता पिता की बात नहीं मानता है और उसे संभालना आसान भी नहीं होता है। कभी-कभी बच्चे का बर्ताव, माता पिता के धीरज की परीक्षा जैसा लगता है। श्रीमती शुक्ला की भूमिका स्मिता बंसल ने निभाया है। इस प्ले में वो एक कामकाजी महिला हैं जो कभी-कभी अपने कभी न खत्म होने वाले कर्तव्यों से थोड़ी राहत चाहती हैं। इस अंधकारमय अस्तित्व में वह कैसे आशा और प्रकाश पाती है, यह देखना प्रेरणादायक है। कैमरे के लिए निशिकांत कामत द्वारा निर्देशित और मंच के लिए अतुल परचुरे द्वारा निर्देशित, इस टेलीप्ले में मानव गोहिल, संजय बत्रा, प्रसाद बर्वे और अतुल परचुरे भी हैं।