ओटीटी आया पर सिंगल थियएटर चला गया

New Update
ओटीटी आया पर सिंगल थियएटर चला गया

(OTT आला पन सिंगल थियएटर गेला!)

शरद राय

मराठा इतिहास की एक स्मरणीय घटना है जब किला बचाते हुए अपने बहादुर तानाजी की मौत की खबर  शिवाजी महाराज को मिली, उनके मुंह से उदगार निकला था- 'गढ़ आला पन सिंह गेला '(किला तो आया लेकिन शेर चला गया!) कुछ ऐसा ही उदगार इनदिनों मुम्बई के (या कहिए पूरे देश के) सिंगल थियएटर मालिकों के मूंह से सुनाई देता है-  'ओटीटी प्लेटफॉर्म तो आया है लेकिन सिंगल थियएटर चला गया !' सचमुच पूरे देश मे सात हज़ार सिंगल थियेटरों में से सिर्फ चार हज़ार बचे हैं और उनमे भी कोविड के बाद सिर्फ 20 परसेंट ही ऑपरेट हुए हैं जिनमे इक्के दुक्के/ 20-30 दर्शक ही पहुचते हैं और वो शो कैंसल हो जाते हैं। इन बचे सिनेमा घरों में धूल फांक रही है पर इन्हें बचाने के लिए कोई तानाजी नहीं दिखाई दे रहा है!

publive-image

सबसे खराब हालत है बॉलीवुड नगरी के 'सिंगल सिनेमा' घरों की, जहां मल्टीप्लेक्स थियेटरों ने कब्जा जमा लिया है। भारतीय सिनेमा ने शदी का समारोह मना लिया है। सिनेमा की शुरुवात के कुछ साल बाद- करीब 90 साल पहले सिनेमा को जब एक उच्च व्यवसाय के रूप में मान्यता मिल गयी थी, सिनेमा हॉल बनाना एक प्रतिष्ठा की बात हो गयी थी। जो धनीक सिनेमा घर बनाते थे, उनकी लोग हैरत से चर्चा करते थे- अरे वो तो टाकीज के मालिक हैं! मुम्बई तब बम्बई था और फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड नही कहा जाता था, यहां खूब सिनेमा टाकीज बनाए गए। अकेले मुम्बई में 136 सिनेमा हॉल थे जिनमें दर्शकों के बैठने की कैपेसिटी 99000 की थी। सिर्फ एक एरिया-ग्रांट रॉड में ही एक किलोमीटर सड़क पर 19 थियएटर बना दिये गए थे । यह वही एरिया है जहां कमाठीपुरा बसता है जिसका जिक्र संजय लीला भंसाली की हालिया रिलीज फिल्म 'गंगु बाई काठियावाडी' में किया गया है। यह सिंगल थियेटरों के उत्थान का दौर था। सबके सब थियएटर खूब चलते थे। फिल्में हाउसफुल जाती थी। लोग मल्टी प्लेक्स का नाम भी नही जानते थे।मल्टीप्लेक्स आने के बाद  भी 69 सिनेमा घर रह गए थे जिनमें से लॉकडाउन की बंदी के बाद 20% खोले ही नही गए। यही हालत कमोवेश देश के हर शहर की रही है। दिल्ली, जयपुर ,भोपाल, वाराणसी, पुणे तथा बंगाल और साउथ के शहरों से सिंगल थियएटर कम से कमतर होते चले गए। पहले तो इन टॉकीजों को वीडियो,वीसीआर, टीवी की मार सहनी पड़ी।फिर मल्टीप्लेक्स सिनेमा की संस्कृति ने इनके पांव हिला दिए। कोविड19 की बंदी ने तो सिंगल सिनेमा और उनके कर्मचारियों की हमेशा की छुट्टी ही जैसे घोषित कर दिया।

publive-image

पिछले तीन साल के लॉक डाउन के दौरान एक नई हवा आयी OTT की। ओटीटी की फिल्में और वेब सीरीज ने तो सिनेमा घरोंकी ज़रूरत को ही जैसे नकार दिया। मल्टीप्लेक्स हिल गए तो सिंगल थियएटर के लिए सांस लेना जैसे मुश्किल हो गया है। आज हालात ये हैं कि 30-40 रुपये के कम टिकट रेट पर भी दर्शक सिंगल थियएटर में जाकर फिल्में देखना पसंद नही कर रहे। OTT ने फिल्म का कन्टेंट इतना बदल दिया है कि दर्शक वो फिल्में टॉकीजों में जाकर परिवार के साथ देखने की हिम्मत ही नही जुटा सकता। वह ज़माना गया जब 'मदर इंडिया', 'खानदान',  'धरती कहे पुकार के', 'एक फूल दो माली', 'पाकीजा', 'औलाद', 'घर संसार' जैसी फिल्में देखने के लिए सिनेमा हॉल के टिकट की खिड़कियों में हाथ लहूलुहान हो जाते थे। अब तो OTT प्लेटफॉर्म पर  गंदी फिल्मों की भरमार है  जिसे हमारे यूथ मोबाइल के छोटे पर्दे पर ही देख लिया करते हैं।

यह भी सही है कि समय की रेस में सिंगल थियएटर नही चल पा रहे हैं।लेकिन, उनको चलाने का प्रयास भी कहाँ किया जा रहा है? ज्यादातर सिनेमा मालिक  यह कहकर दूर भाग रहे हैं कि इनको कैसे चलाया जाए जब सिर्फ और सिर्फ भारी नुकसान ही उठाना पड़ रहा है। टैक्सेशन, बिजली बिल, मेंटेनेंस,कर्मचारियों की पगार, कोविड ... और सरकार का असहयोगी रवैया। OTT के आगमन के बाद तो छोटे शहरों के सिंगल सिनेमा घरों में भी दर्शकों के लाले पड़ गए हैं। टिकट रेट 30-40 रुपया होने पर भी अगर एक शो के 20-30 टिकट ही बिकते हैं तो मुश्किल होती है शो चलाया कैसे जाए?

publive-image

आज हालात ये हैं कि OTT के आगमन के बाद सिंगल थियएटर में थियएटर के कर्मचारी बैठकर अपने मोबाइल फ़ोन पर  'लस्ट स्टोरीज', 'वर्जिन भास्कर', गंदी बात'... जैसी सीरीज देखते हैं। सच तो यह है कि सिनेमा को बनाने वालों को ही कुछ सोचना होगा कि कैसे भारतीय सिनेमा की गौरव गाथा को बचाया जाए। यह सोचने का समय है की कभी इसी इंडस्ट्री के राजश्री प्रोडक्शन के पास 100 सिनेमाघर होते थे।यशराज फिल्म्स और यहांतक की भोजपुरी स्टार निरहुआ ने सिंगल टॉकीजों की चेन बनाकर रखा था। सिनेमा का प्राचीन गौरव तभी कायम रह सकेगा जब कोई 'फालके' मन में उदगार लिए जागेगा - 'OTTआला पन सिंगल थियएटर गेला' की सोच लिए हुए।

Latest Stories